जिनकी पंक्तियाँ संसद में गूँजती हैं, आज उन्हीं दुष्यंत कुमार की पुण्यतिथि है, पढ़िये दुष्यंत कुमार की लिखीं कुछ खास पंक्तियाँ
आज ये दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए,
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
पंक्तियाँ हैं कवि दुष्यंत कुमार की, जिन्हे आज कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने अपने ट्वीटर हैंडल से शेयर किया है। प्रियंका ने इन पंक्तियों के माध्यम से केंद्र में मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार पर निशाना साधा है।
आज दुष्यंत कुमार की पुण्य तिथि है। महज 42 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले गजलकार दुष्यंत कुमार सरल भाषा में अपनी गज़लों और उर्दू नज़मों के लिए जाने गए। उत्तर प्रदेश के बिजनौर में जन्मे दुष्यंत कुमार का पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था, अपने शुरुआती दिनों में वे दुष्यंत कुमार परदेशी नाम से लिखते थे।
दुष्यंत कुमार की कविताएं आज भी युवाओं के लिए उन्हे विरोध को बाहर निकालने का जरिया बनतीं हैं। दुष्यंत कुमार ने कविता के साथ ही गीत, गजल, नाटक और कथा जैसी विधाओं में भी उल्लेखनीय कार्य किया है, हालांकि दुष्यंत कुमार को उनकी बेहद सरल उर्दू में लिखी हुईं गज़लों के लिए खासा पसंद किया गया।
दुष्यंत कुमार की लिखी पंक्तियाँ कई बार संसद में सुनाई देती रहती हैं। दुष्यंत कुमार ने आपातकाल के दौर में भी बेखौफ होकर अपनी कलम को सत्ता के विरोध में चलाया था। दुष्यंत का गजल संग्रह ‘साए में धूप’ आज भी गजल प्रेमियों के दिल में खास जगह बनाकर रखता है।
आइये हम आपको दुष्यंत कुमार की कुछ पंक्तियों से रूबरू कराते हैं, जिन्हे संसद में सुनने के साथ ही आज व्हाट्सऐप के दौर में भी जमकर शेयर किया जाता है।
"कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअत से उछालो यारो"
"कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए"
"एक आदत सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती"
"ज़िंदगी जब अज़ाब होती है
आशिक़ी कामयाब होती है"
"तुम्हारे पावँ के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं"
हो गई है पीर पर्वत-सी
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए
कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिए।
न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।
खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए।
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
आज सड़कों पर लिखे हैं
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।
अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हकीकत देख लेकिन खौफ के मारे न देख।
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।
ये धुंधलका है नजर का तू महज मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।
राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियाँ ही देख अंगारे न देख।