भारत के अक्षय-ऊर्जा लक्ष्य को हासिल करने में छोटी पवन चक्कियां कितनी उपयोगी हैं?
भारत, अपने अक्षय ऊर्जा के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने के लिए बड़े पैमाने पर पवन और सौर परियोजनाओं पर निर्भर है. हालांकि, छोटी पवन चक्की (विंड टरबाइन) और छोटे पवन-सौर-हाइब्रिड्स, ग्रिड और ऑफ-ग्रिड सिस्टम के माध्यम से ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने की क्षमता रखते हैं.
चेन्नई के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर सेंथिल कुमार ने हाल ही में दक्षिणी तमिलनाडु में मदुरै के पास अपने गृहनगर सुंदरपंडियम के दौरे पर पहली बार बिजली कटौती के कारण होने वाली परेशानियों को अनुभव किया. उन्होंने परेशानियों को याद करते हुए बताया, “मुझे पता था कि मेरे माता-पिता बिजली कटौती का सामना कर रहे थे. लेकिन जब मैं वहाँ गया तो मुझे एहसास हुआ कि यह कितना मुश्किल था.” अब, वह लगातार बिजली कटौती से निपटने के लिए समाधान के तौर पर अक्षय-ऊर्जा की तलाश में हैं.
सेंथिल कुमार का शहर अकेला नहीं है जिसे इस साल बिजली-कटौती का सामना करना पड़ा. कोयले की कमी के कारण भारत को अप्रैल 2022 में गंभीर बिजली संकट से गुज़रना पड़ा. पॉवर सिस्टम ऑपरेशन कॉरपोरेशन लिमिटेड (पीएसओसीएल) के अनुसार, 29 अप्रैल को 214 मिलियन यूनिट ऊर्जा की बड़ी कमी देखी गई. हालांकि बिजली कटौती को कम कर दिया गया है, लेकिन सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर के एक अध्ययन ने जुलाई और अगस्त के बीच फिर से संभावित बिजली-संकट की भविष्यवाणी की है. 28 जुलाई, 2022 का दिन एक अपवाद था, इस दिन की कटौती 10.26 मिलियन यूनिट थी. कोयले के आयात की वजह से ऊर्जा की कमी 10 मिलियन यूनिट कम हो गई है.
हालांकि, हाल ही में कोयले के आयात के कारण बिजली की कीमतों में 60 से 70 पैसे प्रति यूनिट की बढ़ोतरी हुई है. बिजली मंत्री आर.के. सिंह के अनुसार जहाँ कई क्षेत्रों में बिजली कटौती जारी है, वहीं बिजली की कीमतें और अधिक बढ़ने की संभावना है. कोयला मंत्रालय के अनुसार, भारत के लिए आवश्यक ऊर्जा का लगभग 55% कोयले से पूरा होता है.
डीकार्बोनाइज की कोशिश के तहत भारत ने देश को कार्बन रहित करने का महत्वाकांक्षी अक्षय ऊर्जा लक्ष्य निर्धारित किया है. साल 2015 में पेरिस में की गई घोषणा में 2022 तक 175 गीगावाट तक अक्षय ऊर्जा हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था. भारत ने पिछले साल स्कॉटलैंड में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (COP26) में 2030 तक 450 गीगावाट का नया लक्ष्य निर्धारित किया.
हालांकि, कई नीतिगत बदलावों के कारण 2017 से बड़ी पवन ऊर्जा परियोजनाओं का काम धीमा हो गया है और रूफटॉप सोलर को अभी रफ्तार मिलनी बाकी है.
नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता
ऊर्जा विशेषज्ञों के अनुसार, बड़ी अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के कार्यान्वयन में बाधा, भू-राजनीतिक अनिश्चितताओं और आयातित कोयले पर भारत की निर्भरता को देखते हुए, वर्तमान स्थिति में खास तौर से छोटे पवन चक्कियां और छोटे पवन-सौर हाइब्रिड की अक्षय ऊर्जा की ओर देखा जा रहा है.
इंटरनेशनल इलेक्ट्रोटेक्निकल कमीशन के अनुसार, एक छोटा टर्बाइन वह है जिसका रोटर स्वेप्ट एरिया 200 वर्ग मीटर से छोटा होता है, और जो 1,000 AC (अल्टरनेटिंग करंट) या 1,500 DC (डायरेक्ट करंट) पावर उत्पन्न करता है.
स्मॉल विंड (एसडब्ल्यू) और छोटी स्मॉल विंड सोलर (एसडब्ल्यूएस) हाइब्रिड सिस्टम के विशेषज्ञ ‘पुणे स्थित स्पिट्जन एनर्जी के उदय क्षीरसागर बताते हैं, “व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, भारतीय संदर्भ में, हम कह सकते हैं कि 10 किलोवाट क्षमता तक के टर्बाइन छोटे हैं, हालांकि कुछ देशों में यह मानक 300 किलोवाट हैं.”
सोलर विंड टर्बाइन हवा की गति से दो मीटर प्रति सेकंड जितनी कम गति से चल सकते हैं. उन्हें ग्रिड से जोड़ा जा सकता है या स्टैंड-अलोन सिस्टम हो सकता है और सोलर के साथ भी जोड़ा जा सकता है. इन्हें छतों पर भी लगाया जा सकता है. उनमें से कुछ पोर्टेबल (एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से ले जाने लायक) भी हैं.
ऊर्जा क्षमता को देखते हुए, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) ने सितंबर 2010 में ‘स्मॉल विंड एनर्जी और हाइब्रिड सिस्टम‘ कार्यक्रम शुरू किया. इसमें सोलर विंड टरबाइन निर्माताओं का पैनल शामिल था, जिसमें राष्ट्रीय पवन ऊर्जा संस्थान (एन आई डब्ल्यू ई) ने परीक्षण किया और टर्बाइनों को मान्य किया.
एनआईडब्ल्यूई के पूर्व निदेशक एमपी रमेश के अनुसार, जब इन पुर्जों की मरम्मत और उन्हें बदलना एक चुनौती थी उस दौरान बड़ी संख्या में आयात किए जा रहे टर्बाइनों को प्रमाणित किया गया था.
क्षीरसागर ने बताया, “यह योजना स्मॉल विंड और विंड-सोलर को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई थी, और इसलिए इस पर सब्सिडी दी गई थी.” एमएनआरई की 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार यह योजना मार्च 2017 में बंद हो गई. क्षीरसागर कहते हैं, “क्योंकि 2017 तक, जब एमएनआरई ने योजना की समीक्षा की, तो यह महसूस किया गया कि सब्सिडी अधिक थी, क्योंकि तब तक फोटो-वोल्टाइक सोलर की कीमत में भारी गिरावट हुई थी.”
सरकारी और सार्वजनिक संस्थानों के लिए सब्सिडी 1.5 लाख रुपये प्रति किलोवाट और अन्य के लिए 1 लाख रुपये प्रति किलोवाट निर्धारित की गई थी. कोयंबटूर स्थित ऊर्जा सलाहकार ए. डी. थिरुमूर्ति बताते हैं, “वास्तविक लागत 2.5 से 3 लाख रुपये प्रति किलोवाट थी.”
हालांकि, मुख्य रूप से कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) परियोजनाओं के लिए, बिना सब्सिडी के एसडब्ल्यू और एसडब्ल्यूएस सिस्टम लगाया जाना जारी है. आवासीय से वाणिज्यिक और सार्वजनिक संस्थाओं जैसे रेलवे और सेना, दूरदराज के ऑफ-ग्रिड गांवों या अनियमित आपूर्ति वाले क्षेत्रों के लिए आवेदन मान्य कर दिया जाता है. क्षीरसागर कहते हैं, “हमने किसानों, रेलवे स्टेशनों, लेवल क्रॉसिंग और आदिवासी स्कूलों के लिए सोलर विंड टर्बाइन लगाए हैं.”
स्पिट्जन की प्रभावशाली परियोजनाओं में से एक महाराष्ट्र में है, जिसमें एक बांध के फाटकों को संचालित करने के लिए 100 किलो वाट का सोलर विंड सिस्टम स्थापित किया गया है. क्षीरसागर याद करते हुए बताते हैं, “मध्य वैतरणा बांध में डीजल का इस्तेमाल किया जा रहा था. सोलर विंड सिस्टम के साथ, डीजल की खपत में भारी कमी आई है.”
छोटी प्रणालियों के अलावा जयपुर स्थित आईवाईएसईआरटी एनर्जी सेना की दूरस्थ चौकियों के लिए ऑफ-ग्रिड सिस्टम और राजमार्गों पर एक नया सोलर विंड सिस्टम भी स्थापित करती है, ताकि चलते वाहनों के वेग का दोहन किया जा सके. आईवाईएसईआरटी के संस्थापक राकेश बिस्वास बताते हैं, “राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के लिए, हम इन टर्बाइनों को बीच में स्थापित करते हैं. जब वाहन गुजरते हैं, बिजली उत्पन्न होती है, उस बिजली का उपयोग स्ट्रीट लैंपों को जलाने के लिए किया जाता है.”
यदि संभव हो, तो हाइब्रिड सिस्टम स्थापित करना अच्छा काम करता है, क्योंकि दोनों अक्षय स्रोत एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं. आईवाईएसईआरटी के कुछ टर्बाइन जो एक ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) अक्ष पर घूमते हैं वे सौर पैनलों के साथ जुड़ जाते हैं.
हाइब्रिड सिस्टम स्थापित करने की चुनौतियां
जब थिरुमूर्ति से पूछा गया कि रूफटॉप एसडब्ल्यू टर्बाइनें क्यों नहीं चलीं, तो थिरुमूर्ति ने कहा, “लागत के अलावा ध्वनि और कंपन भी अवरोधक थे.” बिस्वास ने बताया कि अधिकतर आधुनिक सिस्टम जिसे आईवाईएसईआरटी ने डिजाइन किया है और स्वदेशी तरीके से बनाए हैं, उससे समस्याएँ दूर हुई हैं. लेकिन वर्तमान में, बिना सब्सिडी के, लागत सोलर सिस्टम के पक्ष में है. बिस्वास कहते हैं, “एक किलोवाट के सोलर रूफटॉप सिस्टम की कीमत केवल 40,000 रुपये है, जबकि 1 किलोवाट के सोलर-विंड हाइब्रिड की कीमत 2.5 लाख रुपये होगी.”
एक छोटी पवन चक्की की लागत 70,000 रुपये प्रति किलोवाट से शुरू होती है और हाइब्रिड के लिए 2.5 लाख रुपये प्रति किलोवाट तक जा सकती है. इसकी कीमत उसमें प्रयोग हुई सामग्री, प्रौद्योगिकी, इलाके और यह ग्रिड से जुड़ा है कि नहीं, इस बात पर निर्भर करती है. क्षीरसागर का कहना है, “जैसा कि हमारे पास है, रूफटॉप सोलर के पर सब्सिडी अच्छा रहेगा.”
उपयोगकर्ताओं को प्रशिक्षित करने के बावजूद, इसके रख-रखाव में व्यावहारिक कठिनाइयां हैं, विशेष रूप से अधिकांश सोलर विंड टर्बाइन ऑफ-ग्रिड हैं. रमेश कहते हैं, “रख-रखाव महत्वपूर्ण है, जिसे लोग अनदेखा कर देते हैं. और जब लोग इसे सब्सिडी पर प्राप्त करते हैं, तो यह किसी का पाल्य नहीं बन जाता है.”
सीएसआर परियोजनाओं के लिए एक स्थानीय एनजीओ के साथ साझेदारी करके स्पिट्जन इस समस्या को दूर करने की कोशिश करता है. समुदाय के साथ उनके तालमेल को देखते हुए, एनजीओ यह सुनिश्चित करने में सक्षम है कि समुदाय के सदस्य सिस्टम को बनाए रखें.
रमेश ने खुलासा किया कि टर्बाइनों का प्रमाणन (सर्टिफिकेशन) एक लंबी और महंगी प्रक्रिया है, क्योंकि टर्बाइनों को सालों तक विभिन्न मौसमों में परीक्षण के बाद प्रमाणित किया जाता है. जैसा कि आईईसी या किसी अन्य संस्था द्वारा सोलर विंड टर्बाइनों के लिए कोई स्पष्ट सिफारिश नहीं थी, एनआईडब्ल्यूई ने अपने स्वयं के परीक्षण शुरू किए, और वास्तविक परीक्षण की लागत का केवल बीसवां हिस्सा चार्ज किया. क्षीरसागर ने सुझाव देते हुए कहा, “एसडब्ल्यू सिस्टम निर्माता छोटे खिलाड़ी हैं और उनके पास वित्तीय संसाधनों की कमी है. इसलिए, नए निर्माताओं को आकर्षित करने के लिए हमें सहायक नीति की आवश्यकता है.”
एमएनआरई की 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार पूरे भारत में केवल 3.35 मेगावाट एसडब्ल्यू और हाइब्रिड सिस्टम स्थापित हैं. हालांकि भारत में बाजार की संभावनाओं पर कोई डेटा नहीं है लेकिन बाजार अनुसंधान फर्म मोर्डोर इंटेलिजेंस की रिपोर्ट का अनुमान है कि 2027 तक सोलर विंड टर्बाइन का वैश्विक बाजार 309 मिलियन डॉलर होगा. इस क्षमता का उपयोग करने के लिए, इंडियन स्मॉल विंड एसोसिएशन के सदस्यों ने अगस्त 2021 में एमएनआरई के अधिकारियों से मुलाकात की. उन्होंने, एसडब्ल्यू संयंत्रों को ग्रिड से जोड़ने के लिए सब्सिडी और तकनीकी के लिए हर संभव सहायता की मांग की. एक ग्रिड-कनेक्टेड सिस्टम अधिक किफायती होगा क्योंकि स्टोरेज बैटरी की आवश्यकता नहीं होगी.
शक्ति सस्टेनेबल एनर्जी फाउंडेशन और इडम इंफ्रास्ट्रक्चर एडवाइजरी प्राइवेट लिमिटेड की एक रिपोर्ट में 2032 तक सोलर विंड से 100 मेगावाट के लक्ष्य का सुझाव दिया गया है, और इसे प्राप्त करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में सोलर विंड परियोजनाओं को फंड देने के लिए माइक्रोफाइनेंसिंग की सिफारिश की गई है.
सेंथिल कुमार जैसे लोग जो निर्बाध बिजली आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए अपनी टर्बाइन स्थापित करना चाहते हैं, इस लक्ष्य में योगदान दे सकते हैं. वह कहते हैं, “मैंने जो सिस्टम देखा वह सुचारू रूप से काम करता था. मैं एक समान टर्बाइन और एक बैटरी स्थापित करूंगा जो मेरे माता-पिता के लिए निर्बाध बिजली आपूर्ति सुनिश्चित करेगी.”
यह लेख ‘इंटरन्यूज अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क’ द्वारा दी जाने वाली ‘रिनेवेबल एनर्जी मीडिया फैलोशिप’ के सहयोग से तैयार किया गया है.
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: स्मॉल विंड सोलर हाइब्रिड में ग्रिड-कनेक्शन के साथ-साथ ऑफ-ग्रिड सिस्टम के माध्यम से ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने की क्षमता है. तस्वीर – कैरल एम. हाईस्मिथ आर्काइव, लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस, प्रिंट्स एंड फोटोग्राफ्स डिवीजन/विकिमीडिया कॉमन्स