फिल्म उद्योग में पुरुष वर्चस्व, महिलाओं के साथ भेदभाव
संयुक्त राष्ट्र की सर्वे रिपोर्ट ने माना कि फिल्मी दुनिया में भी होता है लैंगिक भेदभाव...
वक्त ने चाहे जितना आधुनिक कर दिया, आज भी भारतीय समाज में, घर-परिवार में, जीवन के अन्य क्षेत्रों में अब भी पुरुष वर्चस्व की स्थितियां असहनीय हैं। जब फिल्म उद्योग में काम कर रही महिला कलाकारों, तकनीशियनों आदि के साथ पुरुषवादी भेदभाव होता है और शीर्ष महिला फिल्मी हस्तियां स्पष्ट रूप से इसे अपनी कामयाबी की राह में सबसे बड़ी अड़चन मानती हैं, तो उनका दुख गंभीर रूप से गौरतलब हो जाता है। फिल्म निदेशक मीरा नायर, अभिनेत्री रानी मुखर्जी, राधिका आप्टे, रिचा चड्ढा, सोनम कपूर और गायिका सोना मोहपात्रा ही ऐसा नहीं कहती हैं, बल्कि संयुक्त राष्ट्र की एक सर्वे रिपोर्ट भी फिल्म उद्योग के भीतर के इस भेदभाव का खुलासा करती है।
फिल्म उद्योग में महिलाओं के साथ भेदभाव होने की बात सिर्फ संगठनों और सामाजिक संस्थाओं तक ही मुखर नहीं हो रही बल्कि चित्रपट की नामी अभिनेत्रियों स्वयं ऐसी आपबीती से दुखी हैं और अपना दुख सार्वजनिक मंचों पर कर रही हैं साझा।
अन्य क्षेत्रों में महिलाओं के साथ चाहे जैसा भी बर्ताव हो रहा है लेकिन आधुनिकता के सबसे लोकप्रिय माध्यम भारतीय फिल्म उद्योग में उनके साथ भेदभाव पर कोई भी व्यक्ति चौंक सकता है। आज पुरुष और महिलाएँ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे हैं, लेकिन लिंग आधारित भेदभाव अब भी मौजूद है।
एक दवा कंपनी में महिला को पदोन्नाति सिर्फ इसलिए नहीं दी गई कि प्रबंधन का मानना था कि उसकी जल्द शादी हो जाएगी। साथ ही अनुमान लगाया गया कि वह अपने काम के लिए पर्याप्त समय व समर्पण नहीं दे पाएगी। लेकिन फिल्म उद्योग में ऐसा होना इसलिए भी गंभीर माना जा रहा है कि फिल्में हमारे सामाजिक सरोकारों का सबसे प्रभावी माध्यम होती हैं। फिल्म उद्योग में महिलाओं के साथ भेदभाव होने की बात सिर्फ संगठनों और सामाजिक संस्थाओं तक ही मुखर नहीं हो रही बल्कि चित्रपट की नामी अभिनेत्रियों स्वयं ऐसी आपबीती से दुखी हैं और अपना दुख सार्वजनिक मंचों पर साझा करने लगी हैं।
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पुणे के डॉक्टर परिवार से ताल्लुक रखने वाली 'पैडमैन' की अभिनेत्री एवं ऑफबीट रोल के लिए मशहूर राधिका आप्टे कहती हैं कि बॉलीवुड महिलाओं को सशक्त कर सकता है लेकिन खुद फिल्म उद्योग में काम करने वाली महिला अभिनेत्रियों के लिए ही वहां की किरदारी आसान नहीं रह गई है। बॉलीवुड में पेमेंट से लेकर रोल तक, महिला कलाकार भेदभाव का सामना कर रही हैं। आप्टे उन कलाकारों में हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि उनकी फिल्में चलें न चलें, लेकिन उनका किरदार हमेशा छाप छोड़ जाता है।
भारतीय फिल्म उद्योग में महिलाओं के साथ भेदभाव की बात यकीनन संयुक्त राष्ट्र के एक सर्वे में भी सामने आई है। संयुक्त राष्ट्र के लिए यह अध्ययन साउथ कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी ने किया है। सर्वे रिपोर्ट में बताया गया है कि फिल्मों में महिलाओं को अक्सर उनके पुरुष साथियों की तुलना में अलग तरह की भूमिका दी जाती है। यह अंतर नग्न दृश्यों में भी दिखता है। फिल्म उद्योग के प्रोडक्ट उसके भीतर व्याप्त सेक्सिज्म की कहानी कहते हैं। फिल्मों में सिर्फ एक तिहाई अहम भूमिकाएं महिलाओं की होती है। फिल्मों के उच्च प्रशिक्षित किरदारों पर नजर डालना भी अहम है। इससे पता चलता है कि डॉक्टर, प्रोफेसर या वकील जैसे किरदार कम ही महिलाओं को दिए जाते हैं।
इसके विपरीत पुरुषों के मुकाबले लड़कियों और महिलाओं को दोगुना नग्न दिखाया जाता है। इन दृश्यों के जरिए समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों को और मजबूत बनाया जाता है। यह सिर्फ भूमिकाओं के बंटवारे पर ही लागू नहीं होता बल्कि फिल्म और टेलिविजन प्रोडक्शनों में जिम्मेदार पदों के बंटवारे में भी नजर आता है। निर्देशन और कैमरामैन जैसे कामों में महिलाएं कम दिखती हैं। इसका असर यह होता है कि मुद्दों पर कुछ खास नजरिया फिल्मों में नहीं दिखाया जाता है।
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अभिनेत्री रानी मुखर्जी का कहना है कि शोबिज की दुनिया में एक स्त्री कलाकार के रूप में उनका सफर भेदभावपूर्ण, रूढ़िवादी सोच से लगातार संघर्ष करता रहा है। अभिनेत्रियों पर हमेशा सबकी नजरें होती हैं और उनके लुक, आवाज, नृत्य कौशल को लेकर जज किया जाता है। लैंगिकता रूढ़िवादी धारणा का जवाब उन्होंने शादी और मातृत्व के बाद फिल्मों में वापसी करके दे दिया। वो कहती हैं, “मैं तो वादा करती हूं कि मैं काम करना और अपनी सभी खूबसूरत, दयालु, प्रतिभाशाली साथी अभिनेत्रियों के साथ रूढ़िवादी धारणाओं के खिलाफ लड़ना जारी रखूंगी और हमारे समाज और फिल्म उद्योग को आगे परिपक्व होते देखने की उम्मीद करती हूं। एक महिला के तौर पर मैं यह स्वीकार करती हूं कि फिल्म उद्योग का यह सफर आसान नहीं रहा है। फिल्म उद्योग में अभिनेत्रियों को खुद को हर रोज साबित करना पड़ता है।”
फिल्म उद्योग में लैंगिक असमानता विशेष गौरतलब है। एक महिला का छोटी अवधि का करियर होता है। फिल्म उद्योग में बड़े पैमाने पर महिलाओं के साथ असमानता का व्यवहार होता है और यह साफ-साफ नजर भी आता है। फिर भी बदलाव आ रहा है।
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‘सलाम बॉम्बे’ और ‘मॉनसून वेडिंग’ जैसी फिल्मों से लोकप्रिय हुईं फिल्म निर्माता मीरा नायर का भी कहना है कि भारतीय फिल्म उद्योग में महिलाओं के साथ भेदभाव होता है। फिल्म उद्योग में लैंगिक भेदभाव के सवाल पर वह कहती हैं कि भारतीय फिल्म उद्योग में पश्चिमी देशों से ज्यादा महिला निर्देशक और तकनीशियन हैं लेकिन यहां महिलाओं को लेकर पुरुषों का जो नजरिया है या फिल्म में जिस प्रकार महिलाओं को इस्तेमाल किया जाता है, उससे तो यही लगता है हद दर्जे का भेदभाव होता है। भारतीय फिल्म उद्योग में पितृसत्ता कायम है।
पुरुष वर्चस्व वाले फिल्म जगत में महिलाओं को अपना रास्ता बनाना कोई आसान काम नहीं है। भारतीय सिनेमा में सेंसरशिप भी कठोर स्तर पर पहुंच गई है।
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बॉलीवुड अभिनेत्री रिचा चड्ढा कहती हैं कि उन्हें एक महिला के रूप में भारतीय समाज में भेदभाव का अहसास होता है। भारतीय फिल्म जगत में संघर्ष के दौरान लिंग आधारित भेदभाव के उनके खुद के अनुभव हैं। ईमानदारी से एक महिला के नाते कहूं तो पुरुष क्या सोचते हैं, इसके आधार पर होने वाले भेदभावों को सहना होता है। जब लगता है कि रोजाना की जिंदगी के छोटे-छोटे निर्णयों को भी पुरुषों द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है, तब वह भेदभाव को महसूस करती हैं।
उदाहरण के लिए, एक लड़की के रूप में सार्वजनिक परिवहन सेवा में यात्रा के दौरान छोटे कपड़े पहनना आज भी वर्जित है। ऐसे निर्णयों से पुरुषों की सोच का पता चलता है। वैसे वह अब महसूस करती हैं कि मनोरंजन की दुनिया बदल रही है, क्योंकि डिजिटल मनोरंजन का विश्वभर में विकास हो रहा है। इससे भारत में थियेटर में लोगों की संख्या कम हो रही है।
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अभिनेत्री सोनम कपूर कहती हैं कि कामकाज में महिलाओं के साथ भेदभाव कोई नई बात नहीं है लेकिन जब फिल्म इंडस्ट्री में भी ऐसा हो रहा हो तो मामला गंभीर लगता है। अक्सर ऐक्ट्रेसेज को ऐक्टर्स के मुकाबले कम पैसे मिलते हैं। वह कई प्रॉजेक्ट्स को इसलिए रिजेक्ट कर चुकी हैं क्योंकि उसके लिए उन्हें अपेक्षित पैसे नहीं दिए जा रहे थे। उन्हें तो एक प्रॉजेक्ट ऐसा ऑफर किया गया, जिसके लिए वह स्वयं भी काफी उत्साहित थीं, लेकिन उसके लिए उन्हें काफी कम पैसे ऑफर किए गए।
सोनम ने ऑफर देने वाले को कॉल किया और कहा कि यह उनका अपमान है। आपने मुझे इस मुकाम तक पहुंचाया है कि मैं दस साल से इंडस्ट्री में हूं, मुझे नीरजा जैसी फिल्म दी गई, इसके बावजूद ऐसा क्यों है कि आपने मुझे इतना कम मेहनताना देने का फैसला किया? किसी ऐक्टर के साथ उनकी पिछली फिल्म अच्छी नहीं चल पाई। इस वजह से अभी उनके पास पैसों की कमी है। किसी अन्य ऐक्टर की फिल्म नहीं चल पाई इस वजह से आप मेरे पैसों में कटौती कर रहे हैं? मैंने उस प्रॉजेक्ट के लिए उन्हें किसी और को ढूंढ लेने के लिए कह दिया।
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गायिका सोना मोहपात्रा का कहना है कि फिल्म उद्योग की तरह अब संगीत उद्योग में भी महिला कलाकारों के साथ भेदभाव हो रहा है। बॉलीवुड फिल्मों के गीतों में पुरुष गायकों को ज्यादा तव्वजो दी जा रही है। गीतों में अगर महिला गायकों की आवाज होती भी है तो ज्यादातर में वह सहायक भमिका में होती है। आज कल फिल्मों में गायिकाओं के गीत भी कम बनते हैं अगर गायकों के सौ गीत बनते हैं तो गायिकाओं के मात्र दस-पांच। डूएट गानों में भी गायिका सिर्फ सहायक भूमिका में रहती है। जब लता जी और आशा जी का दौर था तब ये समस्या नहीं थी। इस मामले में कुछ साल पहले तक संगीत उद्योग में दोनों को बराबर जगह मिलती थी लेकिन अब इसमें काफी बदलाव आया है।
फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें अपनी पहचान बनाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी है। शुरुआत में लोगों ने सोना को आयटम सॉन्ग्स गाने की सलाह दी लेकिन उन्होंने मना कर दिया। जब वह फिल्म इंडस्ट्री में आई थीं तो लोगों ने उनसे कहा कि आपकी आवाज कर्कश है जोकि आइटम गानों के लिए सही है लेकिन उन्होंने उनकी बातों को अनसुना कर दिया। वह अगर उनकी बातें मान लेतीं तो शायद वह - मुझे क्या बेचेगा रूपैया, अंबरसरिया, नैना जैसे गीत नहीं गा पातीं।
ऐसे में ये बात तो पूरी तरह से समझ आती है, लैंगिक असमानता सिर्फ हमारे घरों के भीतर ही नहीं घरों के बाहर भी है और उस फिल्मी दुनिया में भी जहां सबसे ज्यादा महिला बराबरी की बात की जाती है।
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