वो नायाब खब्ती शख्स जब भी सफर पर जाता, चार सौ ऊंटों पर लदकर उसकी दो लाख किताबें साथ जातीं
दुनिया भर के इतिहास में दर्ज क्रूर आक्रान्ताओं का इतिहास गवाह है कि उन्हें जहां-जहां तबाही करनी थी, सबसे पहले वहां के पुस्तकालयों को बर्बाद किया.
किताबों से मोहब्बत नहीं करते तो आगे न पढ़ें.
फ़र्ज़ कीजिये, दो-तीन दिन के लिए दूसरे शहर आए हैं. रात को होटल या किसी अजनबी ठिकाने पर नए बिस्तर पर लेटते हुए आपके मन में अचानक एक ख़ास किताब को पलटने-पढ़ने की विकट इच्छा उमड़ आती है, जो आपके कमरे में रखी है. आप जानते हैं इस इच्छा का पूरा होना असंभव है.
आप उस किताब को कई बार पढ़ चुके हैं. उसकी जिल्द और आकार को भली तरह पहचानते हैं. उसके कागज़ का टेक्सचर आपका इतना परिचित है कि आप अँधेरे में भी सैकड़ों किताबों के बीच से उसे छूकर निकाल सकते हैं. आपको पता है, आप सबसे पहले उसके पेज नंबर 74 पर जाएंगे, जिसमें लिखी कुछ पंक्तियाँ आपको याद आई हैं.
हो सकता है आप उसके बाद किसी और किताब के यादगार सातवें अध्याय को सौवीं से ज्यादा दफा पूरा का पूरा पढ़ जाएं. हो सकता है आप उन दो-चार पंक्तियों को पढ़ने के बाद किसी को याद करते हुए भावुक हो जाएं और किसी तीसरे-चौथे शख्स से फोन पर अगले डेढ़ घंटे तक बतियाते रहें.
हो तो यह भी सकता है कि आप उस किताब को निकालने के बाद खोलें ही नहीं और उसे एक तरफ रखकर सबसे ऊपर की शेल्फ से उस मोटी किताब को निकालने के लिए स्टूल पर चढ़ जाएं, जो तीन दफा पढ़ी जा चुकी आपके प्रिय सिनेमा निर्देशक की जीवनी है. हो सकता है आप किसी फिल्म का स्क्रीनप्ले पढ़ना शुरू करें और उसके आमुख में ही आये किसी दूसरे नाम को पढ़कर पुर्तगाल के किसी लेखक का उपन्यास निकाल लें. हो सकता है आप मेंहदी हसन की गजलें सुनने लगें. हो सकता है, आप इनमें से कुछ भी न करें और उस
किताब को सिरहाने रख, बत्ती बुझाकर सो जाएं. आपके साथ ऐसा कभी नहीं हुआ है तो आगे न पढ़ें.
अपनी इकठ्ठा की हुई सारी प्रिय किताबें मुझे हमेशा अपने घर में ही मिलती हैं. यात्राओं की लम्बाई के हिसाब से मेरे सामान में एक-दो से लेकर दस-बारह तक किताबें अवश्य होती हैं. इनसे अधिक किताबें साथ ले जा सकना अव्यवहारिक होने के साथ-साथ खर्चीला भी साबित होता है. किसी भी यात्रा के बाद घर लौटते हुए मुझे सबसे ज्यादा इन्तजार अपनी किताबों के साथ होने का होता है. इस लिहाज से वे मेरे लिए किसी भी प्रेमिका या दोस्त या माँ से ज्यादा जरूरी हैं.
दसवीं शताब्दी के ईरान में एक आदमी हुआ साहिब इब्न अब्बाद. कहीं कहीं उसे अब्दुल कासिम इस्माइल भी बताया जाता है जो कि गलत है. तो ये साहब बाकायदा खानदानी प्रशिक्षित सेक्रेटरी थे. बादशाह रुक्नुद्दौला के वजीर रहे इनके पिता तब अल्लाह के प्यारे हो गये थे, जब इब्न अब्बाद कुल आठ बरस के थे. पिता के एक दूसरे वजीर दोस्त ने इनकी परवरिश का जिम्मा सम्हाला और इन्हें ट्रेनिंग दी. बड़े होने पर इन्हें बादशाह रुक्नुद्दौला के तीसरे बेटे मुअय्यदुद्दौला का वजीर नियुक्त किया गया. राजकुमार मुअय्यदुद्दौला के हमउम्र होने के कारण दोनों की गहरी छनने लगी और जब 975 ईस्वी में मुअय्यदुद्दौला बादशाह बना तो उसने साहिब इब्न अब्बाद को अपना प्रमुख वजीर नियुक्त किया. 18 साल बाद हुई अपनी मौत तक ये जनाब इसी पद पर बने रहे.
साहिब इब्न अब्बाद का नाम इतिहास में एक कुशल लेखक और साहित्य-संरक्षक के तौर पर बहुत इज्जत से लिया जाता है. करीब पांच सौ से ज्यादा कवि-लेखकों-दार्शनिकों को आर्थिक सहायता और राजकीय संरक्षण देने वाले साहिब इब्न अब्बाद ने अपने कार्यकाल में मुअय्यदुद्दौला के दरबार को समूचे अरब संसार में ज्ञान और दर्शन का सबसे नामी-गिरामी सेंटर बना दिया था. धार्मिक कट्टरता का विरोध करने वाले इस आदमी का पुस्तक प्रेम ऐसा असाधारण था कि उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती.
साहिब इब्न अब्बाद ने अपनी विशाल व्यक्तिगत लाइब्रेरी बना रखी थी. कई भाषाओं के जानकार और अच्छे कवि साहिब इब्न अब्बाद बहुत ज्ञानी आदमी थे और एक अनुमान के मुताबिक़ उनकी पूरी लाइब्रेरी में डेढ़ से दो लाख तक किताबें थीं.
काम के सिलसिले में उन्हें कभी-कभार लम्बे दौरों पर जाना होता था. ये जनाब अपनी पूरी की पूरी लाइब्रेरी साथ लिए बिना कहीं नहीं जाते थे. उनकी किताबों को ले जाने के लिए चार सौ ऊंटों की एक टुकड़ी नियुक्त थी. इनमें से साठ ऊंटों पर केवल शब्दकोष लदे होते थे. दस किताबों का तो लाइब्रेरी-कैटेलॉग था. उनकी सवारी के पीछे चलने वाला ऊंटों का यह काफिला एक मील लंबा होता था.
इन चार सौ ऊंटों को इस तरह ट्रेनिंग दी गयी थी कि वे अल्फाबेटिकल क्रम में चलते थे. ऐसी ही ट्रेनिंग पाए उनके ऊंटवान लाइब्रेरियनों में तब्दील हो गए थे, जो मालिक द्वारा मांगे जाने पर मिनट से पहले कोई भी किताब हाजिर कर देते थे.
साहिब इब्न अब्बाद की इस आदत को बहुत सारे लोग फिजूलखर्ची या खब्त भी कह सकते हैं, लेकिन सच यह है कि वह एक ऐसा दूरदर्शी आदमी था जिसने इतिहास के सारे जरूरी सबक याद कर लिए थे.
दुनिया भर के इतिहास में दर्ज क्रूर आक्रान्ताओं का इतिहास गवाह है कि उन्हें जहां-जहां तबाही करनी थी, सबसे पहले वहां के पुस्तकालयों को बर्बाद किया.
साहिब इब्न अब्बाद का समय ईरानी इतिहास का ख़ासा उथल-पुथल भरा समय था. इस लिहाज से उसे अपने पुस्तक-संग्रह की कीमत पता थी और वह उस पर किसी भी तरह का ख़तरा नहीं आने देना चाहता था. उसने अपनी सारी किताबों को सोते-जागते, हमेशा अपने साथ रखा –वतन में भी, सफ़र में भी.
हालांकि आज दुनिया भर की बड़ी लाइब्रेरियां अपनी सारी किताबों को दुनिया भर में उपलब्ध करवा रही हैं और कम्प्यूटर और इंटरनेट उनके-हमारे ऊंट बन चुके हैं, लेकिन अपने शहर से 100 किलोमीटर दूर, एक दोस्त के घर में, आधी रात के बाद के इस पहर मुझे अपने घर पर रखे उस पुराने दीवान की याद आ रही है जिसके पन्ने पीले पड़ चुके हैं. उसके पेज नंबर 74 के सबसे ऊपर एक घिसा हुआ शेर दर्ज है. वह मुझे दसियों बरस से रटा हुआ है.
मुझे उसे उसी किताब में पढ़ना है.
Edited by Manisha Pandey