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दलाई लामा फेलोशिप 2022 के लिए चुने गए तीन भारतीय फेलो

दलाई लामा फेलोशिप 2022 के लिए चुने गए तीन भारतीय फेलो

Monday May 30, 2022 , 8 min Read

इस साल के दलाई लामा फेलोज की सूची में तीन भारतीय नाम हैं- विवेक कुमारश्रुतिका सिल्सवाल और राधिका गुप्ता. यह फेलोशिप एक साल की होती है, जिसमें दुनिया भर से यंग सोशल इनोवेटर्स फेलोज के रूप में चुने जाते हैं. ये फेलोज अपने काम के जरिए दुनिया की विभिन्न समस्याओं; मसलन, शिक्षा, पर्यावरण, ग़रीबी, कुपोषण इत्यादि को दूर करने की अपने स्तर पर कोशिश कर रहे हैं.

इस फेलोशिप का मकसद यह है कि इसकी मदद से वह अपने काम के इम्पैक्ट को बढ़ा सकें. लीडरशिप प्रोग्राम का नाम दिया गया है. ज़ाहिर है दलाई लामा के सानिध्य में लीडरशिप के गुणों की परिभाषा ही बदल जाती है. इसीलिए यहाँ चुनकर आये हुए लीडर्स में सामर्थ्य के साथ करुणा, संवेदनशीलता और आत्म-जागरूकता विकसित करना भी एक प्रमुख उद्देश्य है.

कौन हैं ये तीन फेलो?

विवेक कुमार

बिहार में जन्मे विवेक ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद दो साल गाँधी फ़ेलोशिप के तहत काम किया. उसके बाद TISS (टाटा इंस्‍टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज) से ‘Education’ में मास्टर्स किया. फिर कुछ साल हैदराबाद में रहकर भी काम किया. यह चार अलग-अलग जगह, अलग-अलग फील्ड में काम करना सिर्फ घटनाएं नहीं थीं बल्कि विवेक के मन की हालत भी थी. जिनकी रुचि कहीं और थी और उसी की तलाश में वे अलग-अलग तरह के काम कर रहे थे.


YourStory हिंदी से बातचीत करते हुए विवेक कहते हैं, “ अपनी ज़िन्दगी में क्या करना है, ऐसी ज़रूरी बातों पर भी निर्णय न ले पाना किसी व्यक्ति विशेष की निजी कमी नहीं होती. यह हमारे एजूकेशन सिस्टम की कमी है.” खुद से अपने निर्णय लेने की क्षमता अचानक से एक रात में नहीं आ जाती. वह कहते हैं, “हम रातों-रात वयस्‍क नहीं बन जाते हैं.” अपनी क्षमताओं को अपनी बेहतरी के लिए विकसित करना हमारे पढ़ाई-लिखाई का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है, जो मौजूदा सिस्टम में कहीं गायब हो गया है. इस कमी को पूरा करने के विज़न के साथ विवेक ने साल 2016 में ‘क्षमतालय’ संस्थान की स्थापना की. यह संस्‍थान सरकारी स्कूलों के साथ मिलकर वहां की 'टीचिंग पेडागोजी' के ऊपर काम करता है, जिसके तहत टीचर्स की ट्रेनिंग करना, कैरिकुलम बनाना, बच्चों के साथ अलग-अलग लर्निंग एक्टिविटीज करना और इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाना जैसे काम शामिल हैं.


'क्षमतालय’ की शुरुआत कोटड़ा (उदयपुर, राजस्थान) से हुई, जो एक आदिवासी-बहुल टाउन है. वहां से शुरू होकर अब यह पूर्वी-दिल्ली के एमसीडी स्कूलों और बिहार के समस्तीपुर जिले तक पहुँच गया है. छोटे कस्बों, ग़रीब लोगों, आदिवासी समाज के स्कूलों के साथ काम करना विवेक के लिए अहम है क्‍योंकि ये लोग और इनका विकास अक्सर हमारी नज़र से बाहर होता है. उदाहरण के लिए, कोटड़ा को अज़ादी के 74 साल बाद भी ‘काला पानी' के नाम से जाना जाता है. वजह? वहां शिक्षा, चिकित्सा, बाल-विकास, बिजली विभागों में न के बराबर काम हुआ है, जिसकी वजह से प्रशासनिक अधिकारी भी वहां कार्यभार ग्रहण करने से कतराते हैं.


इनसारे स्कूलों में 3 मॉडलों पर काम किया जाता है- होलिस्टिक लर्निंग (wholistic learning), वेल-बीइंग (well-being), और गवर्नेंस (governance). इन सबको बांधकर रखने वाली भावना करुणा (compassion) होती है, क्‍योंकि अगर बचपन से ही बच्चों में यह भावना विकसित की जाती है तो वह अपने हर काम, हर निर्णय, अपने रिश्‍तों में ख़ुद को समझने की क्षमता को सही और संवेदनशील तरीके से विकसित करते हैं, जो एक बेहतर इंसान बनने की सबसे पहली शर्त है.


बुद्धिस्ट फिलॉसफी में करुणा को अर्हत्व (वह जिसे निर्वाण की प्राप्ति हो चुकी है) प्राप्त करने का एकमात्र जरिया बताया गया है. ज़ाहिर है दलाई लामा ट्रस्ट इस फेलोशिप के माध्यम से हममें और हमारे दुनिया-समाज में करुणा को बढ़ाना चाहती है. इस फेलोशिप के मिलने की ख़ुशी जाहिर करते हुए विवेक कहते हैं कि इसके माध्यम से वह टीचर्स और एजूकेटर्स के लिए एक ऐसा इकोसिस्टम तैयार करना चाहते हैं, जहाँ टीचर्स और इस विभाग से जुड़े अन्य स्टेकहोल्डर्स खुद को गहराई से समझ सकें. अपने काम की अहमियत को समझ सकें. यह बात सही ही है कि पढने-पढ़ाने के सिलसिले में हम शिक्षकों के बारे में नहीं सोचते, जिनकी हमारे समाज में इतनी अहम भूमिका होती है. इसी बात को विवेक के प्रोजेक्ट का विज़न और नाम सटीक तरीके से रखता है "व्हू गिव्स केयर फॉर केयरगिवर्स.”

श्रुतिका सिलस्‍वाल

उत्तराखंड की श्रुतिका का बचपन और पढ़ाई अलग-अलग पर हुई. शायद यही कारण है कि उनके लिए विविधता इतनी महत्त्वपूर्ण और जरूरी है. उनके माता-पिता भी शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं. इस वजह से शिक्षा के प्रति हमेशा उनका एक खास लगाव रहा. दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.कॉम की डिग्री लेने के साथ ही समाजसेवी संस्थाओं के लिए वॉलंटियर करने लगीं. इसके बाद इन्होनें ए.आइ.इ.एस.इ.सी (AIESEC) के एजुकेशन से जुड़े प्रोजेक्ट में बतौर टीम मेम्बर काम किया और लीडरशिप की भूमिका में भी रहीं. यहीं से श्रुतिका का निश्चय और पुख्ता हुआ कि इन्हें एजूकेशन के सेक्टर में ही काम करना है. उनका अगला पड़ाव था ‘टीच फॉर इंडिया’ की दो साल की फेलोशिप, जहाँ उन्हें इस फील्ड का ज्यादा अनुभव और समझदारी मिली.


कोविड पैनडेमिक शिक्षा जगत के लिए एक कदम पीछे जाने जैसा था. श्रुतिका इस दौरान सक्रिय थीं और यहीं उन्हें लगा की अब घर वापस जाने और अपने गांव-देहात के बच्‍चों के लिए काम करने का वक्‍त है. वहां भी सपोर्ट की काफी जरूरत है. वापस लौटकर श्रुतिका ने टिहरी-गढ़वाल में चल रहे ‘सिंपल एजूकेशन फाउंडेशन’ में बतौर मैनेजर काम करना शुरू किया और अब प्रोग्राम हेड के रूप में दो प्रोजेक्ट्स को देख रही हैं.


‘सिंपल एजुकेशन फाउंडेशन’ उत्तराखंडदिल्लीजम्मू-कश्मीर और लद्दाख के सरकारी स्कूलों की शिक्षा को स्तरीय बनाने के लिए प्रयासरत हैं. ‘क्वालिटी एजूकेशन’ के बारे में बात करते हुए श्रुतिका मौजूदा शिक्षा-पद्धति को संदर्भ-सहित देखने की बात करती हैं. इसके तहत कैरिकुलम में बदलाव से लेकर क्लासरूम में पढ़ाने के तौर-तरीके, बच्चों के सामाजिक और विशेष रूप से भावनात्मक विकास को अत्‍यधिक महत्ववपूर्ण मानती हैं. दलाई लामा फेलोशिप को इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव की तरह देखती हैं. फेलोशिप के माध्यम से अलग-अलग देशों से आये फेलोज से उनके काम के बारे में जानने और समझने का मौका मिलना श्रुतिका को उत्साहित करता है क्यूंकि उनकी उनका मानना है कि विविधता किसी भी जगह को समृद्ध ही करती है. वह उत्साहित हैं कि यहां उन्‍हें बहुत कुछ सीखने का मौका मिलेगा.

राधिका गुप्ता

दिल्ली में पली-बढीं राधिका का सोशल वर्क का कोई बैकग्राउंड नहीं था. NALSAR हैदराबाद से लॉ की डिग्री लेने के बाद हार्वर्ड लॉ स्कूल से मास्टर्स की डिग्री ली और दिल्ली-एनसीआर में स्थित जिंदल लॉ स्कूल में कुछ वक़्त के लिए लॉ भी पढ़ाया. फिर वर्ल्ड बैंक के साथ काम किया और इसी दौरान मिली एक फेलोशिप के लिए काम करते हुए भारत में कुपोषण और उससे जुड़ी समस्याओं की तरफ उनका ध्यान गया. यह इतना विचलित करने वाला अनुभव था कि इसके बाद उन्‍होंने इसी मुद्दे पर कुछ काम करने की सोची. राधिका कहती हैं कि आहार जैसे मूलभूत अधिकार का न होना उनके लिए एक प्रश्न बन गया था.

वर्ल्ड हंगर इंडेक्स में कुपोषण में भारत का स्थान पहला है. इसे अनदेखा करना मुश्किल था ‘फूडशाला फाउंडेशन’ इसी तरह वज़ूद में आया. दिल्ली एनसीआर के गुरुग्राम के नाथूपुर गाँव में यह संस्था ‘कम्युनिटी किचन’ चलाती है. आसपास रहने वाली महिलाएं वहां आकर खाना बनाती हैं, जो आसपास के स्‍कूलों में किफायती दरों पर बेचा जाता है. इसके पीछे मकसद उन बच्चों तक साफ़-सुथरा और न्यूट्रीशन से भरपूर खाना पहुँचाने की कोशिश है. इसके अलावा, फूडशाला फाउंडेशन वहां के स्कूलों में फूड अवेयरनेस प्रोग्राम्स भी सक्रियता से चलाते हैं, जिसमें बच्चों को अलग-अलग तरह से उनके खाने के बारे में सजग करने की कोशिश की जाती है.

राधिका बताती हैं कि हर हफ्ते बच्चों के लिए 2 वर्कशॉप किये जाते हैं, जिसमें उन्‍हें खाने के पोषक तत्‍वों के बारे में बताने के साथ-साथ यह भी बताया जाता है कि उन पोषक तत्‍वों की हमारे शरीर को क्‍यों जरूरत है. वह कहती हैं कि सेहतमंद खाना देने के साथ-साथ यह जागरुकता और चेतना भी जरूरी है कि बाज़ार से पैसे खर्च करके ख़रीदा हुआ पैकेज्ड फूड हमारे लिए कितना हानिकारक हो सकता है. इन्हीं वर्कशॉप के दौरान बच्चों को फूड प्रोडक्ट्स के लेबल्स पढ़कर उन्‍हें उसमें मिली नुकसानदायक चीजों के बारे में भी जागरूक किया जाता हैदलाई लामा फेलोशिप के माध्यम से राधिका इस फाउंडेशन का दायरा और स्कूलों तक बढ़ाने की उम्मीद रखती हैं.

इसके अलावा इस तरह के मुद्दों पर काम रहे नए लोगों से मिलने, एक-दूसरे के साथ नए आइडियाज शेयर करने को लेकर भी व‍ह काफी उत्साहित हैं. फेलोशिप की इस एक साल की यात्रा से वह करुणा, संवेदनशीलता जैसी भावनाओं को और विकसित कर पाएंगी, ऐसी उन्हें उम्मीद है.