मानसिक रूप से बीमार लोगों का इलाज कर उन्हें सहारा देने वाले डॉक्टर से मिलिए
7,000 लोगों के लिए 'धरती का भगवान' हैं डॉ भरत वाटवानी
'रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड' से सम्मानित मुंबई के डॉ भरत वाटवानी को वे लोग 'धरती का भगवान' मानते हैं, जिन्हें विक्षिप्तावस्था में सड़कों पर भटकना पड़ा था। डॉ वाटवानी का 'श्रद्धा फाउंडेशन' ऐसे सात हजार से अधिक लावारिस बदनसीबों को निःशुल्क आश्रय, दवा-इलाज के बाद उनके घरों तक पहुंचा चुका है।
मानसिक संतुलन खो बैठना ही उनकी जिंदगियों के साथ सबसे क्रूर मजाक होता है। स्वस्थ कर उनकी जिंदगियां भी सामान्य ढर्रे पर लाई जा सकती है। फिर तो उन्होंने इस काम को अपनी जिंदगी का पहला और आखिरी मकसद बना लिया।
मुंबई के डॉ भरत वाटवानी को एशिया के 'नोबेल' पुरस्कार कहे जाने वाले 'रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड' से सम्मानित किया गया है। आज उनकी शख्सियत को पूरी दुनिया सलाम कर रही है। उनका काम ही कुछ ऐसा रहा है - सड़क पर भीख मांगने वाले हजारों मानसिक रोगियों का इलाज ही नहीं करना, बल्कि उन्हे उनके घर तक पहुंचाना। डॉ वटवानी कहते हैं - 'सवाल मेरे व्यक्तिगत सम्मान का नहीं है। इस पुरस्कार का महत्व इस बात में है कि इससे मानसिक रोगियों पर लोगों का फोकस बढ़ेगा। उनका शिकार होकर दर-दर भटक रहे गरीब-गुरबों, बेघरबारों, अनाथों और बेसहारों के दुख-दर्द के बारे में समाज में जागरूकता बढ़ेगी। निश्चित रूप से भारत में मानसिक रोगों के प्रति जागरूकता बढ़ी है, पर अब भी यह जिस स्तर पर होनी चाहिए, नहीं है। ऐसे रोगियों को अब भी हिकारत से देखा जाता है। यहां तक कि परिवार के सदस्य भी उन्हें उतनी सहानुभूति नहीं देते, जिसकी उन्हें अपेक्षा है।'
वह बताते हैं कि 'बाबा आम्टे से मुलाकात के बाद मैंने मनोरोगियों के लिए पुनर्वास केंद्र खोलने का फैसला किया, जिसके लिए मेरी पत्नी ने मेरा पूरा साथ दिया। दरअसल बाबा आम्टे को रोगियों की सेवा करते देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं था। रोगियों से उनका भावनात्मक जुड़ाव चरम पर था। सेवा का ऐसा उदाहरण मैंने पहले कभी नहीं देखा था। कुष्ठ और मानसिक रोगियों के लिए ताउम्र काम करने वाले बाबा आम्टे मेरे प्रेरणास्रोत हैं।'
डॉ वाटवानी बताते हैं कि 'सन् 1991 में उन्होंने 'श्रद्धा फाउंडेशन' की स्थापना की। उसके बाद से अभी तक उन्होंने सात हजार से अधिक मानसिक रोगियों को उनके परिवारों को मिलवाया है। अभी उनके रिहैबिलिटेशन सेंटर में 74 पुरुष और 50 महिलाएं हैं। यहां इनका इलाज होता है, खाना-पीना दिया जाता है और इनकी देखभाल की जाती है। मनोरोगियों को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए कई दफे मुझे अदालती लड़ाई लड़नी पड़ी। हजारों मनोरोगियों को ठीक करके उनके पुनर्वास की व्यवस्था करने के साथ मैंने तमाम बच्चों तक को उनके परिवारों से मिलाया। जिंदगी के इस पड़ाव में अब कुछ नया करने का विचार तो नहीं है, पर यह जरूर है कि मैं किसी भी व्यक्ति, जो इस दिशा में काम करना चाहता है, की मदद करना चाहता हू्ं।'
यद्यपि 1988 से चिकित्सारत लेकिन सुव्यवस्थित तरीके से वर्ष 1991 से इस चुनौतीपूर्ण सफर पर चल पड़े वाटवानी दंपत्ति पिछले लगभग तीन दशक से मुंबई महानगर से सटे कर्जत जिले में स्थित श्रद्धा फाउंडेशन के रिहैबिलिटेशन सेंटर को अपनी साधना स्थली बनाए हुए हैं। आज हमारे देश में वह अपना दिमागी संतुलन खो बैठे लोगों के 'भगवान' है। पत्नी स्मिता के साथ चिकित्सा के पेशे में उतरने के बाद डॉ. भरत वाटवानी ने जब पहली बार उलझे बालों, गंदे-फटे कपड़ों वाले एक नौजवान को मुंबई के एक रेस्टोरेंट के बाहर नारियल के खोपरे में नाली का पानी पीते देखा था, उनका मन करुणा से भर उठा था। उन दिनो यह चिकित्सक दंपति पांच बेड का एक छोटा सा क्लीनिक चलाया करते थे। पति-पत्नी उस दिन उस युवक को अपने क्लीनिक ले आए। भर्ती कर लिया। इलाज शुरू हो गया। स्वस्थ हो जाने पर पता चला कि वह युवक तो पैथोलॉजिस्ट है। उसके पिता आंध्रप्रदेश में जिला परिषद के सुपरिन्टेंडेंट हैं। उस दिन डॉ वाटवानी को लगा कि सड़कों पर घूमते ज्यादातर मानसिक रोगी भिखारी नहीं।
मानसिक संतुलन खो बैठना ही उनकी जिंदगियों के साथ सबसे क्रूर मजाक होता है। स्वस्थ कर उनकी जिंदगियां भी सामान्य ढर्रे पर लाई जा सकती है। फिर तो उन्होंने इस काम को अपनी जिंदगी का पहला और आखिरी मकसद बना लिया। और इस कठोर साधना के नाते ही 'रेमन मैग्सेसे अवार्ड' से नवाजे जाने के बाद आज वह साबित कर चुके हैं कि चिकित्सक सचमुच धरती का भगवान होता है, बशर्ते उसमें डॉ वाटवानी जैसे डॉक्टर का दिल धड़कता हो।
डॉ वाटवानी के 'श्रद्धा रिहैबिलिटेशन फाउंडेशन' में सड़कों पर दिन गुजार चुके मानसिक बीमारों को निःशुल्क आश्रय, भोजन और दवा-इलाज की सुविधाओं के साथ ही उनको उनके घर वालों तक पहुंचाने का भी काम किया जाता है। इस काम में उनको पुलिस और सामाजिक कार्यकर्ताओं का भी साथ-सहयोग मिलता है। सड़कों पर लावारिस फटेहाल घूमती ऐसी हजारों जिंदगियों को रोशन करने वाले इस महान चिकित्सक के साथ तमाम ऐसी दास्तानें जुड़ गई हैं, जन्हें जान-सुनकर किसी की भी आंखें नम हो सकती हैं। ऐसा ही एक वाकया भटनी, देवरिया (उ.प्र.) के गांव अलावलपुर के गंगा सागर के पुत्र 45 वर्षीय विजय कुमार का।
गंगा सागर को तीस साल बाद उनका बेटा जब मिला तो उन्हें जैसे उखड़ती सांसों को कोई नई जिंदगी मिल गई। बताते हैं कि तीस साल पहले विजय काम की तलाश में दिल्ली चले गए थे। उस समय वह दसवीं क्लास में पढ़ रहे थे। स्कूल छोड़ चले थे। जब पिछले साल अगस्त में वह विक्षिप्तावस्था में दिल्ली की सड़कों पर भटकते मिले, उन्हें कुछ लोगों ने श्रद्धा रेहैबिलिटेशन फाउंडेशन पहुंचा दिया। उनका मानसिक उपचार होने लगा। स्वस्थ होने के बाद उन्होंने डॉ वाटवानी दंपति को अपने घर-परिवार का अता-पता दिया। उसके बाद समाज सेवी शैलेश शर्मा विजय को लेकर उनके गाँव पहुँचे तो वहां देखने वालो का जैसे तांता लग गया। गंगा सागर की तो खुशियों का कोई पारावार नहीं रहा।
एक ऐसा ही वाकया और। यह घटना इंदौर (म.प्र.) के बागली (देवास) क्षेत्र की है। दो साल से लापता चार बच्चों की मां इंदिरा ठीकठाक हालत में एक दिन इंदौर से पिपरी जाने वाली बस से पुंजापुरा उतरकर जब श्रद्धा फाउंडेशन की सदस्य रीतु वर्मा के साथ बयडीपुरा मोहल्ले में अपने घर पहुंचीं तो उन्हें भी देखने वालों का तांता लग गया। इंदिरा को देखकर उनके वयोवृद्ध पिता नरसिंह की आंखें छलक पड़ीं। उस समय इंदिरा के चारो भाई और मां खेतों में मजदूरी करने गए हुए थे। जब इंदिरा की मनोदशा बिगड़ी थी, उस समय लोग उनको 'डंडी वाली पगली' कहा करते थे। गांव चापड़ा के आदिवासी रमेश उनके पति हैं। उनकी पांच संतानें हैं।
कुछ साल पहले रोजगार की तलाश में रमेश गांव से सपरिवार इंदौर पहुंचे। उन्हीं दिनों इंदिरा की मानसिक हालत खराब हो गई थी। वह सड़कों पर पागलों की तरह भटकती रहती थीं। एक दिन अचानक गायब। परिजन तलाशते-तलाशते आखिरकार मान बैठे थे कि अब वह नहीं रही। इंदिरा के मायके वालों ने बाबाओं और तांत्रिकों का भी सहारा लिया पर कुछ हासिल नहीं हुआ। वह तो मुंबई पहुंच चुकी थीं। वहां की सड़कों पर भटकने के दौरान ही श्रद्धा फाउंडेशन का आश्रय मिला और दोबारा स्वस्थ जिंदगी नसीब हो गई। इंदिरा को उनके परिजनों के हवाले करने के बाद रीतु वर्मा स्वस्थ हो चुकीं दो अन्य महिला मानसिक रोगियों खंडवा की तारा और नरसिंहपुरा की धन्नो को लेकर उनके ठिकानों के लिए निकल पड़ीं।
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