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ढाई दशक में बारूद घर बन चुकी दुनिया की 10% प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएंगी!

जलवायु संरक्षण: 7

ढाई दशक में बारूद घर बन चुकी दुनिया की 10% प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएंगी!

Tuesday October 01, 2019 , 5 min Read

एक सवाल इस समय पूरी दुनिया का पीछा कर रहा है कि क्या सचमुच ये कायनात इंसानों की ज़िद को अपने ऊपर पर हावी हो जाने देगी! हैरत है कि कुदरत की सबसे सुंदर इबारत इंसान, जिसने अपनी ही दुनिया को बारूद घर बना डाला है। हवा में ज़हरीला घनत्व बढ़ता जा रहा है। वन्य जैव प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं।

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सांकेतिक फोटो (Shutterstock)




बापू ने कहा था,


'प्रकृति में प्रत्येक की जरूरत पूरी करने की क्षमता है, लेकिन किसी एक के लालच के लिए नहीं।' और आज ग्रेटा भी भला गलत क्या कह रही है कि आज की दुनिया चलाने वाले, बच्चों के कल का भविष्य छीन रहे हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् जान मुईर न जाने कब का कह चुके हैं- 'ईश्वर ने वृक्षों को सम्भाला, उन्हें सूखे से, रोगों से, जलजलों से और तूफानों से बचाया, पर वह इन्हें दुनियादार किस्म के मूर्खों से नहीं बचा सकता।'


एक सवाल इस समय पूरी दुनिया का पीछा कर रहा है कि क्या सचमुच ये कायनात इंसानों की ज़िद को अपने ऊपर पर हावी हो जाने देगी, जो ऊंचे पहाड़ों, दूधिया ग्लेशियरों, वन्य प्राणियों से गुलजार जंगलों, झरनों, असंख्य परिंदों, फूलों-तितलियों से पटी घाटियों, नदियों, झीलों और चांद, सूरज, सितारों से रोशन असीम आसमान तक आच्छादित है। हैरत है कि इसी कायनात में, कुदरत की सबसे सुंदर इबारत इंसान, जिसने अपनी ही दुनिया को बारूद घर बना डाला है, पूरी प्रकृति थर्रा उठी है, हवाओं का दम घुट रहा है। 





कायनात तो मनुष्य की कल्पना के परे एक शानदार और भव्य सृष्टि है। चाहे किसी टेलिस्कोप से देखिए या माइक्रोस्कोप से, जितनी गहराई में जाकर देखने की कोशिश करो, यह भव्यता लगातार और व्यापक होती हुई जान पड़ेगी। यह इतनी शानदार है, जितनी कोई सोच भी नहीं सकता।


अगर कोई एक पत्ते का चित्र वैसा ही बना दे, जैसा वह है, तो वह भी एक महान रचना बन जाती है। अरबों, खरबों पत्ते हैं। क्या कोई भी दो पत्ता एक जैसा नजर आता है? नहीं न? दरअसल, कोई भी अणु किसी दूसरे के जैसा नहीं हो सकता। इसलिए प्रकृति की हर चीज विशिष्ट है। किसी ने कहा कि चलो सारी कायनात का बटवारा कर लेते हैं, तुम सिर्फ मेरे, बाकी सब तुम्हारा, बशर्ते कि उसे अच्छी तरह सहेज कर बचाए रख पाओगे। अब इस कायनात के उजड़ने की, महाविनाश की पदचाप सुनाई दे रही है। 


विश्व संसाधन संस्थान, वाशिंगटन के मुताबिक, जैव विविधता विलोपन के भविष्य के सारे अनुमान इस गणित पर आधारित हैं कि यदि किसी वन्य जीव के प्राकृतिक वास को 70 प्रतिशत कम कर दिया जाये तो वहाँ निवास करने वाली 50 प्रतिशत प्रजातियाँ विलोपन की स्थिति में पहुँच जायेंगी। विलोपन के इसी भूगोल से ज्ञात होता है कि यदि विनाश की गति यथावत रही तो आने वाले 25 वर्षों में 10 प्रतिशत प्रजातियाँ पृथ्वी पर विलुप्त हो जायेंगी। इसका सबसे बड़ा कारण होगा कटिबन्धी वनों का विनाश।





लगभग 75,000 प्रजातियों की जैव सम्पदा और 45 हजार वनस्पतियों से समृद्ध भारतीय उपमहाद्वीप में कश्मीरी महामृग, नीलगाय, चीतल, कृष्णमृग, एक सींग वाला गैंडा, सांभर आदि वन्य जीवों की कुछ ऐसी दुर्लभ प्रजातियाँ हैं, जो विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं। इनकी आबादी पूरे विश्व की 40 प्रतिशत है। औद्योगिकीकरण और बारूदी जखीरे से जलवायु आपदा उनकी जान से खेल रही है। 


प्राकृतिक कारणों से वन्य प्रजातियों का समाप्त होना एक धीमी प्रक्रिया थी परन्तु जब से बंदूक का आविष्कार हुआ है, वन्य जीवन पर कहर टूट पड़ा है। रही सही कसर दुनिया वाले औद्योगिक विकास, रासायनिक कृषि से पूरी कर रहे हैं। ‘राष्ट्रीय प्राकृतिक संग्रहालय’, दिल्ली की पुस्तिका 'वर्ल्ड ऑफ मैमल्स' में संग्रहित आँकड़े बता रहे हैं कि भारत में स्तनपायी वन्य जीवों की 81 प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं।


कश्मीरी हिरणों की संख्या घटकर 350, गैंडों की 8,000 से भी कम, शेरों की 2,000 रह गई है।  सबसे ज्यादा काले और सफेद तेंदुए संकट में है। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि पृथ्वी पर लगभग 300 लाख प्रजातियों के जीव-जन्तु तथा पेड़-पौधे हैं। अभी तक इनमें से केवल 15 लाख का ही पता लगाकर उनका विवरण तैयार किया जा सका है। इनमें से 724 प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और 22,530 प्रजातियाँ जलवायु आपदा और इंसानों के कहर से विलुप्त हो रही हैं। रिसर्च के मुताबिक प्रति बीस वर्ष में प्रत्येक दस में से एक पार्थिव प्रजाति विलुप्त हो जा रही है।

 




वैज्ञानिकों के मुताबिक, पेड़-पौधों की लगभग 25,000 प्रजातियाँ और रीढ़दार जानवरों, रेंगने वाले प्राणियों, पक्षी तथा स्तनपायी जीवों की लगभग 9,000 प्रजातियाँ निकट भविष्य में विलुप्त होने वाली हैं। विनाशकों के भयावह तांडव के आगे, जीवजन्तुओं और वनस्पतियों के संरक्षण के लिए 1879 में बना 'वाइल्ड एलीफेन्ट प्रोटेक्शन एक्ट', 'इण्डियन बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ' अथवा 1973 में बनी 'कनवेंशन ज्ञान इण्टरनेशनल ट्रेड एण्ड एडेंजर्ड स्पीशीज ऑफ वाइल्ड फॉना एण्ड फ्लोरा', ‘वन्य जीव परिरक्षण संगठन’, ‘वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972’ आदि बेमानी से होकर रह गए हैं। अब ‘मैन एण्ड बायोस्फेयर प्रोग्राम’ के साथ ही भारतीय वन्य जीव परिषद ने भारत के 54 राष्ट्रीय वन्य उद्यानों, 26 बड़े अभयारण्यों एवं 160 वन्य जीव संरक्षितियों की वन्य प्रजातियों को तुरन्त संरक्षण प्रदान करने का सुझाव दिया है।


हमारी धरती की सतह का 71 फीसदी और जीवमंडल का 90 फीसदी हिस्सा समुद्र है। करीब 4.4 अरब वर्षों से कार्बन चक्र में पृथ्वी को 50 से 80 फीसदी ऑक्सीजन उसी से मिलता आ रहा है। सागरों में कम से कम 230,000 ज्ञात जीव रहते हैं। छिछली गहराइयों में कई तरह की दुर्लभ वनस्पतियां हैं लेकिन इंसानों से संपर्क की कीमत सागरों ने भी चुकाई है। दुनिया के सागर क्षेत्र का महज 13 फीसदी इलाका ही ऐसा बचा रह गया है, जहां इंसानी गतिविधियां नहीं चल रही हैं।


तटवर्ती इलाकों से लगते क्षेत्रों में तो अब कोई बियाबान बचा ही नहीं है। एक ताजा रिसर्च के मुताबिक, मछली, घोंघा और केकड़ों की स्थानीय आबादी धरती पर लुप्त हो रहे जीवों की तुलना में दोगुनी तेजी से गायब हो रही है। उधर आर्कटिक सागर के तल के पर्माफ्रॉस्ट से निकलने वाली मीथेन गैस अम्लीयता का अपना अलग ही असर दिखा रही है। 


('जलवायु संरक्षण' सीरीज़ का यह सातवां और अंतिम लेख है। सीरीज़ के बाकी लेख भी पढ़ें योरस्टोरी हिंदी पर )