Brands
YSTV
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Yourstory
search

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

Videos

ADVERTISEMENT
Advertise with us

हिंदी आलोचना के प्रमुख नाम एवं प्रसिद्ध नाटककार प्रभाकर श्रोत्रिय

'इला' में हमारे समय की स्त्री का दुख-द्वंद्व

हिंदी आलोचना के प्रमुख नाम एवं प्रसिद्ध नाटककार प्रभाकर श्रोत्रिय

Sunday September 17, 2017 , 4 min Read

यशस्वी साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। उनका बचपन अभावों से भरा हुआ रहा। पिता की मृत्यु बचपन में ही हो जाने के कारण उन्हें काफी कष्टों से दिन बिताने पड़े।

प्रभाकर श्रोत्रिय (फाइल फोटो)

प्रभाकर श्रोत्रिय (फाइल फोटो)


जब भी उनकी नाट्यकृतियों का उल्लेख आता है, उनसे एक प्रकट संदेश यह आता है कि उनके शब्दों में स्त्री अस्मिता का प्रश्न सबसे बड़ा था। उनकी नाट्य-कृति 'इला' हमारे समय के स्त्री-संघर्ष के गहरे तक रेखांकित करती है। 

 आलोचना से परे भी साहित्य में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। उन्होंने नाटक तो कम ही लिखे लेकिन जो भी लिखे, आज भी चर्चाओं में हैं। 'इला', 'साँच कहूँ तो', 'फिर से जहाँपनाह' आदि उनकी नाट्य कृतियां रही हैं।

हिंदी आलोचना के प्रमुख नाम एवं प्रसिद्ध नाटककार प्रभाकर श्रोत्रिय आज (17 सितंबर) ही के दिन अपने अनगिनत चाहने वाले साहित्य-सुधी जनों को छोड़कर इस दुनिया से चले गए थे। लंबे समय से बीमार श्रोत्रिय का वर्ष 2016 में 76 साल की उम्र में दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में निधन हो गया था। उनकी पहली पुण्यतिथि के दुखद अवसर पर उनकी प्रखर रचनाधर्मिता यह संदेश देती है कि उनका पार्थिव शरीर भले हमारे बीच न हो, उनके शब्द उनकी उपस्थिति से हिंदी साहित्य को गौरवान्वित करते रहेंगे।

यशस्वी साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। उनका बचपन अभावों से भरा हुआ रहा। पिता की मृत्यु बचपन में ही हो जाने के कारण उन्हें काफी कष्टों से दिन बिताने पड़े। जीवन से जूझते हुए साहित्य की लगभग सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलाई। आलोचना हो निबंध, संपादन हो या नाट्य-रचनाकर्म, उनकी महारत से शायद ही कोई हिंदी साहित्य प्रेमी अपरिचित हो। आलोचना से परे भी साहित्य में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। उन्होंने नाटक तो कम ही लिखे लेकिन जो भी लिखे, आज भी चर्चाओं में हैं। 'इला', 'साँच कहूँ तो', 'फिर से जहाँपनाह' आदि उनकी नाट्य कृतियां रही हैं।

इनके अलावा पर आलोचना पर केंद्रित उनके साहित्य में 'सुमनः मनुष्य और स्रष्टा', 'प्रसाद को साहित्यः प्रेमतात्विक दृष्टि', 'कविता की तीसरी आँख', 'संवाद', 'कालयात्री है कविता', 'रचना एक यातना है', 'अतीत के हंसः मैथिलीशरण गुप्त', जयशंकर प्रसाद की प्रासंगिकता'. 'मेघदूतः एक अंतयात्रा, 'शमशेर बहादुर सिंह', 'मैं चलूँ कीर्ति-सी आगे-आगे' आदि को रेखांकित किया जाता है। उन्होंने 'हिंदीः दशा और दिशा', 'सौंदर्य का तात्पर्य', 'समय का विवेक' आदि निबंधात्मक पुस्तकों की भी रचना की।

प्रभाकर श्रोत्रिय ने कई एक महत्वपूर्ण पुस्तकों का संपादन भी किया, जिनमें 'हिंदी कविता की प्रगतिशील भूमिका', 'सूरदासः भक्ति कविता का एक उत्सव, प्रेमचंद- आज', 'रामविलास शर्मा- व्यक्ति और कवि', 'धर्मवीर भारतीः व्यक्ति और कवि', 'भारतीय श्रेष्ठ एकाकी (दो खंड), कबीर दासः विविध आयाम, इक्कीसवीं शती का भविष्य नाटक 'इला' के मराठी एवं बांग्ला अनुवाद तथा 'कविता की तीसरी आँख' का उन्होंने अंग्रेज़ी अनुवाद भी किया। वह मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के सचिव और भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली के निदेशक के साथ ही 'साक्षात्कार', 'वागर्थ' और 'अक्षरा' जैसी हिंदी पत्रिकाओं के संपादक भी रहे। उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार, मध्य प्रदेश के आचार्य नंददुलारे वाजपेयी पुरस्कार, शारदा सम्मान, केडिया पुरस्कार, समय शिखर सम्मान, श्रेष्ठ कला आचार्य, बिहार सरकार के रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार आदि से समादृत किया गया था।

जब भी उनकी नाट्यकृतियों का उल्लेख आता है, उनसे एक प्रकट संदेश यह आता है कि उनके शब्दों में स्त्री अस्मिता का प्रश्न सबसे बड़ा था। उनकी नाट्य-कृति 'इला' हमारे समय के स्त्री-संघर्ष के गहरे तक रेखांकित करती है। नाटककार के शब्दों में ‘यह कहानी अनादि काल से हो रहे स्त्री के अपहरण, उसके साथ बलात्कार और उसके लिए जातियों के परस्पर युद्धों की कहानी है।’ यह एक मिथकीय नाट्यकृति है, जिसमें मनुष्य की समकालीन नियति को रेखांकित किया गया है। हमारे समाज में स्त्री की शक्ति, इच्छा, सुख और उसका अस्तित्व किस प्रकार पुरुष प्रधानता की भेंट चढ़ता है, इसी विषय के बखूबी चित्रित किया गया है।

इस नाटक में मनु पुत्र कामेष्टि यज्ञ करता है परन्तु श्रद्धा एक पुत्री को जन्म देती है। मनु का मन इससे खिन्न हो जाता है। गुरु वशिष्ठ मनु के कहने पर पुत्री इला को पुत्र सुद्युम्न बनाते हैं। श्रद्धा न चाहते हुए भी स्वीकृति दे देती है। इला से सुद्युम्न बना पुत्र युवा हो जाता है। सुद्युम्न का विवाह धर्मदेव की पुत्री सुमति से करवा दिया जाता है। परन्तु सुद्युम्न का मन नारी सुलभ गुणों से युक्त रहता है। मनु सब जानते हुए भी उसे पूर्ण पुरुष के रूप में देखना चाहते हैं। राज्याभिषेक के उपरान्त सुमति सुद्युम्न को राज्य रक्षा के लिए प्रेरित करती है। शरवन वन में वह पुन: इला बन जाता है। इला का विवाह बुध के साथ हो जाता है परन्तु गुरु वशिष्ट द्वारा पुन: उसे सुद्युम्न बनाया जाता है। सुद्युम्न राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास करता है और साथ ही अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित होता है। अन्त में इला पुत्र पुरुरवा के राज्याभिषेक की तैयारी पर नाटक समाप्त हो जाता है।

यह भी पढ़ें: मुक्तिबोध, एक सबसे बड़ा आत्माभियोगी कवि