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देश के जाने-माने नवगीतकार माहेश्वर तिवारी से विशेष बातचीत

देश के जाने-माने नवगीतकार माहेश्वर तिवारी से विशेष बातचीत

Tuesday September 05, 2017 , 5 min Read

"माहेश्वर तिवारी का कहना है कि एक परिवार के अंदर जैसे भिन्न-भिन्न होते हुए भी सभी सदस्य अपने परिवार, अपने देश, अपने समाज के लिए एक-दूसरे के साहचर्य में बने रहते हैं, उसी तरह वैचारिक भिन्नताओं के बावजूद साहित्यिक रिश्तों में संवादहीनता नहीं होनी चाहिए।"

माहेश्वर तिवारी

माहेश्वर तिवारी


 कोई रचना विचारहीन नहीं होती। उसकी कलात्मकता उसे रचना का स्तर देती है। रामचंद्र शुक्ल ने जितना तुलसी को महत्व दिया, कबीर और जायसी को उतना महत्व नहीं दिया, लेकिन हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तुलसी और कबीर दोनो को महत्व दिया। 

अगर छंदमुक्त रचना कलात्मकता की शर्त निभाती है तो उसका भी महत्व तुकांत रचना से तनिक कम नहीं। साहित्य में जनतंत्र के प्रश्न पर किसी भी तरह की वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद जड़ता ठीक नहीं।

देश के जाने-माने कवि माहेश्वर तिवारी कहते हैं कि सत्ता का साझीदार होने वाला साहित्य प्रतिरोध की नैतिकता खो देता है। आज साहित्य में 'वाद' से परे जनतंत्र का, खुले मंच का होना बहुत जरूरी है। एक परिवार के अंदर जैसे भिन्न-भिन्न होते हुए भी सभी सदस्य अपने परिवार, अपने देश, अपने समाज के लिए एक-दूसरे के साहचर्य में बने रहते हैं, उसी तरह साहित्य में विचारधारा अथवा कविता में फार्म को लेकर अतिवादी नहीं होना चाहिए। मूल्यांकन की दृष्टि से मुख्य बात है कि रचना में कवित, दृष्टि, कला है कि नहीं। आज तमाम 'संत- साहित्यकार' सीकरी की राह पर हैं। कविता या साहित्य में केवल विचार नहीं, उसका कलात्मक पक्ष जरूरी है। कविता सिर्फ वैचारिक प्रचार के लिए नहीं होनी चाहिए, बल्कि कलात्मक दृष्टि से भी उसका मूल्यांकन, अच्छी रचना की शर्त होनी चाहिए। वैचारिक भिन्नता के बावजूद अच्छी रचना लोगों तक पहुंचनी चाहिए।

माहेश्वर तिवारी बताते हैं कि आजादी के आंदोलन में योगदान करते हुए प्रगतिशील प्रेमचंद ने सोज़े-वतन लिखा, तो जयशंकर प्रसाद ने चंद्रगुप्त। उनकी दृष्टि चंद्रगुप्त जैसे चरित्र पर रही। दोनों को ही महत्व मिला। कोई रचना विचारहीन नहीं होती। उसकी कलात्मकता उसे रचना का स्तर देती है। रामचंद्र शुक्ल ने जितना तुलसी को महत्व दिया, कबीर और जायसी को उतना महत्व नहीं दिया, लेकिन हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तुलसी और कबीर दोनो को महत्व दिया। विजयदेव नारायण शाही ने जायसी पर काम किया। समाज ही नहीं, साहित्य के लिए भी वह आह्वान स्वीकार्य होना चाहिए - 'सभी फूल खिलने दो।' साहित्य के लिए आज खुला मंच मिलना बहुत जरूरी हो गया है। 'कविकुंभ' में हर तरह के विचारशील कवियों को महत्व मिल रहा है। राजेश जोशी, नचिकेता और राम सेंगर हैं तो दिविक रमेश और बुद्धिनाथ मिश्र भी हैं।

माहेश्वर तिवारी का कहना है कि एक परिवार के अंदर जैसे भिन्न-भिन्न होते हुए भी सभी सदस्य अपने परिवार, अपने देश, अपने समाज के लिए एक-दूसरे के साहचर्य में बने रहते हैं, उसी तरह वैचारिक भिन्नताओं के बावजूद साहित्यिक रिश्तों में संवादहीनता नहीं होनी चाहिए। कविता के फार्म के लेकर अतिवादी नहीं होना चाहिए। कोई 'लंगड़ गद्य' नहीं होता। अगर छंदमुक्त रचना कलात्मकता की शर्त निभाती है तो उसका भी महत्व तुकांत रचना से तनिक कम नहीं। साहित्य में जनतंत्र के प्रश्न पर किसी भी तरह की वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद जड़ता ठीक नहीं। कविता गीत-अगीत, किस फार्म में है, यह बात मुख्य नहीं। मूल्यांकन की दृष्टि से मुख्य बात है, उसमें कविता है कि नहीं, दृष्टि है कि नहीं, कला है कि नहीं। जैसे कि कोई खराब व्यक्ति अच्छे कपड़ों में हो सकता है और कोई अच्छा आदमी मामूली कपड़े में। तन पर सुंदर कपड़े देखकर किसी व्यक्तित्व को बेहतर मान लेना उचित नहीं है।

उनका कहना है कि जिस तरह जनतंत्र में वैचारिक भिन्नता के बावजूद मानव अपनी सामाजिक एकता में बना रहता है, उसी तरह साहित्यकार की वैचारिक भिन्नता, मानवीय संबंधों की अभिन्नता में आड़े नहीं आनी चाहिए। यह मनुष्य में ही संभव है, पशु में नहीं। वह जनतंत्र साहित्य में आए। जनतंत्र एक जीवन पद्धति है। वह साहित्य में भी होनी चाहिए। उसमें कलात्मकता, स्तरहीनता और प्रचारात्मकता कितनी है, विचारणीय हो, न कि रचना का फार्म और विचारधारा का प्रश्न। आलोचना के लिए रचना में जीवन का आचरण भी महत्वपूर्ण है। जैसे, अली सरदार जाफरी कहते थे- मैं विचित्र वामपंथी हूं। विचारों से, दिखावे में लेफ्टिस्ट हूं लेकिन नजर कैप्टिलिस्ट होने पर लगी रहती है। सुविधा संपन्न जीवन चाहिए।

उन्होंने बताया कि मध्य प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री विद्याचरण शुक्ल के वक्त में सरकार की ओर से कवि के जन्मस्थान पर नागरिक समागम होता था। इसी तरह होशंगाबाद के एक आयोजन में भवानी प्रसाद मिश्र ने कहा था- 'हास्य कवियों ने तो कविता के कपड़े उतार दिए हैं।' उस आयोजन में सियासत का आचरण भी आज जैसा नहीं था। कवियों के मंच पर राजनेताओं को बैठने की मनाही थी। मुख्यमंत्री, मंत्री मंच से नीचे दर्शक दीर्घा में बैठे और कवि-साहित्यकार मंच पर। उन दिनो जैसी कविताएं लिखी जा रही थीं, लगता था कि साहित्य में जनतंत्र उपस्थित है। आज दिनकर जी की पंक्तियां हमे साहित्य में जनतंत्र की याद दिलाती रहती है।

माहेश्वर तिवारी का कहना है कि साहित्यकार सत्ता का साझीदार हो जाए, उस समाज को बचाने का काम असंभव नहीं तो, और कठिन अवश्य हो जाता है, साहित्य प्रतिरोध की नैतिकता खो देता है। करिश्माई नेतृत्व की उम्र ज्यादा नहीं होती है। सही नेतृत्व देश को न मिला तो विघटन और बिखराव का अंदेशा बढ़ जाता है। हमारे समय में करिश्माई नेतृत्व ही प्रमुख हो गया है। शोषित, दलित, पीड़ित वर्गों की बेहतरी की चिंता बढ़ती जा रही है। सभी दलों के भीतर अनिश्चितता की स्थिति जारी है। सन 1947 के समय देश के नेतृत्व में जिस तरह के तपे-तपाए लोग थे, वह स्थिति आज लापता है। वैसे नेता किसी दल के पास नहीं।

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