समानांतर सिनेमा की वो लड़की जो चेहरे पर एक बड़ी-सी मुस्कान लेकर पैदा हुई थीं
भारतीय सिनेमा के नभमंडल में स्मिता पाटिल ऐसे ध्रुवतारे की तरह है जिन्होंने अपने सशक्त अभिनय से समानांतर सिनेमा के साथ-साथ व्यावसायिक सिनेमा में भी दर्शको के बीच अपनी खास पहचान बनायी। उन्होंने समानांतर सिनेमा के साथ ही कथित व्वसायिक सिनेमा कहे जानेवाली फिल्मों में भी अपना योगदान किया था।
वे महिलाओं के मुद्दों पर पूरी तरह से वचनबद्ध थीं और इसके साथ ही उन्होंने उन फिल्मों में काम करने को प्राथमिकता दी जो परंपरागत भारतीय समाज में शहरी मध्यवर्ग की महिलाओं की प्रगति उनकी कामुकता तथा सामाजिक परिवर्तन का सामना कर रही महिलाओं के सपनों की अभिव्यक्ति कर सकें।
अपने सांवले रंग के बावजूद उसका चेहरा यूं दमकता था जैसे बादलों के बीच चांद, लेकिन वो सांवली लड़की जीवन की सांझ आने से पहले ही सो गई। अपनी बड़ी-बड़ी खूबसूरत आंखों और सांवली-सलोनी सूरत से सभी को आकर्षित करने वाली अभिनेत्री स्मिता पाटिल ने महज 10 साल के करियर में दर्शकों के बीच खास पहचान बना ली। उनका नाम हिंदी सिनेमा की बेहतरीन अदाकाराओं में शुमार है। स्मिता को आज भी कोई कहां भूल पाया है।
भारतीय सिनेमा के नभमंडल में स्मिता पाटिल ऐसे ध्रुवतारे की तरह है जिन्होंने अपने सशक्त अभिनय से समानांतर सिनेमा के साथ-साथ व्यावसायिक सिनेमा में भी दर्शको के बीच अपनी खास पहचान बनायी। उन्होंने समानांतर सिनेमा के साथ ही कथित व्वसायिक सिनेमा कहे जानेवाली फिल्मों में भी अपना योगदान किया था। स्मिता की आवाज में एक अलग तरह की कशिश थी। उनकी आंखें भी खास थीं कई बार वो इनकी मदद से एक्टिंग में कमाल करती नजर आती थीं। स्मिता पाटिल अभिनीत फिल्मों पर यदि एक नजर डाले तो पायेगें कि पर्दे पर वह जो कुछ भी करती थी वह उनके द्वारा निभायी गयी भूमिका का जरूरी हिस्सा लगता है और उसमें वह कभी भी गलत नही होती थी ।
अपनी सौम्य मुस्कान और आंखों के गहरे धुंधलके के मध्य दमकता एक चेहरा, जब कला फिल्मों से कमर्शियल फिल्मों के बड़े से परदे पर नजर आया तो हर किसी ने उसे पड़ोस की सांवली सी लड़की के रूप में देखा, सराहा। भारतीय संदर्भ में स्मिता पाटिल एक सक्रिय नारीवादी होने के अतिरिक्त मुंबई के महिला केंद्र की सदस्य भी थीं। वे महिलाओं के मुद्दों पर पूरी तरह से वचनबद्ध थीं और इसके साथ ही उन्होंने उन फिल्मों में काम करने को प्राथमिकता दी जो परंपरागत भारतीय समाज में शहरी मध्यवर्ग की महिलाओं की प्रगति उनकी कामुकता तथा सामाजिक परिवर्तन का सामना कर रही महिलाओं के सपनों की अभिव्यक्ति कर सकें।
हमारा ये दुर्भाग्य रहा कि हमने महज 31 वर्ष की छोटी सी उम्र में हिंदी सिनेमा की सबसे संवेदनशील और प्रतिभाशाली अभिनेत्री को खो दिया। अपने सांवले रंग के बावजूद उसका चेहरा यूं दमकता था जैसे बादलों के बीच चांद, लेकिन वो सांवली लड़की जीवन की सांझ आने से पहले ही सो गई। अपनी बड़ी-बड़ी खूबसूरत आंखों और सांवली-सलोनी सूरत से सभी को आकर्षित करने वाली अभिनेत्री स्मिता पाटिल ने महज 10 साल के करियर में दर्शकों के बीच खास पहचान बना ली। उनका नाम हिंदी सिनेमा की बेहतरीन अदाकाराओं में शुमार है। स्मिता को आज भी कोई कहां भूल पाया है।
मनमोहक मुस्कान, चपल व्यक्तित्व-
अपने सशक्त अभिनय से मिसाल कायम करने वाली स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर, 1956 को पुणे में एक मराठी राजनीतिज्ञ परिवार में हुआ। उनके पिता शिवाजीराव पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री और मां विद्या ताई पाटिल सामाजिक कार्यकर्ता थीं। स्मिता का नाम रखे जाने के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। स्मिता शब्द का अर्थ होता है मुस्कान। जन्म के समय उनके चेहरे पर मुस्कान देखकर मां ने उनका नाम स्मिता रख दिया। यही मुस्कान आगे चलकर भी उनके व्यक्तित्व का सबसे आकर्षक पहलू बनी। स्मिता पाटिल अपने गंभीर अभिनय के लिए जानी जाती हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि फिल्मी पर्दे पर सहज और गंभीर दिखने वाली स्मिता असल जिंदगी में बहुत शरारती थीं। उनकी आरंभिक शिक्षा मराठी माध्यम के एक स्कूल से हुई थी। उनका कैमरे से पहला सामना टीवी समाचार वाचिका के रूप हुआ था। फिल्मों में आने से पहले स्मिता पाटिल बंबई दूरदर्शन चैनल पर मराठी में समाचार पढ़ा करती थीं। समाचार पढ़ने से पहले उनके लिए साड़ी पहनना जरूरी होता था, मगर स्मिता को तो जींस पहनना अच्छा लगता था, सो अक्सर समाचार पढ़ने से पहले वह जींस के ऊपर ही साड़ी लपेट लिया करती थीं।
सिनेमा को एक साथ मिले दो नायाब रत्न-
स्मिता पाटिल ने अपने छोटे से फिल्मी सफर में ऐसी फिल्में कीं, जो भारतीय फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर बन गईं। स्मिता के फिल्मी करियर की शुरुआत अरुण खोपकर की फिल्म 'डिप्लोमा' से हुई, लेकिन मुख्यधारा के सिनेमा में स्मिता ने 'चरणदास चोर' से अपनी मौजूदगी दर्ज की। इसके निर्देशक थे श्याम बेनेगल। श्याम बेनेगल को स्मिता पाटिल में एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया। भारतीय सिनेमा जगत में ‘चरण दास चोर’ को ऐतिहासिक फिल्म के तौर पर याद किया जाता है क्योंकि इसी फिल्म के माध्यम से श्याम बेनेगल और स्मिता पाटिल के रूप में कलात्मक फिल्मों के दो दिग्गजों का आगमन हुआ । श्याम बेनेगल ने स्मिता पाटिल के बारे मे एक बार कहा था कि मैंने पहली नजर में ही समझ लिया था कि स्मिता पाटिल में गजब की स्क्रीन उपस्थिती है और जिसका उपयोग रूपहले पर्दे पर किया जा सकता है। फिल्म चरण दास चोर हालांकि बाल फिल्म थी लेकिन इस फिल्म के जरिये स्मिता पाटिल ने बता दिया था कि हिंदी फिल्मों मे खासकर यथार्थवादी सिनेमा में एक नया नाम स्मिता पाटिल के रूप में जुड़ गया है। इसके बाद वर्ष 1975 मे श्याम बेनेगल द्वारा ही निर्मित फिल्म ‘निशांत’ मे स्मिता को काम करने का मौका मिला।
साल 1977 स्मिता पाटिल के सिने करियर में अहम पड़ाव साबित हुआ। इस वर्ष उनकी भूमिका और मंथन जैसी सफल फिल्मे प्रदर्शित हुई। दुग्ध क्रांति पर बनी फिल्म ‘मंथन’ में स्मिता पाटिल के अभिनय ने नये रंग दर्शको को देखने को मिले। इस फिल्म के निर्माण के लिये गुजरात के लगभग पांच लाख किसानों ने अपनी प्रति दिन की मिलने वाली मजदूरी में से दो-दो रूपये फिल्म निर्माताओं को दिये और बाद में जब यह फिल्म प्रदर्शित हुयी तो यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुयी। वर्ष 1977 में स्मिता पाटिल की ‘भूमिका’ भी प्रदर्शित हुयी जिसमें स्मिता पाटिल ने 30,40 के दशक में मराठी रंगमच की जुड़ी अभिनेत्री ‘हंसा वाडेकर’ की निजी जिंदगी को रूपहले पर्दे पर बहुत अच्छी तरह साकार किया था। मंथन और भूमिका जैसी फिल्मों मे उन्होंने कलात्मक फिल्मों के महारथी नसीरूद्दीन शाह ,शबाना आजमी ,अमोल पालेकर और अमरीश पुरी जैसे कलाकारो के साथ काम किया और अपनी अदाकारी का जौहर दिखाकर अपना सिक्का जमाने मे कामयाब हुयी।
समानांतर और व्यवसायिक, दोनों ही सिनेमा में सार्थक-
फिल्म भूमिका से स्मिता पाटिल का जो सफर शुरू हुआ वह चक्र, निशांत,आक्रोश ,गिद्ध,अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है और मिर्च मसाला जैसी फिल्मों तक जारी रहा। वर्ष 1980 में प्रदर्शित फिल्म चक्र में स्मिता पाटिल ने झुग्गी झोंपड़ी में रहने वाली महिला के किरदार को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया । अस्सी के दशक में स्मिता पाटिल ने व्यावसायिक सिनेमा की ओर भी अपना रूख कर लिया। उन्हें सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के साथ नमक हलाल और शक्ति जैसी फिल्मों में काम करने का अवसर मिला जिसकी सफलता ने स्मिता पाटिल को व्यावसायिक सिनेमा में भी स्थापित कर दिया। अस्सी के दशक में स्मिता पाटिल ने व्यावसायिक सिनेमा के साथ-साथ समानांतर सिनेमा में भी अपना सामंजस्य बिठाये रखा। इस दौरान उनकी सुबह,बाजार,भींगी पलकें,अर्थ,अर्द्धसत्य और मंडी जैसी कलात्मक फिल्में और दर्द का रिश्ता,कसम पैदा करने वाले की,आखिर क्यों ,गुलामी,अमृत,नजराना और डांस डांस जैसी व्यावसायिक फिल्में प्रदर्शित हुयी जिसमें स्मिता पाटिल के अभिनय के विविध रूप दर्शको को देखने को मिले।
1985 में स्मिता पाटिल की फिल्म मिर्च मसाला प्रदर्शित हुयी। सौराष्ट्र की आजादी के पूर्व की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म मिर्च मसाला ने निर्देशक केतन मेहता को अंतराष्ट्रीय ख्याति दिलाई थी। यह फिल्म सांमतवादी व्यवस्था के बीच औरत की संघर्ष की कहानी बयां करती है। यह फिल्म आज भी स्मिता पाटिल के सशक्त अभिनय के लिये याद की जाती है। हिंदी फिल्मों के अलावा स्मिता पाटिल ने मराठी,गुजराती,तेलगू,बंग्ला,कन्नड़ और मलयालम फिल्मों में भी अपनी कला का जौहर दिखाया। इसके अलावा स्मिता पाटिल को महान फिल्मकार सत्यजीत रे के साथ भी काम करने का मौका मिला। मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित टेलीफिल्म ‘सदगति’ स्मिता पाटिल अभिनीत श्रेष्ठ फिल्मों में आज भी याद की जाती है। उनकी मौत के बाद वर्ष 1988 में उनकी फिल्म ‘वारिस’ प्रदर्शित हुयी जो स्मिता पाटिल के सिने करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है।
स्मिता ने अपने 1974 से 1985 तक के करियर में कई उपलब्धियां हासिल कीं, उन्होंने 1985 में भारत सरकार द्वारा सम्मनित नागरिक पुरस्कर पद्म श्री से भी सम्मानित किया गया। उन्होंने 1977 में 'भूमिका', 1980 में 'चक्र' में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार हासिल किया। साथ ही उन्होंने 1978 में 'जैत रे जैत', 1978 में 'भूमिका', 1981 में 'उंबरठा', 1982 में 'चक्र', 1983 में 'बाजार', 1985 में 'आज की आवाज' के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। उनका फिल्मी सफर सिर्फ 10 साल का रहा है, लेकिन काम ऐसा कि आज भी वो चर्चा में रहता है। मुस्कान भरे चेहरे ने 13 दिसंबर, 1986 को महज 31 साल की उम्र में ही सबको अलविदा कह दिया। उनका निधन बेटे प्रतीक बब्बर को जन्म देने के दो सप्ताह बाद हुआ।
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