इन दृष्टिहीन लड़कियों ने सेल्फ डिफेंस सीखकर हजारों आंखों में उजाला भर दिया
"दास्तान बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ की उन दृष्टिहीन लड़कियों की है, जो सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग लेने के बाद चेस्ट-फेस-स्टमक पंच के साथ हवा में उछलकर ऐसे किक मारती हैं कि छूने वालों के छक्के छूट जाएं। उनमें कई स्पोर्ट्स चैंपियन हैं, तो कई 'तमसो मा, ज्योतिर्गमय' के संकल्प के साथ हजारों आंखों में उजाला भर रही हैं।"
'ज्योतिर्गमय' का अर्थ होता है, अँधेरे से उजाले की ओर। दृष्टिहीन लड़कियां आंखों के साथ ही वक़्त के अंधेरे से भी जूझती रहती हैं। आज के ज़माने में उन्हे तरह-तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में दुनिया भर की दृष्टिहीन लड़कियां सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग लेने लगी हैं। इस समय लगभग हर देश में ऐसी लड़कियों को जूडो कराटे आदि आत्मरक्षात्मक प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं। आवाज और गंध से खतरे को भांप लेने वाली ये लड़कियां अब चेस्ट पंच, फेस पंच, स्टमक पंच और हवा में उछलकर ऐसा किक मारती हैं कि हरकत करने वाले के छक्के छूट जाएं।
गौरतलब है कि पिछले साल 17 दिसंबर को मुंबई की लोकल ट्रेन में सफर के दौरान मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग ले चुकी एक ऐसी ही दृष्टिहीन बालिका ने छेड़खानी करने वाले कंप्यूटर ऑपरेटर विशाल का हाथ ऐंठ कर स्वयं उसे रेलवे पुलिस के हवाले करा दिया था। उस वाकये ने उस बालिका को पूरे देश की दृष्टिहीन लड़कियों का रोल मॉडल बना दिया।
ऐसा ही एक केंद्र है पटना के कुम्हरार मोहल्ले का अंतरज्योति आवासीय बालिका विद्यालय, जिसमें पढ़ रही सीमा कुमारी, आयुषि, वर्षा, राबिया परवीन, सोनम आदि सौ अधिक छात्राओं को प्रशिक्षक रामशिव कृष्णा रोजाना पढ़ाई के साथ जूड़ो-कराटे भी सिखाते हैं। ये ब्लाइंड टीन एजर्स निकेते सूगी के लिए आशिर्वाद एक्शन, चाकू अटैक का एक्शन, गेदान निकेते सूगी के लिए प्रसाद पाने का एक्शन आदि सीख रही हैं। अब वे अपनी दृष्टिहीनता को अपनी कमजोरी मानने से इनकार करती हैं। फिजिकल ट्रेनिंग के अलावा अलग से वर्कशॉप में उन्हे सेंस डेवलपमेंट का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। कोई उन्हे छूना चाहे तो वे पलटकर अटैक, फिर शोर मचाती हैं। कस्तूरबा विद्यालय, बांका (बिहार) में कराटे ट्रेनर निलेश ब्लाइंड लड़कियों को कराटे यानी आहट पर पंच मारने और गुड टच - बैड टच की ट्रेनिंग दे रहे हैं।
इसी तरह रायपुर (छत्तीसगढ़) में दो साल पहले मुश्ताक और हर्षा साहू से सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग ले चुकीं दृष्टिहीन लड़कियां अब प्रदेश के अन्य हिस्सों में ब्लाइंड बच्चों को ट्रेंड कर रही हैं। भोपाल (म.प्र.) में दो दर्जन से अधिक दृष्टिहीन छात्राएं जबलपुर की छात्रा वंदना गौड़, वर्षा बर्मन, होशंगाबाद की सुमन शर्मा, नीता नागेश्वर आदि एक खास पायलट प्रोजेक्ट के तहत सेल्फ डिफेंस सीख रही हैं। मध्य प्रदेश में ही महिलाओं के एक सामाजिक संगठन 'साइटसेवर्स' ने छात्राओं के साथ ही आम दृष्टिहीन महिलाओं को भी सशक्त बनाने का संकल्प ले रखा है। पिपरिया (जबलपुर) के गांव कुर्रे की नेशनल चैंपियन जानकी 'साइटसेवर्स' की मदद से ही सन् 2010 में जूडो की ट्रेनिंग लेने के बाद 2016-17 में आयोजित दृष्टिहीन जूडो नेशनल चैंपियनशिप में सिल्वर और गोल्ड मेडल हासिल कर कीर्तिमान स्थापित कर चुकी हैं। पिछले साल जबलपुर के कलेक्टर महेश चौधरी ने जानकी को टर्की में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय नेत्रहीन जूडो स्पर्धा में भेजने की जिम्मेदारी उठाई थी। उसके बाद जानकी ने ताशकंद के इंटरनेशनल जूडो टूर्नामेंट में कांस्य पदक जीत कर पूरे देश को गौरवान्वित किया।
कहते हैं न कि 'चाहे कितना भी ऊंचा कर दो आसमान को, रोक न सकोगे मेरी उड़ान को', ऐसी पंक्तियों को चरितार्थ करने वाली होशंगाबाद (म.प्र.) के गांव निमसाड़िया की दृष्टिहीन प्रिया भी अपने जज्बे और जुनून से आज जूडो की राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी बन चुकी हैं। लखनऊ की स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतने के साथ ही वह अपने जीवन पर आधारित आठ मिनट की एक शॉर्ट फिल्म 'मेरी उड़ान' में स्वयं दृष्टिहीन अभिनेत्री का किरदार भी निभा चुकी हैं। मेरठ (उ.प्र.) के एक आवासीय ब्लाइंड स्कूल में पढ़ रही आठ वर्षीय रिदा जेहरा को 'गीता' पूरी तरह कंठस्थ है। रिदा को इसके लिए पुरस्कार भी मिल चुका है।
केरल की एक ब्लाइंट युवती हैं टिफ्फनी ब्रार। अपने पिता के भारतीय सेना में होने के कारण बचपन से दृष्टिहीन टिफ्फनी की शिक्षा देश के दार्जिलिंग, दिल्ली, तिरुवनंतपुरम, वेलिंग्टन जैसे कई शहरों में हुई। अठारह साल तक वह अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में दूसरों पर निर्भर रहीं। वेलिंग्टन के कंथारी सेंटर में लीडरशिप ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने पिता का हाथ छोड़ सफेद छड़ी थाम ली। उसके बाद वह कंथारी सेंटर में ही रिसेप्शनिस्ट की नौकरी के साथ उद्योजक का कोर्स भी करने लगीं। बाद में उन्होंने अपना सबसे बड़ा सपना पूरा करने के लिए तिरुवनंतपुरम में 'ज्योतिर्गमय' प्रोजेक्ट शुरू किया, जो दृष्टिहीनों की जिंदगी में उजाला भर रहा है।
करीब तीस-पैतीस लाख की तिब्बती आबादी में दस हजार से ज्यादा लोग नेत्र पीड़ित हैं। उन्हीं में एक है शिकाजे प्रिफेक्चर की लाज़ कांऊटी निवासी 23 वर्षीय दृष्टिहीन किला, जिसके सभी परिजन दृष्टिहीन हैं। एक बहन आंखों से स्वस्थ थी, जो छोड़कर चली गई। जब 1999 में जर्मनी की नेत्रहीन सापरिया ने तिब्बत का प्रथम दृष्टिबाधित स्कूल ल्हासा शहर के चांगसू रोड पर स्थित एक तिब्बती परिसर में खोल तो किला जैसी तमाम ज्योतिहीन बच्चियों की जिंदगी ब्रेल लिपि की रोशनी से भर उठी। किला तो अब उस अपने स्कूल की ही प्रबंधक होने के साथ ही अमरीका, ब्रिटेन और भारत की यात्राएं भी कर चुकी हैं। इसी तरह पिछले साल दिसंबर में सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) के क्वींसलैंड में जब एक दृष्टिहीन लड़की स्टेफ एग्न्यू की शादी में सभी गेस्ट्स आंखों पर पट्टी बांधकर शामिल हुए तो वह वाकया मानवता की एक अनोखी मिसाल बन गया। पूरे कार्यक्रम के दौरान सभी गेस्ट ने अपने मोबाइल तक साइलेंट रखे।
गौरतलब है कि इस समय हमारे देश के खूबसूरत मेघालय में तो दृष्टिहीन संगीतकारों की पहली म्यूजिकल बैंड टीम आंखों पर पट्टी बांधकर पर्वतीय नाइट क्लबों में लोगों का मनोरंजन कर रही है।