आज से 66 साल पहले डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपना लिया था बौद्ध धर्म, जानिए क्या थी वजह
संविधान निर्माता और दलितों के अधिकार के लिए आजीवन काम करने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर ने नागपुर में 14 अक्टूबर, 1956 को अपने 3.65 लाख अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया था.
दलित इतिहास में 14 अक्टूबर का दिन बहुत मायने रखता है. 1956 में इस दिन डॉक्टर बी. आर. आंबेडकर ने अपने 365,000 दलित अनुयायियों के साथ हिंदुत्व छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने का फैसला किया.
उन्होंने नागपुर में एक पारंपरिक संस्कार के साथ बौद्ध धर्म को अपनाया. आंबेडकर को भारत में बौद्ध धर्म के अग्रदूत की तरह भी देखा जाता है. आंबेडकर के धर्म परिवर्तन के फैसले ने देश में दलितों को एक नई गति और एक आवाज दी, जो अब तक हिंदू धर्म पर हावी वर्ण प्रणाली के आगे विवश थी.
डॉक्टर आंबेडकर जिन्हें बाबासाहेब के नाम भी जाना जाता है, उनका जन्म 14 अप्रैल, 1891 को हुआ था. आंबेडकर एक कम आमदनी वाले दलित परिवार से थे, जिसका सामना हर दिन भेदभाव से होता था. उन्होंने मुंबई में रहकर कानून की पढ़ाई शुरू कर दी और जल्द ही वो दलित के अधिकारों के लिए काम करने लगे. बाद में उन्होंने दलितों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास के लिए काम किया.
जब उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने का फैसला किया तब उनपर कई सवाल भी उठे कि उन्होंने इस्लाम या ईसाई धर्म या फिर सिख धर्म क्यों नहीं चुना. उनके इस फैसले को लेकर कई राय हैं. मगर अंबेडकर "बुद्धा एंड फ्यूचर ऑफ हिज रिलीजन" नाम के निबंध में इन सवालों के जवाब देते हुए लिखते हैं कि जो बात बुद्ध को दूसरे से अलग करती है, वह है उनका आत्म-त्याग.
उन्होंने चारों धर्मों की तुलना करते हुए लिखा है कि पूरे बाइबल में जीजस भगवान के बेटे हैं और अगर कोई उनका अनुसरण नहीं करता है तो उसे भगवान के साम्राज्य यानी स्वर्ग में जगह नहीं मिलती. मोहम्मद भी जीजस की तरह भगवान के मैसेंजर हैं, भगवान के आखिरी मैसेंजर.
कृष्ण भगवान का बेटा या मैसेंजर नहीं हैं वे ईश्वर के पूर्णावतार हैं. मगर बुद्ध कभी स्वयं को ऐसी कोई संज्ञा या उपाधि नहीं देते. वो एक आम इंसान के बेटे की तरह पैदा होकर और एक आम आदमी बनकर खुश और संतुष्ट थे. उन्होंने अपना ज्ञान भी एक आम आदमी की तरह ही दिया. न किसी भी अलौकिक शक्ति से उनकी उत्पत्ति की बात कही जाती है और ना ही उनके दैवीय शक्ति होने का दावा. उन्होंने मार्गदाता और मोक्षदाता दोनों को हमेशा अलग रखा. बुद्ध खुद को मार्गदाता मानते थे, मोक्षदाता नहीं.
आंबेडकर आगे लिखते हैं कि अक्सर धर्मों में ईश्वर या पवित्र पुस्तक के शब्दों को अंतिम सत्य माना जाता है. जबकि महापारिनिब्बना सुत्त में लिखा है कि बुद्ध के अनुयायियों को उनकी सिखाई बातों को कभी भी आंख मूंदकर इसलिए नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि ये बातें उन्होंने कही हैं.
उनकी सारी सीखें कारण या अनुभव पर आधारित हैं, जिसे सुनने वाले अनुयानी अपने अनुभव के हिसाब से बदल सकते हैं. अगर किसी अनुयायी को लगे कि किसी खास परिस्थिति में उनकी दी हुई सीख लागू नहीं हो रही है तो वो बड़े आराम से उसे छोड़ सकता था और बुद्ध का इसमें कोई ऐतराज नहीं था.
बुद्ध चाहते थे कि उनकी दी हुई सीख हर समय में लोगों के काम आए. इसलिए उन्होंने अनुयायियों को ये स्वतंत्रता दी कि वो समय और स्थिति के हिसाब से उसमें फेरबदल कर सकें. यह स्वतंत्रता ही सबसे बड़ा कारण थी डॉक्टर अंबेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने की.
Edited by Upasana