बजट 2018-19: अंदेशों, उम्मीदों में झूल रहे सवा सौ करोड़ देशवासी
लोक लुभावन नहीं, फिर कैसा होगा आम बजट!
वर्ष 20019 में आम लोकसभा चुनाव आ रहा है, और उससे पहले मौजूदा केंद्र सरकार का आखिरी आम बजट आ रहा है। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री संकेत कर रहे हैं कि एक फरवरी को पेश होने वाला यह आम बजट लोकलुभावन नहीं होगा। अंदेशे जताए जा रहे हैं, तो फिर कैसा होगा आम बजट? क्या चुनाव से पहले भाजपा की सरकार इतना बड़ा रिस्क ले सकती है? उधर, विपक्ष बजट की बखिया उधेड़ने के लिए पूरी तल्लीनता से सरकार की एक-एक बजटीय गतिविधि और मीडिया सूचनाओं पर आंख-कान साधे हुए है। आइए, जानते हैं, कैसे हैं अंदर के हालात, क्या हैं जनता की उम्मीदें और देश के विभिन्न वर्गों की बजट से संभावनाएं।
इस बार बजट घोषित होने से पूर्व पीएमओ के इतनी दिलचस्पी लेने के पीछे प्रधानमंत्री की अगले चुनाव की चिंताएं मानी जा रही हैं। आम तौर पर चुनाव पूर्व का आम बजट लोकलुभावन होता है, जिसमें जनता की इच्छाओं की कद्र भी की जाती है और सपने भी दिखाए जाते रहे हैं।
बजट 2018, चूंकि वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले आ रहा है, इसलिए उसको अंतिम रूप देने में वित्तमंत्री अरुण जेटली के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी गहरी दिलचस्पी बनी हुई है। यद्यपि भाजपा और केंद्र सरकार के दोनों शीर्ष नेताओं ने अलग-अलग संकेत दे दिए हैं कि आने वाला बजट लोकलुभावन नहीं होगा क्योंकि किसी भी कीमत पर भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना है। उधर, विपक्ष कान साधे हुए है, विभिन्न बौद्धिक वर्ग भी इस बात पर पूरी तरह यकीन नहीं कर पा रहे। एक सवाल तैर रहा है कि क्या चुनाव से ठीक पहले सरकार ऐसा करने का रिस्क ले सकती है? खबर है कि प्रधानमंत्री और पीएमओ के उच्चाधिकारी भी इस बार के बजट पर पूरी तरह निगाह रखे हैं।
वित्त मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री आवास तक बैठकें जारी हैं, यद्यपि बजट आम रूप ले चुका है। यद्यपि इस माह प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के बीच बजट पर कमोबेश प्रायः आए दिन विमर्श होता रहा है लेकिन पहले दायरा सीमित था और अब अंतिम चरण में हैं। बताया जाता है कि बजट को लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय इससे पहले कभी इतना एक्शन में नहीं रहा है। वजह है, सिर्फ अगला चुनाव ताकि सरकार बजट घोषित होने के बाद लोगों का विश्वास जीत सके। इस बार बजट घोषित होने से पूर्व पीएमओ के इतनी दिलचस्पी लेने के पीछे प्रधानमंत्री की अगले चुनाव की चिंताएं मानी जा रही हैं। आम तौर पर चुनाव पूर्व का आम बजट लोकलुभावन होता है, जिसमें जनता की इच्छाओं की कद्र भी की जाती है और सपने भी दिखाए जाते रहे हैं।
इस बार के बजट में सरकार के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह मानी जा रही है कि उन कामों को करने के लिए बजट में पैसे का इंतजाम वह कैसे दिखाए। दरअसल अब तक सब करके देख लिया, लेकिन सरकारी खजाने की हालत जस की तस है। फिलहाल, विदेशी निवेश और निजीकरण बढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नजर नहीं आ सका है। वह तो पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ही थे, जो एक बार कह गए कि पैसे पेड़ों पर नहीं उगते, और वहीं वह यह बात भी दर्ज करा गए कि किफायत बरतिए. लेकिन उनकी वह बात पसंद नहीं की गई थी। एक अर्थशास्त्री की बात का विरोध किया गया था और यहां तक कि खुद उनके विरोधी अर्थशास्त्रियों ने उनका मज़ाक तक बना दिया था।
सब कुछ बावजूद बजट को लोकलुभावन दर्शाने के लिए अंदरखाने जो हलचल चल रही है, उसके संकेत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री अरुण जेटली की बातों में भी समय समय पर मीडिया तक पहुंचते रहे हैं। प्रधानमंत्री ने आज 'मन की बात' में भी कहा है कि हम बार-बार सुनते आये हैं कि लोग कहते हैं कि कुछ बात है ऐसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। वो बात क्या है, वो बात है लचीलापन, ट्रांसफॉर्मेशन। जन औषधि योजना के पीछे हमारा उद्देश्य है- हेल्थ केयर को अफॉर्डेबल बनाना। पूरे हालात पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के प्रमुख अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों से भी स्वयं आर्थिक नीतियों पर सुझाव ले चुके हैं। पिछले दिनो नीति आयोग की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में 40 से ज्यादा अर्थशास्त्रियों ने समष्टिपरक अर्थव्यवस्था, कृषि-ग्रामीण विकास, रोजगार, स्वास्थ्य-शिक्षा, विनिर्माण-निर्यात, शहरी विकास, अवसंरचना-संपर्क जैसे विविध विषयों पर प्रधानमंत्री को सुझाव दिए हैं।
इस बैठक में नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार, नीति आयोग के सदस्य, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष विवेक देबरॉय, नैस्कॉम के अध्यक्ष आर. चंद्रशेखर, टीसीएस की वाइस प्रेसिडेंट ग्लोबल टैक्स के रेणु नार्वेकर, वित्त मंत्रालय के कई अधिकारी, वित्त सचिव हसमुख अधिया, मुख्य आर्थिक सलाहकार, वित्त सेवाओं के सचिव शामिल हुए थे।
अर्थशास्त्रियों ने प्रधानमंत्री को सुझाव दिया है कि वृद्धावस्था और विधवा पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के तहत पेंशन की राशि बढ़ाकर 500 सौ 1000 रुपये कर दी जाए। कॉरपोरेट टैक्स की दर 30 प्रतिशत से घटाकर 20-25 प्रतिशत कर दें। लंबित सीमा और एग्जिम शुल्क सुधारा जाए। जीएसटी की दरों को तर्कसंगत बनाया जाए। छोटे और मझोले उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए आम बजट में एक रोडमैप पेश किया जाए। दूरसंचार सेवाओं पर जीएसटी दर 18 से घटाकर 12 फीसद कर दी जाए।
इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों की घरेलू मैन्यूफैक्चरिंग को बढ़ावा मिलना चाहिए। सीमा शुल्क और आयात-निर्यात शुल्क में सुधार जरूरी है। सन 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए ग्रामीण इलाकों में गैर कृषि गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाए। मनरेगा का सिलसिला चलता रहे। इससे चौतरफा फायदा हुआ है। उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संकेत कर चुके हैं कि इस बार का बजट लोकलुभावन नहीं होगा। सरकार सुधारों के अपने एजेंडे पर अडिग है। सरकार चाहती है कि भारत की अर्थव्यवस्था सबसे कमजोर अर्थव्यवस्थाओं की लीक से हटकर दुनिया के लिए सबसे आकर्षक डेस्टिनेशन के रूप में उभरे। आम आदमी छूट या मुफ्त की चीज नहीं चाहता है।
यह मुफ्त की चीज की चाहत कोरी कल्पना है। उनकी सरकार के फैसले जनता की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए होते हैं। वित्त मंत्री अरुण जेटली भी कह चुके हैं कि गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) सिस्टम में बेहद कम समय में स्थिरता आ गई है, जिससे जीएसटी का बेस बढ़ाने और भविष्य में रेट्स में बदलाव का मौका मिल गया है। जीएसटी से देश के टैक्स सिस्टम में व्यापक बदलाव आ रहा है। इस बीच सूत्रों से पता चला है कि मिडिल क्लास को इस बार बजट में बड़ी राहत मिल सकती है। डेढ़ लाख तक की टैक्स छूट लिमिट में 30 हजार रुपए तक का इजाफा हो सकता है। हालांकि, सरकार को सभी स्टेकहोल्डर्स से लिमिट को दो लाख रुपए तक करने का प्रस्ताव मिला है।
इस बीच देश के छोटे और मंझोले उद्यमियों ने केंद्र सरकार को बता दिया है कि भारत में करीब 3.60 करोड़ यूनिट रजिस्टर्ड हैं। अगर गैर पंजीकृत यूनिट को भी जोड़ दें तो इन इकाइयों की संख्या करीब चार करोड़ हो चुकी है। इनमें 12 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है। ये एक ऐसा सेक्टर है जो पिछले कुछ सालों में एक नियत रफ्तार से बढ़ता आ रहा है लेकिन पिछले एक साल में इन उद्योगों को कई दिक्कतों का सामना करना पड़ा है। वित्तमंत्री से मांग की गई है कि कॉर्पोरेट टैक्स की दर घटाई जाए। कॉर्पोरेट टैक्स आज भी 30 प्रतिशत है और उसके ऊपर सरचार्ज और सेस है। यह मिलाकर 35 प्रतिशत तक चला जाता है। यह मैक्सिमम 25 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।
इंटरनेशनल स्टैंडर्ड के हिसाब से भी तभी इंडस्ट्रियल ग्रोथ होगी और छोटे और मंझोले कारोबारियों का हौसला बढ़ेगा। सरकार ने पिछले बजट में कॉर्पोरेट टैक्स घटाने की बात ज़रूर कही थी लेकिन वह पहले जीएसटी से टैक्स वसूली कर लेना चाहती है। गौरतलब है कि इस सेक्टर के लोगों का मैन्युफैक्चरिंग जीडीपी में 6.11 प्रतिशत का योगदान है और सर्विस जीडीपी का 24.63 प्रतिशत इसी सेक्टर से सरकार को मिलता है। फिलहाल सरकारी हल्कों से छन-छनकर जो सूचनाएं आ रही हैं, पता चल रहा है कि केंद्र सरकार के इस अंतिम पूर्णकालिक बजट में वित्त मंत्री की सबसे बड़ी प्राथमिकता राजकोषीय घाटे का 3.2 फीसदी का लक्ष्य हासिल करना है। देश भर में कृषि क्षेत्र पर छाए संकट को दूर करने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री आवश्यक उपाय उठाने का आश्वासन दे चुके हैं। किसानों की आत्महत्या और उपज के सही दाम न मिल पाना बड़ी चुनौती है।
जीएसटी और नोटबंदी की चोट से जूझ रही भारतीय अर्थव्यवस्था की शेयर बाजार एक अलग और सुनहरी तस्वीर पेश कर रहा है। बचत के पारंपरिक तरीकों में ब्याज दर गिरने के बाद छोटे निवेशकों ने म्यूचुअल फंड के जरिए या फिर सीधे, बड़े पैमाने पर स्टॉक मार्केट में निवेश करना शुरू किया है। ऐसे में क्या सरकार लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स (एलटीसीजी) और डिविडेंड टैक्स में कुछ बदलाव कर क्या शेयर बाजार को फौरी झटका दे सकती है, इसको लेकर भी आने वाले बजट पर निगाहें लगी हुई हैं। फिलहाल, 29 जनवरी से शुरू हो रहे संसद के बजट सत्र से एक दिन पहले आज 28 जनवरी को केंद्रीय संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई है, जिसमें बजट सत्र को लेकर सभी दलों के बीच चर्चा की जाएगी और आगे रणनीति पर विचार-विमर्श किया जाएगा।
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