द्रौपदी मुर्मू के रूप में भारतीय लोकतंत्र को मिली उसकी पहली आदिवासी राष्ट्रपति, मुबारक हो!
उड़ीसा के एक संथाल गाँव से आने वाली द्रौपदी मुर्मू का जीवन उनके असाधारण संघर्ध, अदम्य जिजीविषा और प्रेरक साहस की एक बड़ी मिसाल है. उन्हें झारखंड के राज्यपाल के रूप में आदिवासी अधिकारों के प्रश्न पर किए गये साहसिक हस्तक्षेप के लिए भी जाना जाता है.
द्रौपदी मुर्मू भारत की पहली आदिवासी राष्ट्रपति बन चुकी हैं. उन्हें झारखंड की पहली महिला राज्यपाल होने का गौरव भी हासिल है.
द्रौपदी मुर्मू का जन्म साल 1958 में उड़ीसा राज्य के मयूरभंज इलाके में 20 जून को हुआ था. वे भारत के उस जिले से आती हैं जो हर मामले में कम विकासशील जगहों में आता है और उसमें उस आदिवासी समुदाय से आती हैं जिन तक विकास और भी कम पहुँचा है. उनके पिता और भाई लेकिन सक्रिय राजनीति में थे और दोनों ही अपने इलाक़े के सरपंच चुने गए थे.
21 साल की उम्र में भुवनेश्वर के रमा देवी महिला विश्विद्यालय से बी.ए. करने के बाद उन्होंने उसी साल सिंचाई विभाग में जूनियर असिस्टेंट के रूप में अपनी पहली नौकरी की. उसके पंद्रह साल बाद, 1994 में वे अरविंदो इंटीग्रल एजुकेशन रिसर्च सेंटर, रायरंगपर में शिक्षक नियुक्त हुईं.
रायरंगपुर में ही उनके राजनैतिक जीवन की शुरुआत हुई. 1997 में वे पार्षद चुनी गईं. पार्षद बनने पर उन्होंने कहा था कि बतौर टीचर वह इस बात का हमेशा ध्यान रखती थीं कि उनके बच्चों को उस विषय में किसी दूसरे से लेने की जरुरत न पड़े और ऐसा ही विचार उनका अपनी राजनीति को लेकर भी है. तीन साल के भीतर वे रायरंगपुर पंचायत की प्रधान बनीं. और उसी साल 2000 में पहली बार विधायक बनी और मंत्री भी. भाजपा-जनता दल सरकार में उन्होंने वित्त एवं परिवहन तथा मत्स्य एवं पशुपलान मंत्रालयों की ज़िम्मेवारी सम्भाली. विधायक के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान उन्हें उड़ीसा विधानसभा का सर्वश्रेष्ठ विधायक चुना गया.
2006 में वे भाजपा के जनजाति मोर्चे की प्रमुख बनीं और तब से उनकी उपस्थिति को भाजपा में आदिवासी समाज के प्रतिनिधित्व के रूप में देखा जाने लगा.
इसके समांतर उनका पारिवारिक जीवन अपार दुःख से भरा रहा. उनके पति और संतानों की असमय मृत्यु हुई. उन्होंने अपने निजी दुखों से ऊपर उठते हुए स्वयं को जिस तरह आदिवासी समाज की बेहतरी के लिए समर्पित किया वह बिरले ही कर पाते हैं.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार स्थापित होने के बाद आदिवासी मुद्दों पर उनके योगदान को देखते हुए उन्हें 2015 में एक आदिवासी बहुल राज्य झारखण्ड की राज्यपाल नियुक्त किया गया.
जब राज्यपाल मुर्मू ने मुख्यमंत्री को लौटा दिये थे CNT, SPT क़ानूनों में संशोधन
मुर्मू आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के लिए हर स्तर पर संघर्ष और हस्तक्षेप किया है. जब वे झारखंड की राज्यपाल थीं तो उन्होंने CNT (छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908) और SPT (संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम) में रघुवरदास सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को लौटा दिया था. संशोधनों को वापस भेजते हुए उन्होंने इस मुद्दे पर राज्य भर में हुए प्रोटेस्ट पिटिशन भी साथ में संलग्न कर दिए थे. CNT और SPT अंग्रेजों द्वारा बनाए गये क़ानून थे जिनमें संशोधन कर रघुवर दास सरकार आदिवासी ज़मीनों का अधिग्रहण करना चाहती थीं. द्रौपदी मुर्मू के दृढ़ हस्तक्षेप के कारण सरकार को वे संशोधन वापस लेने पड़े थे.
उनके राष्ट्रपति बनने पर लोगों में उम्नीद है भारत में आदिवासी अधिकारों का संघर्ष एक नये मुक़ाम तक पहुँचेगा और वे आम और साधारण लोगों के हित में फैसले लेंगी.