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उत्तर प्रदेश में अपराध खत्म करने को बना कानून यूपीकोका तीर है या तुक्का?

संगठित जुर्मों के खिलाफ बना यह कानून पुलिस को अप्रत्याशित अधिकार और शक्ति प्रदान करता है। किसी अन्य जुर्म के लिए पुलिस आरोपी को 15 दिनों की रिमांड पर ही हवालात में रख सकती है लेकिन यूपीकोका के सेक्शन 28 (3अ) के अंतर्गत बिना जुर्म साबित हुए भी पुलिस किसी आरोपी को 60 दिनों तक हवालात में रख सकती है। 

यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ

यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ


इन सबके बीच एक सवाल उठता है कि जब व्यक्ति 180 दिन पुलिस की हिरासत में रहेगा तो वह कैसे खुद को निर्दोष साबित कर पायेगा ? कैसे वह अपने निरपराध होने के साक्ष्य एकत्रित कर पायेगा। क्योंकि वह अपराधी नहीं है, इस कानून के अनुसार उसे ही साबित करना होगा।

उत्तर प्रदेश में संगठित अपराध की कमर तोड़ने के उद्देश्य को पूर्ण करने के लिये योगी सरकार का बहुप्रतीक्षित ब्रह्मास्त्र यूपीकोका वजूद में आ चुका है। विपक्ष के विरोध और विधान परिषद की परिवर्तित परिस्थितियों के मध्य मकोका की तर्ज पर निर्मित यूपीकोका के वजूद की स्वीकार्यता पर दोनों सदनों ने मोहर लगायी है। इस कानून का इस्तेमाल भू-माफिया, खदान-माफिया, किडनैपिंग और इसी तरह के संगठित अपराधों के खिलाफ किया जाएगा।

किन्तु विपक्ष यूपीकोका को अघोषित तानाशाही की संज्ञा प्रदान कर, मुस्लिमों, दलितों और राजनेताओं के विरुद्ध इस्तेमाल किये जाने वाले राजनीतिक हथियार के रूप में परिभाषित कर रहा है। नेता प्रतिपक्ष राम गोविन्द चौधरी सदन में चीख कर कहते हैं कि उत्तर प्रदेश का आज काला दिवस है, सरकार ने यूपीकोका को पास करा लिया है। यह आम जनता, किसानों, गरीबों और पत्रकारों के लिए हानिकारक है। यह तो था पक्ष और विपक्ष की सियासी चौसर पर चल रहा ज़बानी जमा खर्च का स्वांग, जो प्रत्येक नयी नीति, नई योजना के लागू होने के समय सदनों में अत्यंत भावुकता के साथ खेला जाता है।

लेकिन क्या उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था के हालात इतने खराब हो चुके हैं कि मकोका जैसे सख्त कानून की तर्ज पर किसी कानून की आवश्यकता अपरिहार्य प्रतीत होने लगी हो ? क्या मकोका लगने के बाद महाराष्ट्र अपराध मुक्त हो पाया? मकोका का अनुभव कहता है कि अनेक बेगुनाह पीडि़त हुये। दर्जनों बार पुलिस पर पैसा लेकर प्रतिद्वंदी गैंग के लड़कों को खत्म करने लिए प्रायोजित 'एनकाउंटर करने के आरोप लगे । लेकिन सत्य यह भी है कि मकोका के कारण सड़कों पर होने वाली गैंगवार अब बीते वक्त की बात हो चली है। वसूली की घटनाओं का सुर्खियों में आना भी कम हो गया है । हत्यायों के सिलसिलेवार दौर भी अब नहीं चल रहे हैं । किंतु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि मकोका, सैकड़ों "आरोपियों" के लिए "अपराधियों" वाले ट्रीटमेंट का कारण बना।

लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री के अनुसार यूपीकोका समाज के अंतिम व्यक्ति की सुरक्षा की गारंटी देने वाला है। वह कहते हैं कि यूपीकोका का कहीं दुरुपयोग नहीं होगा और इसमें पूरी व्यवस्था दी गई है। मुकदमा पंजीकरण से लेकर आरोप पत्र दाखिल करने के लिए उच्चाधिकारियों के अनुमोदन की व्यवस्था तक सभी कुछ पारदर्शी एवं चरणबद्ध है । यह संविधान सम्मत है और जनहित में लाया गया है।

उत्तर प्रदेश के डीजीपी रहे प्रकाश सिंह कहते हैं, "जब अपराधी तेज़ गति से चल रहा है तो क़ानून को भी अपना दायरा बढ़ाना होगा। मौजूदा क़ानून कम नहीं हैं लेकिन कुछ-न-कुछ उनकी कमज़ोरियां ज़रूर हैं जिनकी वजह से अपराधियों के ख़िलाफ़ इतनी कठोर कार्रवाई नहीं हो पाती और अपराधी इसी का फ़ायदा उठाते हैं। ऐसे कानून की जरूरत थी जो संगठित अपराध पर कठोरता और आम जनता को सुरक्षा दे सके।"

जानिये क्या है यूपीकोका?

प्रदेश में संगठित अपराधों को रोकने के उद्देश्य से एक ऐसे कानून की आवश्यता मौजूदा सरकार महसूस कर रही थी जिसमे संगठित अपराध की प्रकृति और प्रवृति को समग्रता में अध्ययन कर, कारण और निवारण की चरणबद्ध रूपरेखा और दिशा निर्देश प्रदान किये गए हों। यूपीकोका उसी आवश्यकता का विधिक स्वरुप है । यूपीकोका विधेयक के उद्देश्य और कारण में कहा गया है कि मौजूदा कानूनी ढांचा संगठित अपराध के खतरे के निवारण एवं नियंत्रण में अपर्याप्त पाया गया है।

इसलिए संगठित अपराध के खतरे को नियंत्रित करने के लिए संपत्ति की कुर्की, रिमांड की प्रक्रिया, अपराध नियंत्रण प्रक्रिया, त्वरित विचार एवं न्याय के मकसद से विशेष न्यायालयों के गठन और विशेष अभियोजकों की नियुक्ति तथा संगठित अपराध के खतरे को नियंत्रित करने की अनुसंधान संबंधी प्रक्रियाओं को कड़े एवं निवारक प्रावधानों के साथ विशेष कानून अधिनियमित करने का निश्चय किया गया है। विधेयक में संगठित अपराध को विस्तार से परिभाषित किया गया है। इस कानून का इस्तेमाल भू-माफिया, खदान-माफिया, किडनैपिंग और इसी तरह के संगठित अपराधों के खिलाफ किया जाएगा।

संगठित जुर्मों के खिलाफ बना यह कानून पुलिस को अप्रत्याशित अधिकार और शक्ति प्रदान करता है। किसी अन्य जुर्म के लिए पुलिस आरोपी को 15 दिनों की रिमांड पर ही हवालात में रख सकती है लेकिन यूपीकोका के सेक्शन 28 (3अ) के अंतर्गत बिना जुर्म साबित हुए भी पुलिस किसी आरोपी को 60 दिनों तक हवालात में रख सकती है। आईपीसी की धारा के अंतर्गत किसी को गिरफ्तार करने के 60 से 90 दिनों के अन्दर आरोप पत्र दाखिल करना ही पड़ता है, वहीं मकोका में यह अवधि 180 दिनों की है इसी तर्ज पर यूपीकोका में भी 180 दिनों तक बिना चार्जशीट दाखिल किए आरोपी को जेल में रखा जा सकेगा।

अब तक पुलिस पहले अपराधी को पकड़कर कोर्ट में पेश करती थी, फिर सबूत जुटाती थी लेकिन यूपीकोका के तहत पुलिस पहले अपराधियों के खिलाफ सबूत जुटाएगी और फिर उसी के आधार पर उनकी गिरफ्तारी होगी यानी अब अपराधी को कोर्ट में अपनी बेगुनाही साबित करनी होगी। यहां एक सवाल उठता है कि जब व्यक्ति 180 दिन पुलिस की हिरासत में रहेगा तो वह कैसे खुद को निर्दोष साबित कर पायेगा ? कैसे वह अपने निरपराध होने के साक्ष्य एकत्रित कर पायेगा। क्योंकि वह अपराधी नहीं है, इस कानून के अनुसार उसे ही साबित करना होगा।

इस कानून के तहत उन लोगों पर भी नजर रखी जाएगी जो हिरासत में कैद व्यक्ति की मदद को सामने आएंगे, ऐसे में पुलिस की नजरों में आने से होने वाले "साइड इफेक्ट" के भय के चलते आम शहरी–नागरिक गिरफ्तार व्यक्ति की मदद करने से बचेगा । फिर कैसे हिरासत में कैद इंसान खुद को बेगुनाह साबित कर सकेगा ? मान लीजिये आरोपी, भाग्य से अदालत में अपराधी साबित नहीं हो पाता है, और कोर्ट उसे बा-इज्जत बरी कर देती है, तब तक तो आरोपी की ज़िन्दगी के 2-3 साल गुजर चुकें होंगे, शायद और भी ज्यादा, तब इन्साफ का क्या मतलब रह जायेगा?

आंसुओं से भीगी ऐसी अनेक दास्तानें मकोका कानून की फाइलों में सुबकती हुई मिल जाएंगी। तो क्या यूपीकोका भी नाइंसाफी के हंटर से लगे जख्म की शिनाख्त का अगला पड़ाव होगा ? अनेक कानून विदों और समाजशास्त्रियों ने सरकार के मकोका की तर्ज पर यूपीकोका को लाने के निर्णय पर सवाल उठाते हुये पूछा है कि अपराध नियंत्रण के लिये नये कानून की आवश्कता है या पुलिस को अपराध नियंत्रण के नये गुर सीखने की। कानून कमजोर है तो क्या व्यवस्था सक्षम, समर्थ और साधन सम्पन्न है? यदि है तो ठीक है किंतु यदि नहीं तो फिर नये कानून से क्या हासिल होगा ? आश्चर्य है कि अभियुक्त अथवा संदिग्ध व्यक्ति का साक्षात्कार लेने वाले अर्थात पत्रकार को भी यूपीकोका के दायरे में लाने का क्या औचित्य है! तो क्या प्रस्तावित वर्तमान कानून के जरिये सरकार अपने सापेक्ष पत्रकारिता को गति कराना चाहती है!

मकोका का अनुभव इस तथ्य की तस्दीक करता है कि विशेष कानून की शक्ति से लैस पुलिस के व्यवहार में निर्द्वंदता बढ़ जाती है। दीगर है कि उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्यशैली सदैव से ही आलोचना का केंद्र रही है । प्रमाणिकता और पारदर्शिता के धरातल पर अधिकांशतः संदेह के घेरे में रहने वाली पुलिस राजनीतिक निष्ठा दिखाने और सियासी रहनुमाई हासिल करने की कोशिश में कौन सी हद पार न कर जाये, इसका आंकलन असम्भव है।

किन्तु यहां पर यह भी समझना भी आवश्यक है कि सूबे में जो भी कानून का इकबाल कायम है उसका कारण भी वर्तमान पुलिस ही है। विदित हो कि विगत एक दशक में अपराधियों द्वारा पुलिस बल पर हमले बढ़े हैं। थाना तक सुरक्षित नहीं रह गया है । योगी सरकार में ही घटित सहारनपुर दंगे के दवानल की आग में जला कानून का इकबाल अभी तक चिता की लकड़ी की मानिंद सुलग रहा है। दरअसल संगठित अपराध से पैदा होने वाला अवैध और काला धन अकूत मात्रा में होता है और उसकी ताकत भी अपरिमित होती है।

यह हम सबने माफिया गिरोहों, दंगों और खनन तथा शराब जैसे अनेक कारोबारों की गतिविधियों में यह महसूस भी किया है। फिर नेपाल की सीमा खुली हुई है, अनेक राज्यों की सरहदें यूपी को सटी हुई हैं। नेपाल तस्करी और भारत विरोधी गतिविधियों का केंद्र बना हुआ है। ऐसे हालातों में यूपीकोका का वजूद में आना अत्यंत समीचीन प्रतीत होता है। संगठित अपराध की अपरिमित शक्ति को शक्तिहीन करने के लिए यूपीकोका रामबाण साबित हो सकता है।

पुलिस अनियंत्रित न हो, कार्यशैली विधि सम्मत हो, आदि तथ्य सुनिश्चित करने के लिए व्यवस्था में विभिन्न विभाग क्रियाशील हैं लेकिन अपराधी बेलगाम न हों, परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ का ध्येय वाक्य चरितार्थ हो सके, की जिम्मेदारी तो पुलिस पर ही है। लिहाजा पुलिस के पास संगठित अपराधियों से निपटने के लिए कुछ विशेष शक्तियां होनी ही चाहियें। अन्य प्रान्तों ने भी इसीलिए अपने सूबे में कंट्रोल ऑफ आर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट बना रखा है। जहां तक यूपीकोका की बात है तो पुलिस को बेलगाम होने से रोकने और निरपराध पीड़ित न हो, सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान किया गया है कि यूपीकोका उन्हीं पर लगेगा, जिसका पहले से आपराधिक इतिहास रहा हो। पिछले पांच वर्ष में एक से अधिक बार संगठित अपराध के मामले में चार्जशीट दाखिल की गई हो और कोर्ट ने दोषी पाया हो।

इसका दुरुपयोग न हो सके इसलिए हर जिले में एक जिला संगठित अपराध नियंत्रण प्राधिकरण होगा। यूपीकोका लगाने के लिए यह अपनी संस्तुति मंडलायुक्त और आईजी या डीआईजी की दो सदस्यीय समिति के पास भेजेगा। जिला प्राधिकरण से आई संस्तुति पर मंडलायुक्त व रेंज के आईजी अथवा डीआईजी की कमेटी को एक सप्ताह में निर्णय लेना होगा। उनके अनुमोदन के बाद ही यूपीकोकाके तहत कोई भी मुकदमा दर्ज किया जाएगा। विवेचना के बाद आरोप पत्र जोन के एडीजी या आईजी की अनुमति के बाद ही दाखिल की जा सकेगी। यही नहीं यूपी कोका के तहत उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में अपीलीय प्राधिकरण के गठन का भी प्रावधान किया गया है। अगर किसी को गलत फंसाया गया तो वह कार्रवाई के खिलाफ प्राधिकरण में अपील कर सकेगा। अधिनियम में व्यवस्था की गई है कि किसी भी संगठित अपराधी को सरकारी सुरक्षा नहीं दी जा सकेगी।

यहाँ एक बात और काबिलेगौर है जब सूबे की विधानसभा में ही पचास फ़ीसदी से अधिक माननीय दागी हों, वहां यूपीकोका जैसे कानून का बेदाग़ रह पाना बड़ी चुनौती होगी । यूपीकोका, कानून और व्यवस्था की राह का तीर है या एंटी रोमियो स्क्वाड की भांति तुक्का, यह तो काल के गर्भ में छिपा है। किन्तु यूपीकोका के समर्थन और विरोध में अनेक दलील और दस्तावेज पेश किये जा रहे हैं। कोई इसे प्रजातंत्र की हत्या का मसौदा तो कोई कानून के इकबाल की पुनर्स्थापना का ब्लू प्रिंट बता रहा है।

लेकिन जिस तरह से यूपी के अपराधियों में खलबली मची है, वह एक भय मुक्त समाज के निर्माण हेतु सुखद संकेत है। अब यह तो वक्त ही बताएगा कि संगठित अपराध पर लगाम कसने की मंशा से बनाया गया कानून यूपी पुलिस के इतिहास में नजीर बनता है या व्यवस्था को नष्ट करता है लेकिन इतना तो तय है कि जिन अपराधियों को देख कर कानून के मुहाफिज सलाम बजाते थे, वह माफिया डॉन अब कानून और मानवाधिकार की बात करने लगे हैं।

एक नज़र में यूपीकोका:

नए यूपीकोका यानि उत्तर प्रदेश कंट्रोल ऑफ आर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट के तहत निम्नलिखित प्रावधान हैं-

- किसी भी तरह का संगठित अपराध करना वाला व्यक्ति इस कानून की जद में आएगा।

- इस कानून के तहत गिरफ्तार व्यक्ति को 06 महीने तक जमानत नहीं मिलेगी।

- इस कानून के तहत केस तभी दर्ज होगा, जब आरोपी कम से कम दो संगठित अपराधों में शामिल रहा हो। उसके खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई हो।

- यूपीकोका में गिरफ्तार अपराधी के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने के लिये 180 दिन का समय मिलेगा। अभी तक के कानूनों में 60 से 90 दिन ही मिलते हैं।

- यूपीकोका के तहत पुलिस आरोपी की रिमांड 30 दिन के लिए ले सकती है, जबकि बाकी कानूनों में 15 दिन की रिमांड ही मिलती है।

- इस कानून के तहत कम से कम अपराधी को पांच साल की सजा मिल सकती है। अधिकतम फांसी की सजा का प्रावधान होगा।

इतने सख्त कानून का दुरुपयोग ना हो, ये तय करने के लिए यूपीकोका के मामलों में केस दर्ज करने और जांच करने के लिए भी अलग नियम बनाये गए हैं।

- राज्य स्तर पर ऐसे मामलों की मॉनिटरिंग गृह सचिव करेंगे।

- मंडल के स्तर पर आईजी रैंक के अधिकारी की संस्तुति के बाद ही केस दर्ज किया जाएगा।

- जिला स्तर पर यदि कोई संगठित अपराध करने वाला है, तो उसकी रिपोर्ट कमिश्नर, डीएम देंगे।

मकोका की तर्ज पर और भी हैं कानून

ककोका: कर्नाटक कंट्रोल ऑफ आर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट (KCOCA):

महाराष्ट्र की तर्ज पर अन्य कुछ राज्यों ने भी संगठित जुर्मों के खिलाफ कानून बनाए. कर्नाटक में यह कानून ककोका के नाम से साल 2000 में लागू किया गया. इसकी सभी धाराएं मकोका से मिलती-जुलती ही थीं. 2009 में इसमें कुछ बदलाव किए गए जिनके अंतर्गत टेरेरिस्ट हरकतों से जुड़े लोगों को उम्र कैद के साथ ही 10 लाख का जुर्माना देना पड़ेगा. वहीं उन्होंने ककोका के दायरे को बढ़ाते हुए ड्रग्स बेचने वालों, जुआरियों, गुंडों और कबूतरबाजी के आरोपियों को भी इसमें शामिल किया. साथ ही ऑडियो और वीडियो पायरेसी करने वालों पर भी ककोका लगाने का प्रावधान किया.

एपीकोका: अरुणाचल प्रदेश कंट्रोल ऑफ आर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट (APCOCA):2002 में अरुणाचल प्रदेश सरकार ने मुख्यमंत्री मुकुट मिथि की अगुवाई में मकोका से मिलता-जुलता कानून अपने प्रदेश में भी पारित किया।

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