इन ग्रामीण महिलाओं ने टर्की पालन को बनाया रोज़गार का साधन, अपने दम पर चला रहीं बिज़नेस
नैशनल बैंक फ़ॉर ऐग्रीकल्चर ऐंड रूरल डिवेलपमेंट (नाबार्ड) द्वारा भारत में माइक्रोफ़ाइनैंस की स्थिति पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, स्व-सहायता समूहों (सेल्फ़ हेल्प ग्रुप्स- एसएचजी) के लिए चलने वाले बैंक लिंकेज प्रोग्राम से जुड़ने वाले स्व-सहायता समूहों की संख्या 2015-16 में 3.44 लाख से बढ़कर 2016-17 में 4.46 लाख तक पहुंच गई।
ये आंकड़े जो सकारात्मक कहानी बयां करते हैं, उनके पीछे की सच्चाई काफ़ी हद तक चिंताजनक है। स्व-सहायता समूहों के ज़रिए स्व-रोज़गार हासिल करना एक टेढ़ी खीर है और विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं के लिए, जिनके मार्केट के बेहतर संबंध नहीं होते।
ऐसे विपरीत परिदृश्य में ममता नाडु और पश्चिम बंगाल के चार स्व-सहायता समूहों की कहानी काफ़ी प्रेरणादायक है। इन चार स्व-सहायता समूहों के नाम हैं, जननी, मा तारा, पुष्पा और मतान्गिनी, जो ग्रामीण महिलाओं को टर्की पालन के ज़रिए रोज़गार मुहैया करा रहे हैं।
गांवों में स्व-सहायता समूह तैयार करना कोई मुश्क़िल काम नहीं था और ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह के समूहों की भरमार भी थी, लेकिन स्व-रोज़गार के मौक़े पैदा करना और उसे बरकरार रखना लगातार एक चुनौती बना हुआ था क्योंकि आमतौर पर ग्रामीण महिलाओं की बाज़ारों तक पहुंच नहीं होती। ज़िला परिषद की बैठक के माध्यम से पता चला कि धीरे-धीरे महिलाएं स्व-सहायता समूहों से दूरी बनाने लगी थीं।
बोनहुगली 2 ग्राम पंचायत के अन्य गांवों की तरह, बालारामपुर में भी रोज़गार का मुख्य साधन खेती ही था। अन्य कामों से जुड़ीं महिलाओं की संख्या न के बराबर थी। ममता नाडु बालारामपुर में एक सामान्य गृहणी की तरह अपना जीवन व्यतीत कर रही थीं। ममता की शादी को 25 साल हो चुके थे।
ममता और बलारामपुर की अन्य महिलाओं ने नोना जयकृष्णापुर की महिलाओं के साथ मिलकर कई महीनों के प्रयास और चर्चा के बाद साल 2014 के अंत तक एक स्व-सहायता समूह की शुरुआत की। इसके अंतर्गत 7 समूह तैयार किए गए और हर समूह के हर एक सदस्य को महीने में 50 रुपए की बचत करने के लिए कहा गया।
उन्होंने सिलाई, ब्यूटीशियन की ट्रेनिंग, सब्ज़ियां उगाना और मछली पालन आदि कामों से शुरुआत की। उन्होंने घरों के पीछे ही पशु पालन को एक अच्छे विकल्प के रूप में नहीं देखा क्योंकि उनके मुताबिक़, इसमें बहुत अधिक प्रशिक्षण की आवश्यकता थी और बाज़ार तक उनकी पहुंच भी अच्छी नहीं थी।
स्व-सहायता समूह के साथ सफ़र शुरू होने के बाद महिलाओं की राह लगातार मुश्क़िल होती चली गई क्योंकि स्थानीय स्तर पर राजनैतिक दखल बहुत अधिक थी। इस वजह से तीन समूह ख़त्म हो गए। पुष्पा स्व-सहायता समूह की सुजाता मोंडल ने VillageSquare.in को बताया कि महिलाएं नियमित तौर पर बैठक करती थीं, लेकिन उनके पास आय के साध नहीं थे और उन्हें रोज़गार की तलाश थी।
उन्होंने हर एक एसएचजी के एक सिलाई मशीन ख़रीदी, लेकिन वे ऑर्डर नहीं जुटा पाईं। नाडु बताती हैं कि बाक़ी कामों में कुछ ख़ास बात नहीं बनी और लगातार उनका हौसला पस्त हो रहा था। महिलाओं ने बैंक अकाउंट खुलवाया था और दो सालों से उसमें पैसा जमा कर रही थीं, लेकिन उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि बैंक सिर्फ़ 25 किमी. के दायरे में आने वाले स्व-सहायता समूहों को ही ऋण दे सकता है।
दक्षिणी 24 परगना ज़िले में समाजिक कल्याण के लिए काम करने वाले ग़ैर-सरकारी संगठन पश्चिम बंगाल ह्मूयन डिवेलपमेंट सोसायटी (डब्ल्यूबीएचडीएस) के सचिव बिधान कर ने इन महिलाओं को नरेंद्रपुर में पास के एक बैंक में अकाउंट खुलवाने में मदद की। बचत के अच्छे रेकॉर्ड की बदौलत स्व-सहायता समूहों को आसानी से लोन मिलना शुरू हो गए।
ममता ने VillageSquare.in को बताया, "लगभग एक साल तक हम समूह के सदस्यों को पैसा देते रहे, लेकिन हमें कोई भी रोज़गार का मौक़ा नहीं मिला। बैंक मैनेजर से लगातार अनुरोध करने के बाद, उन्होंने हमारा संपर्क सस्य श्यामला कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) से कराया, जिसके ज़रिए समूह के सदस्यों ने मुर्गी और टर्की पालन की तकनीकी बारीक़ियां सीखीं।"
दिसंबर, 2017 में केवीके ने सभी समूहों की क्षमता का आकलन किया और सभी पशुओं का टीकाकरण हुआ। टीकाकरण की बदौलत टर्की पक्षियों पर किसी भी तरह के वायरस के हमले की आशंका ख़त्म होगी। सभी महिलाओं ने निर्धारित समय पर टीकाकरण करवाया। मा तारा एसएचजी की प्रतिमा कयाल ने आईडीबीआई बैंक मैनेजर डॉ. शुभकीर्ति साहा के प्रति धन्यवाद व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने हमें आय पैदा करने का तेज़ और प्रभावी रास्ता दिखाया।
इन महिलाओं ने टर्की पक्षियों के भोजन के लिए अज़ोला उगाना शुरू किया। अज़ोना, एक क़िस्म का जलीय पौधा होता है, जिसमें प्रोटीन, विटामिन और मिनरल पर्याप्त मात्रा में मौजूद होते हैं। इसके साथ-साथ महिलाओं को केवीके और पश्चिम बंगाल लाइवस्टॉक डिवेलपमेंट कॉर्पोरेशन (एलडीसी) के बीच एक मार्केट लिंक भी मिल गया।
बैंक से मिलने वाली लोन राशि ज़रूरत के हिसाब से 500 रुपए से 20 हज़ार रुपए तक होती है। इन महिलाओं के बारे में एक और बात क़ाबिल-ए-तारीफ़ है कि इनमें से अधिकतर महिलाएं सिर्फ़ 8वीं कक्षा तक ही पढ़ी हैं, लेकिन इसके बावजूद महिलाओं का हिसाब बेहद पुख़्ता रहता है।
इन समूहों को आईडीबीआई बैंक की ओर से तीन सालों के लिए लोन दिया जाता है और 7 प्रतिशत ब्याज़ लिया जाता है। हालांकि, इन सभी समूहों ने एक साल से भी कम समय में अपने लोन चुकाए हैं।
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