बिस्मिल्लाह की शहनाई में सुध खो बैठे थे बापू और नेहरू
वो शहनाई जिसमें अपनी सुध खो बैठे थे बापू और नेहरू, आज गूगल डूडल ने कुछ इस तरह किया याद...
मामूली सी उम्र में ठुमरी, छैती, कजरी, स्वानी के साधक हो चुके भारत रत्न शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की आज (21 मार्च) 102वीं जयंती है। भारतीय संगीत प्रेमियों के लिए इस खास दिन के मौके पर गूगल ने चेन्नई के विजय कृष का रेखांकित डूडल प्रसारित किया है। उसमें उस्ताद सफेद पोशाक में शहनाई बजा रहे हैं, जिसकी धुन आज पूरी दुनिया सुन रही है।
बिस्मिल्ला खाँ जब छह साल के थे, वह अपने पिता के साथ बनारस की दालमंडी में आकर रहने लगे। काशी में ही उन्होंने अपने मामा अली बख्श 'विलायती' से शहनाई वादन सीख लिया। विलायती विश्वनाथ मन्दिर में शहनाई बजाते थे। आज बिस्मिल्लाह खां को आम लोगों ने भले बुला दिया हो, उनका परिवार भले बेहद तंगी से गुजर रहा हो लेकिन कभी एक वक्त में देश ने उनको तमाम अवार्ड्स से नवाजे हैं।
ऐसे महान संगीतकार उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की धुनों पर भला कौन सा संगीतप्रेमी अपनी सुध-बुध न्योछावर न करना चाहेगा, जिन पर रीझ कर एक वक्त में एक अमेरिकी व्यवसायी ने उनसे मनुहार की थी कि वह उनके साथ उनके देश चलें तो वहां उन्हें खूब पैसा मिलेगा लेकिन उस्ताद ने उनसे प्रतिप्रश्न कर निरुत्तरित कर दिया था कि मेरे देश में तो गंगा बहती है, अमेरिका में मां गंगा मिलेंगी क्या? हां, अगर मां गंगा को भी अपने साथ ले चलो, तो मैं अमेरिका चल सकता हूं।
वह ऐसे उस्ताद थे, जिन्हें कभी दिल्ली बुलाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी शहनाई सुना करती थीं। वह चौदह साल की उम्र से सार्वजनिक स्थानों पर शहनाई वादन करने लगे। उनको सबसे पहले देशव्यापी पहचान 1937 में कोलकाता में इंडियन म्यूज़िक कॉन्फ्रेंस से मिली। वर्ष 1938 से लखनऊ के ऑल इंडिया रेडियो से उनकी शहनाई गूंजने लगी। जब उस्ताद ने एडिनबर्ग म्यूज़िक फेस्टिवल में शहनाई बजाई तो उन्हें पूरी दुनिया ने सिर-माथे ले लिया। फिर तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी उनकी शहनाई की धुनों पर रीझ गए। वाह उस्ताद, जब सन् 47 में देश आजाद हुआ तो लाल किले पर झंडा फहरने के बाद उनकी शहनाई की तान पूरे मुल्क में गूंज उठी थी।
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बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने शहनाई को नौबतख़ानों और शादी की दहलीज़ से उठा कर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया। उन्होंने सिर्फ़ अपने बूते पर शहनाई को एक आम साज़ से उठा कर एक सुसंस्कृत साज़ की श्रेणी में ला खड़ा किया। एक इंसान के रूप में वो धर्मनिरपेक्ष भारत के सबसे बड़े प्रतिरूप बने। जब 2006 में बनारस के संकटमोचन मंदिर पर हमला हुआ तो बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने गंगा के किनारे पर जा कर शाँति और अमन के लिए शहनाई बजाई थी।
जब उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को छोड़ उनकी पत्नी चल बसीं तो अपने दुखते एकांत पर वह लोगों से कहते थे, अब तो शहनाई ही उनकी बेगम है। बिस्मिल्ला खाँ का जन्म बिहार में डुमराँव के ठठेरी बाजार के किराए के मकान में एक मुस्लिम परिवार में पैगम्बर खाँ और मिट्ठन बाई के यहाँ हुआ था। उस रोज भोर में उनके पिता पैगम्बर बख्श राज दरबार में शहनाई बजाने के लिए घर से निकलने की तैयारी में थे कि उनके कानों में एक बच्चे की किलकारियां गूंजीं। अनायास सुखद एहसास के साथ उनके मुहं से 'बिस्मिल्लाह' शब्द निकला यानी अल्लाह के प्रति आभार।
यद्यपि बचपन में मां-बाप ने उनका नाम कमरुद्दीन रखा लेकिन वह कालांतर में उस्ताद बिस्मिल्लाह के नाम से ही मशहूर हो गए। उनके खानदानी दरबारी संगीतकार थे, जो बिहार की भोजपुर रियासत में अपने संगीत का हुनर दिखाने अक्सर जाया करते थे। पिता पैगम्बर खां डुमराँव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई बजाते थे। उनके परदादा हुसैन बख्श खान, दादा रसूल बख्श, चाचा गाजी बख्श खान और पिता पैगंबर बख्श खान भी शहनाई वादक थे। बिस्मिल्ला खाँ जब छह साल के थे, वह अपने पिता के साथ बनारस की दालमंडी में आकर रहने लगे। काशी में ही उन्होंने अपने मामा अली बख्श 'विलायती' से शहनाई वादन सीख लिया। विलायती विश्वनाथ मन्दिर में शहनाई बजाते थे। आज बिस्मिल्लाह खां को आम लोगों ने भले बुला दिया हो, उनका परिवार भले बेहद तंगी से गुजर रहा हो लेकिन कभी एक वक्त में देश ने उनको तमाम अवार्ड्स से नवाजे हैं। उनको वर्ष 1961 में पद्मश्री, वर्ष 1968 में पद्म विभूषण, वर्ष 1980 में भी पद्मविभूषण और वर्ष 2001 में भारत रत्न सम्मान मिला।
21 अगस्त 2006 को उस्ताद बिस्मिल्लाह 90 वर्ष की आयु में दुनिया छोड़ गए। गंगा-जमुनी तहजीब के उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के बेटे नाजिम और पौत्र नासिर बताते हैं कि तंगहाली ने उनके परिवार को इस कदर घेर लिया है कि दादा उस्ताद के अवार्ड्स संभाल कर रखने भर का भी बूता नहीं बचा है। उनमें दीमक लग गए हैं। गौरतलब है कि वाराणसी देश के प्रधानमंत्री का लोकसभा क्षेत्र है। इस शहर में मुल्क के एक मरहूम संगीतकार के परिवार की ऐसी हालत अफसोसनाक है। उस्ताद के जाने के बाद परिवार बेहद गरीबी में जी रहा है। घर खर्च जैसे तैसे चलता है। दालमंडी में स्थित उस्ताद के पैतृक घर में उनके कमरे में आज भी उनका जूता, छाता, टेलीफोन, कुर्सी, लैम्प, चम्मच-बर्तन रखे हैं। परिवार के पास रोजी का कोई माध्यम नहीं है। आकाशवाणी से कभी-कभार कार्यक्रम मिल जाते हैं। उस मामूली पैसे से भी घर-गृहस्थी कहां चले। परिजन कहते हैं कि काश उस्ताद उस अमेरिकी व्यवसायी के कहने पर अमेरिका चले गए होते तो आज उनके घर की ऐसी दुर्गति नहीं होती।
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उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का निकाह सोलह साल की उम्र में मुग्गन ख़ानम के साथ हुआ, जो उनके मामू सादिक अली की दूसरी बेटी थीं। उनसे उन्हें नौ संतानें हुईं। वे हमेशा एक बेहतर पति साबित हुए। वे अपनी बेगम से बेहद प्यार करते थे लेकिन शहनाई को भी अपनी दूसरी बेगम मानते थे। अपने साढ़े पांच दर्जन परिजनों का वह भरण-पोषण करते रहे। उस्ताद मजाक-मजाक में अपने घर को होटल भी कहा करते थे। लगातार साढ़े तीन दशक तक साधना, छह घंटे का रोज रियाज उनकी दिनचर्या में शुमार होता था। अलीबख्श मामू के निधन के बाद खां साहब ने अकेले ही 60 साल तक इस साज को बुलंदियों तक पहुंचाया। यद्यपि वह शिया मुसलमान थे और पांच बार के नमाजी थे, लेकिन हिन्दुस्तानी संगीतकारों की तरह वह सभी धार्मिक रीति रिवाजों के प्रबल पक्षधर थे।
उस्ताद बिस्मिल्लाह बाबा विश्वनाथ मन्दिर में तो शहनाई बजाते ही थे, गंगा किनारे बैठकर घण्टों रियाज किया करते थे। हमेशा त्यौहारों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे, साथ ही रमजान का व्रत भी रहते थे। इसीलिए आखिरी सांस तक संगीत ही उनका जीवन-धर्म रहा और उन्होंने गंगा-जमुनी संस्कृति के प्रतीक कबीर का काशी नहीं छोड़ा।
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