पर्यावरण को सहेजते हुए आगे बढ़ता कोंकण का इको-टूरिज्म
अनुभव-आधारित पर्यटन को बढ़ावा देने वाले कुछ संस्थान पर्यटकों को आदिवासी समुदायों की जीवन शैली और उनके कम कार्बन फुटप्रिंट वाले जीवन का अनुभव देते हैं. ऐसी संस्थाएं महाराष्ट्र में लोकप्रिय हो रही हैं.
महाराष्ट्र में पर्यटन को लेकर एक नई पहल लोकप्रिय हो रही है. इसमें पर्यटकों को स्थानीय समुदायों की जीवन शैली और उनके कम कार्बन-फुटप्रिंट यानी किसी इकाई (व्यक्ति या संस्था) द्वारा किये जाने वाले कार्बन उत्सर्जन वाले जीवन का अनुभव मिलता है.
महाराष्ट्र वन विभाग के तहत मैंग्रोव फाउंडेशन ने भी इस तरह की पहल को बढ़ावा दिया है. आजीविका को बढ़ावा देने वाली मैंग्रोव सफारी सरकारी पहल का खास आकर्षण है.
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर सरकार से समर्थित क्षमता निर्माण की पहल के साथ इको-टूरिज्म के लिए बाजार विकसित किया जाए तो इस तरह के इको-टूरिज्म से टिकाऊ ग्रामीण विकास को बढ़ावा मिल सकता है.
भारत के पश्चिमी तट पर बसा कोंकण का इलाका सालों से सैलानियों को भाता रहा है. पश्चिमी घाट और अरब सागर के बीच स्थित इस इलाके को कुदरत ने करीने से सजाया है. यहां समुद्र तट, झरने, मंदिर, किले, मैंग्रोव, समुद्री भोजन समेत बहुत कुछ है. इन प्राकृतिक चीजों से पर्यटक यहां के अलग-अलग पारिस्थितिक तंत्र का बेहतर अनुभव पाते हैं.
यहां अनुभव से जुड़े इको-टूरिज्म से सम्बंधित कुछ उपक्रम पर्यटकों को पसंद आ रहे हैं. ये उपक्रम यहां के मूल समुदायों की जीवन शैली और संस्कृति से परिचित करते हैं.
यहां समुदाय-आधारित टिकाऊ इको-टूरिज्म एजेंसी कोंकणी रान माणूस भी काम करती है. एजेंसी समुद्र तट के किनारे और पहाड़ियों पर बसे गांवों में स्थानीय उपक्रमों के साथ मिलकर काम करती है. कोंकणी रान माणूस के संस्थापक प्रसाद गावड़े ने बताया, “व्यावसायिक पर्यटन में एक बड़ी खामी है. उसमें सैलानियों को शहर जैसी सुविधाएं देने के लिए स्थानीय समुदायों को अपनी जीवन शैली बदलने के लिए मजबूर किया जाता है. इस कारण आजीविका का नुकसान होता है और स्थानीय संस्कृति और परंपराएं खत्म होती हैं.”
उन्होंने कहा, “कोंकण में हमारे पास कोकम बटर, रागी रोटी, और फिश करी जैसा शानदार खान-पान है. इन्हें बनाने में स्थानीय चीजों का इस्तेमाल होता है. लेकिन पारंपरिक पर्यटन में अपनी जमीन से हासिल चीजों के साथ बने स्थानीय व्यंजनों की कोई कीमत नहीं है.” कोंकणी रान माणूस एक अहम सिद्धांत पर काम करता है: पर्यटन को टिकाऊ बनाने के लिए स्थानीय लोगों की जीवन शैली यूनिक सेलिंग पॉइंट होना चाहिए. इसका मतलब है कि पर्यटकों को स्थानीय लोगों की तरह रहने और खाने के लिए तैयार रहना चाहिए. किसानों और मछुआरों के साथ पैदल चलकर प्रकृति से जुड़ना चाहिए और कभी-कभी खेतों में भी मदद करनी चाहिए.
गावड़े कहते हैं, “हमारे मॉडल में यात्रा, भोजन और आवास सभी चीजें टिकाऊ हैं. अधिकांश यात्राएं पैदल ही की जाती हैं; हमारे पर्यटक स्थानीय रूप से उगाई गई चीजें खाते हैं और गांवों में मिट्टी से बने घरों में रहते हैं.” कोशिश की जाती है कि पर्यटक अपनी गाड़ी नहीं लाएं. यही नहीं वे जो भी प्लास्टिक लाते हैं, उन्हें अपने साथ शहर वापस ले जाना चाहिए. कोंकणी रान माणूस को हर मौसम में करीब 50 सैलानी मिलते हैं. यानी एक साल में उनके पास 140-150 मेहमान (वॉलेंटियर वाले मेहमान सहित) आते हैं.
इलाके में ऑलिव रिडले कछुओं के संरक्षण के लिए साल 2007 में वेलस टर्टल फेस्टिवल शुरू हुआ था. यह सफल इको-टूरिज्म मॉडल के रूप में विकसित हुआ है. इससे कछुओं को बचाने के लिए धन जुटाया जाता है. महोत्सव के पहले साल वेलस में कछुओं के संरक्षण की अगुवाई करने वाले गैर सरकारी संगठन सह्याद्री निसर्ग मित्र ने कहा कि उन्हें 50 मेहमानों की उम्मीद थी, लेकिन आए 150 से अधिक.
सह्याद्री निसर्ग मित्र के विश्वास कटदारे ने बताया, “स्थानीय समुदायों के घरों में सभी मेहमानों के लिए जगह नहीं थी. इसलिए उन्हें यार्ड में सोना पड़ता था. अगले दिन कछुओं को देखने के बाद सोने की व्यवस्था के बारे में सभी शिकायतें जाती रही.” वेलस में हर साल दो महीनों के दौरान 4,000-6,000 पर्यटक आते हैं. वेलस टर्टल फेस्टिवल एक बार में 300 सैलानियों को होमस्टे में रख सकता है.
वेलास के स्थानीय समुदायों ने कटदारे की सलाह मानते हुए गांव में होटल और रिसॉर्ट शुरू करने की मुखालफत की और अब पर्यटकों को होम स्टे की पेशकश कर रहे हैं.
सिम्बायोसिस सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज एंड सस्टेनेबिलिटी के प्रमुख गुरुदास नुल्कर ने यहां के वेलस मॉडल का अध्ययन किया है. उन्होंने इसकी तुलना मुरुड में पारंपरिक पर्यटन मॉडल से की है. वो कहते हैं कि वेलस मॉडल का खास पहलू होमस्टे के लिए प्रतिस्पर्धा की कमी है. दोनों ही जगहें दस हजार से कम आबादी वाले लोकप्रिय पर्यटन स्थल हैं. दोनों ही जगहों पर कोई इंडस्ट्री नहीं है. मुरुड में पर्यटन को किसी संगठन द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाता है. वहीं वेलस ने एक स्वैच्छिक संगठन का गठन किया है जो इको-टूरिज्म से जुड़ी गतिविधियों को नियंत्रित करता है. अध्ययन में कहा गया है कि इन गांवों में कागज पर कई समानताएं हैं, लेकिन पर्यावरण संसाधनों के इस्तेमाल और सांस्कृतिक बदलावों के मामले में वे काफी अलग हैं.
उन्होंने कहा, “किसी इको-टूरिज्म मॉडल को टिकाऊ और समुदाय आधारित बनाने के लिए पूंजी के सभी रूपों – सामाजिक, मानवीय और प्राकृतिक – को स्थानीय रूप से सोर्स किया जाना चाहिए. जब तक हर कोई एक जैसी राशि चार्ज नहीं करते, तब तक होमस्टे अपनी सुविधाओं को अपग्रेड करने और पर्यटकों को अधिक से अधिक सुविधाएं प्रदान करने के इच्छुक होते हैं, जो टिकाऊ मॉडल नहीं है.”
कोंकण में इको-टूरिज्म को न सिर्फ निजी उद्यमियों बल्कि महाराष्ट्र के मैंग्रोव और समुद्री जैव विविधता संरक्षण फाउंडेशन (मैंग्रोव फाउंडेशन) द्वारा भी बढ़ावा दिया जाता है. यह महाराष्ट्र के वन विभाग के तहत एक स्वायत्त निकाय है. रायगढ़, रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग जिलों के नौ गांवों में मैंग्रोव फाउंडेशन आजीविका को बढ़ावा देता है और इस प्रक्रिया में मैंग्रोव के महत्व के बारे में जागरूकता पैदा करते हुए पर्यटकों का झुकाव पारंपरिक पर्यटन से मैंग्रोव पर्यटन की ओर बढाता है.
मैंग्रोव फाउंडेशन के सहायक निदेशक (इको-टूरिज्म) वंदन झावेरी ने कहा, “हम जहां भी संभव हो, इंजन बोट के बजाय साइकिल, पारंपरिक नावों और कयाकिंग (एक तरह की नाव) को बढ़ावा देते हैं.” उन्होंने कहा, “हम चुने गए गांवों को इको-टूरिज्म की अहमियत के बारे में प्रशिक्षित करते हैं. गांवों के निवासी आमतौर पर मैंग्रोव प्रजातियों का महत्व जानते हैं लेकिन उनके वैज्ञानिक नाम नहीं जानते. जैसे-जैसे पर्यटक पर्यटन का अनुभव करना चाहते हैं, वैसे-वैसे हमारी पहल से अधिक कमाई शुरू हो जाएगी.”
सुशेगाद: कम कार्बन उत्सर्जन वाली जीवन शैली
कोंकणी रान माणूस के साथ पर्यटकों को “सुशेगाद” अनुभव भी मिलता है. यह कोंकणी संस्कृति में एक अवधारणा है. इसका मतलब है “प्रकृति की उदारता से संतुष्ट होना और साधारण जीवन में विलासिता खोजना.”
गावड़े ने कहा, “हमारी संस्कृति में टिकाऊ परंपराओं की भरमार है. हम एक साथ आने वाले लोगों की संख्या को सीमित करते हैं ताकि वे अलग-अलग कोंकणी अनुभवों का आनंद उठा सकें: मसलन, केकड़े और मछली, बांस के कोमल अंकुर, जंगली मशरूम खाना. हम 12 लोगों से बड़े समूह को संभाल नहीं सकते क्योंकि ऐसा करने पर हमें स्थानीय व्यंजनों को परोसने के लिए संसाधनों का दोहन करना होगा.”
गावड़े की नीति क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के या-येन सन के सुझावों में से एक को दिखाती हैं. सन ने 2018 में पर्यटन से जुड़े कार्बन फुटप्रिंट का अध्ययन किया था. उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को एक ईमेल साक्षात्कार में बताया, “पर्यटकों का एक स्थायी कोटा तय करना और समय के साथ इसे बनाए रखकर वैश्विक पर्यटन से होने वाले उत्सर्जन को रोकने के लिए एक ‘डी-ग्रोथ’ रणनीति तैयार करना जरूरी है.”
गावड़े ने बताया कि कोंकणी जीवन शैली में टिकाऊपन शामिल है जो संसाधनों के दोहन को रोकता है. उन्होंने कहा, “सुशेगाद जीवन के विचार में धन और संसाधनों को जमा करना या 24X7 सक्रिय जीवन शैली शामिल नहीं है. आम तौर पर इसमें संसाधनों की अधिक खपत शामिल होती है. इस क्षेत्र में खेती कम कठिन है और विस्तारवादी नहीं है. भूमि पहाड़ी और घने जंगलों वाली है, इसलिए उपलब्ध जमीन पर आमतौर पर वेटलैंड खेती और जीवन चलाने के लिए खेती की जाती है.”
इस क्षेत्र में “रापण फिशिंग” नाम की पारंपरिक समुदाय आधारित मछली पकड़ने की परंपरा है. उन्होंने कहा, “20-50 गांव के लोगों का एक समूह लकड़ी की नाव में समुद्र तट के पास पानी को छानता है. हम छोटी मछलियों को बचाने के लिए समुद्र में बहुत गहराई तक नहीं जाते हैं. यह पक्का करता है कि हम बहुत अधिक मछली नहीं पकड़ेंगे.”
मैंग्रोव फाउंडेशन द्वारा समर्थित पहलों में से एक कालिंजे इको-टूरिज्म मैंग्रोव सफारी और होम स्टे की सुविधा देता है. इसमें पर्यटकों को स्थानीय जीवन शैली का अनुभव मिलता है. स्थानीय व्यंजन जैसे तली हुई सीप और केकड़ा, भाकरी (आम तौर पर बाजरा से बनी चपटी रोटी), अंबोली (चावल और दाल के पैनकेक) को स्थानीय पानी, छाछ, या सोलकढ़ी (कोकम-आधारित पेय) के साथ परोसा जाता है. “हम शहरी लोगों को वो अनुभव देते हैं कि जो शहरों में संभव नहीं हैं, जैसे कि टाइल वाली छत से बने हमारे घरों में रहना. इको-टूरिज्म समूह का नेतृत्व करने वाली गाइडों में से एक कविता टोडनकर ने कहा,” लेकिन यह हमारी शुरुआत है. एक बार जब हम बड़े हो जाएंगे, तो कुछ शहरी सुविधाओं के साथ होम स्टे शुरू करना चाहेंगे ताकि जो लोग इन आराम के बिना नहीं रह सकते हैं, वे भी हमारे साथ रह सकें.”
इको-टूरिज्म से बढ़ती जागरूकता
मैंग्रोव फाउंडेशन द्वारा समर्थित सोनगांव इको-टूरिज्म, वाशिष्ठी नदी के किनारे होम स्टे और मगरमच्छ सफारी प्रदान करता है. आगंतुक मगरमच्छ सफारी बुक करने के लिए फोन कर सकते हैं; हालांकि समय हर दिन बदलता रहता है क्योंकि मगरमच्छ कब दिखेंगे यह ज्वार-भाटे पर निर्भर करता है.
सफ़ारी के लिए समन्वय करने वाले सोगांव के एक मछुआरे राजाराम गोविंद दिवेकर का कहना है कि इस पहल से इन मैंग्रोव के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ी है.
दिवेकर बताते हैं, “हमारे पास मैंग्रोव के घने जंगलों वाला एक बड़ा समुद्र तट है, जो हमारे गांव को तटीय कटाव से बचाता है और बाढ़ के असर को कम करता है.”
मैंग्रोव फाउंडेशन के प्रोजेक्ट एसोसिएट क्रांति मिंडे का कहना है कि सोनगांव इको-टूरिज्म की सफलता ने स्थानीय लोगों में यह भरोसा जगाया है कि पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़ी सेवाएं अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दे सकती हैं. इसने पूरे गांव को इस पहल की सफलता में मदद करने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने कहा, “पूरा गांव अब इको-टूरिज्म कमेटी की मदद कर रहा है क्योंकि उन्हें भरोसा है कि इको-टूरिज्म गांव में और पैसा ला सकता है और आजीविका को बढ़ावा दे सकता है.”
डोडा मार्ग के पास होम स्टे के मालिक प्रवीण देसाई ने अपनी 10 एकड़ जमीन पर काजू की खेती करने का फैसला किया था. इस दौरान वो वन्यजीव विशेषज्ञों से मिले, जिन्होंने उन्हें वन्यजीव ट्रेल्स के साथ होम स्टे की क्षमता के बारे में आश्वस्त किया. इसके बाद उन्होंने आसपास की जैव विविधता पर विशेषज्ञों के साथ प्रशिक्षण प्राप्त किया और फिर तिलारी व तालकट के जंगलों के नजदीक वनोशी वन होम स्टे शुरू किया.
उन्होंने बताया, “होम स्टे से शानदार प्रतिक्रिया मिली. फोटोग्राफर, शोधकर्ता और अन्य प्रकृति प्रेमी ट्रेल्स का आनंद लेते हैं. इसने मुझे अपने घर के बगल में एक और कॉटेज बनाने के लिए प्रेरित किया. हमने इसे अपनी जमीन पर बनाया है और पिछले साल लॉकडाउन खत्म होने के बाद से बुकिंग हो रही हैं.”
रान माणूस इको-टूरिज्म सेंटर से जुड़े मंगर फार्म स्टे के मालिक और किसान बालू परब कहते हैं कि उन्होंने कभी भी पर्यटन में आने पर विचार नहीं किया था. हालांकि रान माणूस के गावड़े के मना लेने के बाद उन्होंने अपने 150 साल पुराने आउटहाउस को होम स्टे में बदल दिया.
परब के मुताबिक, “हमारे मेहमान आजीविका-आधारित जानकारी लेने और इस क्षेत्र की स्थानीय प्रजातियों के बारे में अधिक जानने में दिलचस्पी रखते हैं.”
कोंकणी घरों में आम तौर पर एक मांगर होता है – आउटहाउस के लिए एक कोंकणी शब्द जहां सामान या जरूरत की चीजों को रखा जाता है – इसे मेहमानों के लिए बुनियादी सुविधाओं के साथ तैयार किया जा सकता है. मांगर मॉडल के कई फायदे हैं. एक तो किसान अपनी जीवन शैली साझा करके और खेती से जुड़े कौशल के बारे में यात्रियों को बता सकते हैं. दूसरा उन्हें अपनी उपज पर्यटकों को बेचकर अच्छी कमाई करने का मौका मिलता है.
परब ने बताया, “कोंकणी रान माणूस के जरिए आने वाले पर्यटक कुदरत के करीब रहना चाहते हैं. मैं उन्हें जंगल की पगडंडियों पर ले जाता हूं और उन्हें अपने खेत से जंगली खाद्य पदार्थ और पेड़ दिखाता हूं. मैं उनसे कहता हूं कि कमरे में टीवी या एयर कंडीशनर जैसी शहरी सुविधाएं नहीं हैं, लेकिन अब तक सभी प्रतिक्रिया सकारात्मक रही है.”
“जिम्मेदार, समुदाय आधारित पर्यटन से टिकाऊ ग्रामीण विकास को बढ़ावा”
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MOEFCC) ने वनों के आसपास संरक्षित क्षेत्रों और इको-टूरिज्म क्षेत्रों के भीतर “कम असर डालने वाले प्राकृतिक पर्यटन” में मदद करने के लिए 2021 में दिशा निर्देश जारी किए थे. विशेषज्ञों का कहना है कि इन दिशा निर्देशों को सही दिशा में लागू करने लायक बनाने के लिए इनमें बदलाव करने की जरूरत है. खास दिशा निर्देशों और नीतियों को यदि ग्राम सभाओं, ग्राम पंचायतों और शहरी विकास प्राधिकरणों के माध्यम से लागू किया जाता है, तो इको-टूरिज्म टिकाऊ ग्रामीण विकास के काम आ सकता है.
महाराष्ट्र राज्य जैव विविधता बोर्ड की सदस्य और पारिस्थितिकी विज्ञानी अपर्णा वाटवे ने कहा, “सफल इको-टूरिज्म मॉडल वह है जहां प्राकृतिक संसाधनों का दोहन नहीं किया जाता है. इसमें आमतौर पर वैज्ञानिक समुदाय से शोध प्रतिक्रिया शामिल होती है. क्षेत्र की वहन क्षमता, जैव विविधता की भलाई, नाजुक लैंडस्केप पर पर्यटन के प्रभाव और इको-टूरिज्म के लिए डिजाइनिंग अनुभव के बारे में रिसर्च इनपुट सफल और टिकाऊ पारिस्थितिक मॉडल विकसित करने के लिए जरूरी हैं.”
एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ कम्युनिटी रिसोर्सेज एंड डेवलपमेंट (सीआरडी) में एसोसिएट प्रोफेसर मेघा बुद्रुक ने बताया कि भारत में पर्यटन से जुड़ा रिसर्च अभी भी शुरुआती अवस्था में है. डेटा-आधारित फैसले लेने से पर्यटन में जिम्मेदारी को बढ़ावा मिल सकता है. उन्होंने कहा, “अर्थशास्त्र से परे, पर्यटन के सामाजिक और पारिस्थितिक प्रभावों के बारे में रिसर्च, जैसे कि क्षमता या चाहत और स्थानीय समुदायों की उम्मीदें, जिम्मेदार पर्यटन नीति को आकार देने में मदद कर सकती हैं.”
“इको-टूरिज्म के लिए बाजार जरूरी”
विशेषज्ञों का कहना है कि इको-टूरिज्म में क्षमता विकसित करना सिक्के का महज एक पहलू है. इसके साथ ही इको-टूरिज्म के लिए बाजार बनाना और इसमें जवाबदेही और टिकाऊपन लाने के लिए जागरूकता भी जरूरी है. गुरुदास नुल्कर ने कहा, “सरकारों को निवेश करके और स्थानीय संसाधनों व विरासत को बचाने के लिए जागरूकता पैदा कर इको-टूरिज्म पहल की मदद करनी चाहिए. हमें मैंग्रोव फाउंडेशन के काम को संस्थागत रूप देने की जरूरत है. महाराष्ट्र के लैंडस्केप को सहेजने के लिए इक्का-दुक्का गतिविधियां पर्याप्त नहीं हैं.”
एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी के बुद्रुक ने सुझाव दिया कि लोगों की यात्रा करने की वजहों पर डेटा के आधार पर टार्गेटेड मार्केटिंग की जानी चाहिए. इसे ‘पुश एंड पुल मोटिवेशन’ के रूप में जाना जाता है और इसके लिए डेटा जमा किया जाना चाहिए. “पर्यटकों के लिए शैक्षिक कार्यक्रम बनाने के लिए सैलानियों की जागरूकता पर एक बेसलाइन जरूरी है. सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए पर्यटन पर इसके असर का पता लगाया जाना चाहिए.”
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर के विनोद गुप्ता स्कूल ऑफ मैनेजमेंट में पीएचडी के छात्र सौमेन रेज ने कहा, “भारत को पर्यटन क्षेत्र में निवेश करना चाहिए ताकि स्थानीय नीतियां कार्बन उत्सर्जन को कम करने के राष्ट्रीय लक्ष्यों के मुताबिक हों.” रेज ने डीकार्बोनाइजेशन में पर्यावरण के अनुकूल पर्यटन की भूमिका का अध्ययन किया है.
क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के या-येन सन ने कहा, चूंकि ऊर्जा बचाने से जुड़ी पहल के लिए निवेश पर रिटर्न कम रहता है, इसलिए व्यवसायों को कम उत्सर्जन के लिए सीमित प्रोत्साहन मिलता है.
उन्होंने बताया कि समय के साथ सावधानीपूर्वक कार्बन एडिटिंग और मूल्यांकन साथ-साथ होने पर जिम्मेदार इको-टूरिज्म कार्बन उत्सर्जन को कम करने में योगदान दे सकता है. वो कहती हैं, “पर्यटन से होने वाले उत्सर्जन को कम करने के लिए, मांग और आपूर्ति दोनों दृष्टिकोण से पर्यटन को विकसित करना जरूरी है. घरेलू यात्रियों की सेवा-सत्कार करने से यात्रा से संबंधित उत्सर्जन न्यूनतम रहेगा.
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: मॉनसून धान के खेत में स्वेच्छा से कोंकणी रान माणूस अतिथि. तस्वीर - कोंकणी रान माणूस
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