Tata का कैसे हुआ था ग्लोबल ब्रांड Tetley, इस डील से बढ़ गया था देश का गौरव
टाटा समूह द्वारा टेटली के अधिग्रहण ने इतिहास रच दिया था. इस डील में सबसे ज्यादा भूमिका रही टाटा समूह के अनुभवी आरके कृष्ण कुमार की..
फरवरी 2000 में BBC पर एक आर्टिकल चला, जिससे पूरे देश ने गर्व महसूस किया. 'Tetley bagged by India’s Tata' (टेटली को भारत के टाटा समूह द्वारा खरीद लिया गया). आगे था- 'टी बैग के आविष्कारक और पारंपरिक इंग्लिश कप्पा (कप्पा यानी चाय का एक कप) के निर्माता टेटली टी (Tetley Tea) को भारत की टाटा टी (Tata Tea) द्वारा खरीदा जा रहा है. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी टीबैग्स प्रॉड्यूसर टेटली को खरीदने का सौदा 27.1 करोड़ ब्रिटिश पाउंड का है, और यह भारतीय कॉर्पोरेट इतिहास में सबसे बड़ा अधिग्रहण है.'
टाटा समूह (Tata Group) द्वारा टेटली के अधिग्रहण ने इतिहास रच दिया था. इस डील में सबसे ज्यादा भूमिका रही टाटा समूह के अनुभवी आरके कृष्ण कुमार (RK Krishna Kumar) की, जिन्हें केके के नाम से जाना जाता है. केके ही वह शख्स थे, जिन्होंने टाटा की झोली में टेटली को लाकर ही दम लिया.. 1990 के दशक में केके, टाटा टी के प्रबंध निदेशक थे. वह कंपनी के एक छोटी चाय बागान कंपनी से एक दिग्गज ब्रांडेड चाय बनने तक के सफर के गवाह बने. टेटली को खरीदने के रणनीतिक प्रयास की अगुवाई कंपनी के चेयरमैन दरबारी सेठ और केके ने की. आइए जानते हैं इस अधिग्रहण की दिलचस्प कहानी...
1980 का दशक और टाटा टी
1980 के दशक के मध्य में टाटा टी ने चाय के दो प्रमुख बागान पैक्ड ब्रांड- टाटा टी और कानन देवन लॉन्च किए. इन्होंने बाजार में तूफान ला दिया. एक दशक पूरा होते-होते टाटा टी का भारतीय ब्रांडेड चाय बाजार के 15 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा हो चुका था. मार्केट लीडर यूनिलीवर के लिए यह कड़ी चुनौती थी. यह बड़ी और तेज सफलता दर्ज करने के बाद टाटा टी के सामने सवाल खड़ा हुआ कि अब आगे क्या.
फिर केके की कोशिशें शुरू हुईं. विशाल वैश्विक चाय बाजार में संभावनाओं को देखते हुए उन्होंने एक ऐसी भारतीय कंपनी का सपना देखा, जो पूरी दुनिया पर अपनी छाप छोड़े. केके को पता था कि भारत के बाहर के देशों में, एक मजबूत उपभोक्ता ब्रांड का निर्माण शुरू से शुरू करना बहुत चुनौतीपूर्ण होगा. एक अंतरराष्ट्रीय चाय ब्रांड की खरीद, एक झटके में इस चुनौती या जोखिम को खत्म कर सकती थी लेकिन ऐसे अधिग्रहण की संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही थी. क्या ऐसा कभी हो सकेगा.. यह सवाल भी था क्योंकि उस वक्त तक किसी भी भारतीय कंपनी ने किसी वैश्विक ब्रांड का अधिग्रहण नहीं किया था.
यूं बना रास्ता
कहते हैं कि जहां चाह, वहां राह. आखिरकार टाटा टी के लिए एक मौका उस वक्त आया, जब ल्योन्स टेटली ने 1990 में टाटा टी से इंस्टैंट चाय की खरीद शुरू हुई. लियोन्स टेटली, एलाइड ल्योन्स ग्रुप का हिस्सा थी. एलाइड ल्योन्स ग्रुप, खाद्य पदार्थ, चाय, कॉफी और ब्रेवरीज के क्षेत्र में मौजूद था. ग्रुप के पास दुनिया के दूसरे सबसे बड़े चाय ब्रांड टेटली का स्वामित्व था. ल्योन्स टेटली के प्रबंधन को जल्द ही चाय में टाटा टी की विशेषज्ञता पसंद आने लगी. लिहाजा कोच्चि में टी बैग्स के निर्माण के लिए एक जॉइंट वेंचर की स्थापना की गई.
फिर आया 1994 और साथ में मौका
चार साल बाद 1994 में टाटा के पास मौका आया. टेटली ब्रांड के मालिक एलाइड ल्योन्स ने शराब की मल्टीनेशनल कंपनी, एलाइड डोमेक बनाने के लिए पेड्रो डोमेक के साथ मर्जर की घोषणा की. वे अब शराब पर ध्यान केंद्रित करना चाहते थे और नॉन-कोर टी व कॉफी व्यवसाय से बाहर निकलना चाहते थे. जब यह खबर केके को मिली तो उनकी आंखों में चमक आ गई. दुनिया के अग्रणी चाय ब्रांड्स में से एक, टेटली को हासिल करने का एक दुर्लभ अवसर सामने खड़ा था. लेकिन उस वक्त टेटली, टाटा टी से बहुत बड़ा ब्रांड हुआ करता था और इसमें कोई दोराय नहीं थी कि इस तरह के अधिग्रहण के लिए आश्चर्यजनक जरूरी संसाधनों की जरूरत थी.
मुश्किलें तो थीं लेकिन केके का उत्साह कम नहीं था. जब उन्होंने अपना यह प्रस्ताव टाटा के मैनेजमेंट के समक्ष रखा तो उन्हें रतन टाटा, दरबारी सेठ और नोशीर सूनावाला सहित वरिष्ठ निदेशकों का समर्थन मिला. रतन टाटा 1991 में ही टाटा समूह के चेयरमैन बने थे. उन्होंने ग्लोबल बनने के सम्मोहित कर देने वाले लॉजिक को देखा और महसूस किया कि अवसर, दांव खेलने लायक है. बस फिर क्या था टेटली को खरीदने की चाह लिए टाटा टी की एक टीम 1995 की शुरुआत में लंदन पहुंची.
लेकिन नाकामी लगी हाथ..
टीम ने कई डॉक्युमेंट्स पढ़े, एलाइड डोमेक मैनेजमेंट और बैंकरों के साथ लंबी चर्चा हुई क्योंकि वे संभावित रूप से अधिग्रहण के लिए फंड मुहैया करा सकते थे. कई मोर्चों पर सहमति बनी लेकिन फिर भी टाटा टी को अधिग्रहण के लिए जरूरी वित्तीय सहायता हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ा. यह पहली बार था कि कोई भारतीय कंपनी, किसी इतने बड़े वैश्विक ब्रांड को हासिल करने की कोशिश कर रही थी.
टेटली को खरीदने की कोशिश करने वाला टाटा समूह अकेला नहीं था, वेंचर कैपिटलिस्ट्स और एंटरप्रेन्योर लियोन एलन द्वारा समर्थित एक मैनेजमेंट टीम भी टेटली के अधिग्रहण के लिए कोशिश कर रही थी. उन्होंने जरूरी फंडिंग तुरंत इकट्ठा कर ली और टाटा टी से आगे निकल गए. जून 1995 में एलाइड डोमेक ने इस वेंचर कैपिटल टीम को टेटली टी व्यवसाय की बिक्री की घोषणा की. टाटा टी, वैश्विक बनने के सपने को उस वक्त साकार नहीं कर सकी. इस नाकामी से केके और टीम ने जो सबक हासिल किया, वह यह कि अगर हमें इतना बड़ा वैश्विक अधिग्रहण करना हो तो फंडिंग व्यवस्था पर काम करना होगा. टेटली को खरीदने की कोशिश में टाटा टी ने यहीं मात खाई थी, कंपनी वित्तीय प्लान पर निश्चितता हासिल नहीं कर सकी थी.
केके ने नहीं छोड़ी उम्मीद...
असफलता से केके निराश तो थे लेकिन उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी. उन्होंने टेटली पर निगाहें जमाए रखीं. उन्हें लगा कि वेंचर कैपिटलिस्ट फर्म्स, जिन्होंने ब्रांड खरीदा था, किसी भी समय कंपनी में अपनी हिस्सेदारी बेच देंगी. और ऐसा हुआ भी, जल्द ही वह दिन आया और उम्मीद से जल्दी आया. फरवरी 1999 में केके को वैश्विक परामर्श फर्म आर्थर एंडरसन का फोन आया कि टेटली के मालिक इसे बेचना चाहते हैं. क्या टाटा टी की इसमें दिलचस्पी होगी. बस फिर क्या था केके ने तुरंत टाटा समूह मुख्यालय में रतन टाटा और नोशीर सूनावाला से बात की. टेटली को खरीदने के पीछे के लॉजिक की समीक्षा की गई, मकसद था वैश्विक पटल पर विशाल छलांग लगाना... सामने एक वैश्विक चाय ब्रांड को खरीदने का मौका था, जो शायद एकबारगी होता. साथ ही सामने था चाय सोर्सिंग, आपूर्ति श्रृंखला और नए भौगोलिक क्षेत्रों में संभावित तालमेल का एक बेड़ा.
जून 1999 में, बॉम्बे हाउस में लकड़ी के पैनल वाले आलीशान बोर्डरूम में, रतन टाटा की अध्यक्षता में टाटा टी के निदेशक मंडल ने टेटली के अधिग्रहण के लिए आगे बढ़ने को अपनी स्वीकृति दे दी. टाटा टी टीम एक बार फिर लंदन गई, यह सत्यापित करने के लिए टेटली का बिजनेस अच्छी स्थिति में है या नहीं. इस प्रक्रिया को ड्यू डिलिजेंस कहा जाता है. Tata की टीम को पूरी पारदर्शिता के साथ काम करना था और उसने किया. 1995 की असफलता से सबक लेकर इस बीच केके अपना समय और प्रयास, जरूरी फंडिंग का इंतजाम करने में लगा रहे थे. आखिरकार, राबोबैंक के साथ एक लंबी और निर्णायक बैठक में, उन्होंने बैंक के तत्कालीन वाइस चेयरमैन Wouter J. Kolff को आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए मना लिया.
टाटा संस के फाइनेंस डायरेक्टर नोशीर सूनावाला ने लेनदेन की फाइनेंशियल स्ट्रक्चरिंग को विकसित करने में मदद की. तेज-तर्रार बुद्धि वाले नोशीर सूनावाला ने लेवरेज्ड बाइआउट के लिए आवश्यक फ्रेमवर्क तैयार किया और इसने अपेक्षाकृत छोटी कंपनी टाटा टी को इतने बड़े अधिग्रहण में सक्षम बनाया. जनवरी 2000 में व्यापक विश्लेषण और चर्चा के बाद, टेटली के लिए GBP 27.1 करोड़ (लगभग यूएस 43.2 करोड़ डॉलर) की अंतिम बोली सबमिट हुई. यह पूरी तरह से फाइनेंसिंग द्वारा समर्थित थी.
आखिरकार टाटा की हुई Tetley
टेटली के मालिकों ने बोली का मूल्यांकन किया और फरवरी 2000 में इसे स्वीकार कर लिया गया. इस तरह टेटली, टाटा समूह की झोली में आ गई. वाकई में यह एक निर्णायक और ऐतिहासिक क्षण था. टाटा टी ने अपने आकार से कई गुना अधिक बड़े वैश्विक ब्रांड और कारोबार को खरीदकर न केवल अपने लिए बल्कि भारत के लिए भी इतिहास रच दिया था. टेटली का अधिग्रहण करने की पहली कोशिश और इसे आखिरकार अपना बनाने के टाटा के सपने को पूरा होने में दस साल लग गए. लेकिन यह वाकया सिखाता है कि अगर दृढ़ रहा जाए, असफलताओं से सीखा जाए और सपनों को छोड़ा न जाए तो हम में से हर कोई मुश्किल से मुश्किल सपनों के पूरा होने की उम्मीद कर सकता है.
आज Tetley कहां
180 साल पुराना टेटली ब्रांड, पूरी दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा चाय ब्रांड है. इसे 1837 में शुरू किया गया था. ब्रांड की 40 से ज्यादा देशों में मौजूदगी है और इसके प्रमुख बाजार ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका हैं. भारत में टेटली, ग्रीन टी सेगमेंट में दूसरी सबसे बड़ी कंपनी है. आज टेटली की अधिकतर चाय पत्तियां, भारत और श्रीलंका में मौजूद टाटा के बागानों से आती हैं. साल 2000 से टेटली, टाटा कंज्यूमर प्रॉडक्ट्स की पूर्ण स्वामित्व वाली सब्सिडियरी है. कंपनी 60 ब्रांडेड टी बैग्स बेचती है.
(यह अंश टाटा सन्स में ब्रांड कस्टोडियन हरीश भट्ट की 'Tetley and Tata - a defining moment' नाम की लिंक्डइन पोस्ट से लिया गया है.)