पीएम मोदी से आख़िर क्या मांग रही है आठवीं क्लास की यह मासूम-सी ख़ुलदा!
देश में क्यों बद से बद्तर हो रही है शिक्षा व्यवस्था?
ख़ुलदा की मां तस्वीर बानो रो रही हैं। स्कूल वालों ने अल्टीमेटम दे दिया है कि आठवीं के बाद अपनी बेटी ख़ुलदा का कहीं और एडमिशन करा लो, क्योंकि नौवीं क्लास से उसको निःशुल्क पढ़ाई की सुविधा नहीं मिलेगी। ऐसे में सीधे पीएम नरेंद्र मोदी से गुहार लगाने के अलावा ख़ुलदा को और कोई विकल्प नहीं सूझा।
नीति आयोग कहना है कि इस समय हमारे देश के 11.85 लाख स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है। दूरदराज के स्कूलों में एक-एक शिक्षक पूरा स्कूल चला रहे हैं। ऐसे हालात में घुड़सवारी, स्विमिंग और फ़ुटबॉल खेलने वाली तेरह साल की एक बच्ची ख़ुलदा ने राइट टू एजुकेशन एक्ट के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पढ़ाई के लिए मदद मांगी है।
देश के एक मशहूर निजी स्कूल में पढ़ रही ख़ुलदा बड़ी होकर पीवी सिंधु की तरह बैडमिंटन खिलाड़ी बनना चाहती है। वैसे तो ये क़ानून कमज़ोर वर्ग के बच्चों को निजी स्कूलों में मुफ़्त में शिक्षा का हक़ देता है लेकिन अब इसी क़ानून की वजह से ख़ुलदा को अपना भविष्य संकटग्रस्त होता दिख रहा है क्योंकि आठवीं क्लास के बाद ऐसे बच्चों की फीस परिजनों को चुकानी पड़ती है।
ख़ुलदा बताती है कि वह आठवीं क्लास में पढ़ रही है। अगर अगले साल उसके स्कूल ने अन्य अन्य बच्चों की तरह फ़ीस मांगी तो उसकी मां तस्वीर बानो उसे स्कूल जाने से रोक सकती हैं क्योंकि उसके पास इतने पैसे नहीं।
अपने भारी-भरकम बजट के बावजूद देश के ज्यादातर राज्य स्कूली शिक्षा से किस तरह बेपरवाह बने हुए हैं, इसका सच अभी कल ही नीति आयोग की ताज़ा रिपोर्ट से सामने आ गया है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) अमिताभ कांत और मानव संसाधन विकास स्कूली शिक्षा सचिव रीना रे की मौजूदगी में केंद्र सरकार की ओर से पहला स्कूली शिक्षा सूचकांक जारी किया गया है, जिसमें पहले स्थान पर केरल, दूसरे पर राजस्थान और तीसरे पर नंबर कर्नाटक बताया गया है।
बीस बड़े राज्यों की इस सूची में आबादी के लिहाज से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश अंतिम स्थान पर है। लगातार सुधार की रैंकिंग में हरियाणा पहले, असम दूसरे और उत्तर प्रदेश तीसरे नंबर पर तथा छोटे राज्यों की संपूर्ण प्रदर्शन श्रेणी में मणिपुर शीर्ष पर, त्रिपुरा दूसरे गोवा तीसरे स्थान पर और इंक्रिमेंटल परफॉर्मेंस रैंकिंग में मेघालय का पहला नंबर आया है।
कस्तूरीरंगन कमेटी का बारहवीं तक फ्री एजुकेशन संबंधी नया ड्राफ़्ट मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सौंप दिए जाने के बावजूद, केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल कहते हैं कि सरकार शिक्षा के अधिकार में दिए गए प्रावधानों में बदलाव पर विचार कर रही है और ख़ुलदा की मां रोती हुई कहती है कि बेटी के स्कूल वालो ने अल्टीमेटम दिया है, वह अगले साल से 'तूबा' को कहीं और उसे पढ़ाने की व्यवस्था कर लें। खुलदा के प्यार का नाम है तूबा। वह स्कूल से निकाल दी गई तो पढ़ाई बंद हो जाएगी। इसी संकट से बचाने के लिए तूबा ने पीएम से गुहार लगाई है।
अंदर की सचाई तो ये है कि भारत में जब बजट का आवंटन होता है तो एजुकेशन सेक्टर को 12वें पायदान पर रख दिया जाता है। इससे भारतीय सियासत की संवेदना का पता चलता है। एनुअल सर्वे ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट 'असर 2017' के मुताबिक़, हमारे देश में तूबा जैसी लगभग 40 फ़ीसदी बच्चियां 14 साल की उम्र के बाद स्कूल छोड़ देने को विवश होती हैं, जबकि 'शिक्षा का अधिकार' क़ानून के अनुसार, देश के हर बच्चे को फ्री एजुकेशन का हक हासिल है। इसका अक्सर ढिंढोरा भी पिटता रहता है कि देखो न भारत में बच्चों की पढ़ाई का कितना ध्यान रखा जा रहा है।
एक और कड़वी सचाई देश के नौनिहालों के भविष्य से खेल रही है। अदालत ने जब फरमान सुनाया कि अगर किसी भी सरकारी अधिकारी या नेता के बच्चे निजी स्कूल में पढ़ेंगे तो उनसे जुर्माना वसूला जाएगा, तो इसके खिलाफ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से इस आदेश के ख़िलाफ़ स्टे ले लिया।
ऐसे केस लड़ चुके दिल्ली हाई कोर्ट के वकील अशोक अग्रवाल तो कहते हैं कि 'राइट टू एजुकेशन' एक्ट देश के बच्चों के साथ भद्दा मज़ाक बनकर रह गया है। शायद इसी तरह की वजहों से ख़ुलदा जैसे बच्चे सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ना चाहते हैं। ख़ुलदा कहती है, पीएम मोदी को उसके जैसी तमाम बच्चियों की फ़ीस माफ़ कर देनी चाहिए।
दूसरी तरफ, सरकार ने एजुकेशन सेक्टर पर अपना ख़र्च 38,607 करोड़ रुपए से घटाकर इस साल 37 हज़ार करोड़ कर दिया है। सवाल उठता है कि ऐसे में पीएम मोदी तूबा की गुहार सुन भी लें तो देश के ऐसे बाकी नौनिहालों के भविष्य का क्या होगा!