कैसे तय होती है कार्बन की क़ीमत, क्या है कार्बन का बाज़ार?
कार्बन ट्रेडिंग के लिए भारत में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 में संशोधन किया जा चुका है. यह भारत में कार्बन ट्रेडिंग को नियमित करेगा.
कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हमारी जलवायु को अस्थिर और तबाह कर रहा है. कार्बन डाइऑक्साइड, ग्रीनहाउस गैस का एक स्वरूप है, इसकी क्लाइमेट चेंज में अहम भूमिका होती है.
भारत ने साल 2060 तक अक्षय ऊर्जा स्रोतों से 40 फीसदी बिजली उत्पन्न करने का लक्ष्य रखा है. इससे भारत के कार्बन उत्सर्जन 2005 के स्तर के मुकाबले एक तिहाई होने की संभावना है. इसी को लक्ष्य करते हुए लोकसभा में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 में संशोधन के लिए प्रस्तावित विधेयक पास किया जा चुका है. इसके तहत, अगला कदम कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम को तैयार करना है. इस विधेयक में देश में खुद के कार्बन मार्केट के निर्माण का भी प्रावधान रखा गया है और सरकार ने कार्बन क्रेडिट के निर्यात पर भी रोक लगाने की बात की है.
इस संशोधन विधेयक के विभिन्न प्रभावों को समझने के लिए कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम को समझना जरूरी है. क्यूंकि यह एक ट्रेडिंग है इसीलिए इसमें खरीद-फरोख्त भी शामिल होगी.
सबसे पहले कार्बन की कीमत निर्धारण करने की प्रक्रिया समझते हैं. कार्बन-आधारित ईंधन जैसे कोयला, तेल, गैस (जीवाश्म ईंधन) के जलने पर कार्बन एमिशन होता है. अगर यह कहें कि इन इंधन के इस्तेमाल पर 10 टन कार्बन उत्सर्जन होता है, और कार्बन की कीमत 100 रूपये प्रति टन है तो इस जीवाश्म ईंधन के उपयोगकर्ता को 1000 रुपये की अतिरिक्त लागत का भुगतान करना पड़ेगा. इस तरह से कार्बन की कीमत तय करने से जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल खर्चीला हो जाता है, जो अंत में इसके उपयोग को हतोत्साहित करता है.
हालांकि, कार्बन मूल्य तय करने का एक और तरीका है. सरकार कार्बन पर टैक्स भी लगा सकती है. कार्बन-आधारित ईंधन जैसे कोयला, तेल, गैस के जलने पर होने वाले प्रदूषण पर यह कर लगाया जाता है. कार्बन टैक्स या कार्बन कर के उपयोग को कम करने या पूरी तरह से बंद करने के लिए एक मुख्य नीति है.
कार्बन बाज़ार (Carbon Market)
यह पूरी प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि सरकार कैसे संपूर्ण कार्बन उत्सर्जन को एक स्तर तक सीमित कर सकती है.
कार्बन इमीशन ट्रेडिंग स्कीम (ईटीएस) उन संस्थाओं की ओर से उत्सर्जित कुल कार्बन को विनियमित करता है, जो उसके दायरे में आते हैं. जैसे, बिजली, स्टील और सीमेंट आदि क्षेत्र में कार्बन ज्यादा मात्र में उत्सर्जित होता है. ऐसे में, इन तीनों क्षेत्रों को मिलाकर कुल उत्सर्जन पर एक सीमा लगाई जा सकती है. और इन क्षेत्रों की सभी कंपनियों को सामूहिक रूप से अपना कार्बन उत्सर्जन इस सीमा में रखना होगा. ईटीएस में शामिल कंपनियों को कार्बन उत्सर्जन के परमिट को खरी खरीदना होता है. साथ में यह भी सुनिश्चित करना होता है कि उनका कार्बन उत्सर्जन उनके परमिट के बराबर ही रहे.
ईटीएस में शामिल कंपनियों को अपने परमिट की आपस में खरीदने-बेचने की छूट होगी. कार्बन की उचित कीमत खोजने की प्रक्रिया में दो प्रमुख कारक-ईटीएस द्वारा विनियमित कंपनियां और वित्तीय संस्थान शामिल होते हैं. ये एकसाथ उचित कीमत की खोज को सुनिश्चित करते हैं.
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन बाज़ार के अंतर्गत विश्व के विभिन्न देश या कम्पनियां उनके द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी के चलते प्राप्त किये गए एक प्रमाण-पत्र, जिसे सर्टिफाइड उत्सर्जन कटौती या कार्बन क्रेडिट (Carbon Credit) कहा जाता है, का क्रय-विक्रय करती हैं. जिन कंपनियों ने ग्रीनहाउस गैसों में कटौती के माध्यम से कार्बन ऑफसेट के लक्ष्यों की प्राप्ति की है उनके द्वारा अतिरिक्त कटौती करने पर उन्हें कार्बन क्रेडिट मिलेगा. यूरोपीय संघ ने पहले से ही एक बार्डर कार्बन एडजस्टमेंट टैक्स (कार्बन मूल्य का ही एक अन्य रूप) लगाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है.
भारत को 2030 से पहले कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए और 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को पूरी तरह से समाप्त करने के लक्ष्य को यदि हासिल करना है तो, ईटीएस के माध्यम से कार्बन की कीमत का निर्धारण ही भारत के लघु, मध्यम और दीर्घकालिक नेट-जीरो लक्ष्यों को पाने की मूल रणनीति होगी.