मैं, मेरा बचपन और Wehrle की दीवार घड़ी...
आज Wehrle की वह घड़ी भले ही डेड है लेकिन उसके साथ की यादें जवां हैं...
जिंदगी में सबसे पहले जिस दीवार घड़ी (Wall Clock) से परिचय हुआ, वह थी मेड इन जर्मनी Wehrle क्लॉक. घर की दीवार पर लगी Wehrle की वह घड़ी नानाजी अपने नेवी के दिनों में लेकर आए थे. उसी घड़ी की मदद से हमें टाइम देखना सिखाया गया. घड़ी चाबी से चलती थी और केवल दो सुइयां थीं. यानी सेकेंड्स वाली सुई उसमें नहीं थी. आजकल की घड़ियों में सेकेंड्स वाली सुई की आवाज आती रहती है. लेकिन उस Wehrle क्लॉक में वह तीसरी सुई न होने पर भी आवाज आती थी. वह इस बात का संकेत थी कि घड़ी चल रही है.
जब उसकी चाबी खत्म होने लगती थी तो घड़ी वास्तविक वक्त से 5-10 मिनट पीछे हो जाती थी. यह इस बात का इशारा था कि अब घड़ी में चाबी भरने का टाइम आ गया है. यही वह मौका होता था, जब घड़ी अपनी जगह से उतरकर नीचे यानी हमारे एकदम करीब आती थी. नानाजी जब उसमें चाबी भरते थे, तो हम बड़े ही कौतुहल से उसे देखते थे. इसकी एक वजह वह आवाज भी थी, जो घड़ी में चाबी घुमाने के वक्त आती थी.
चाबी भरने के बाद धीमी हो चुकी या बंद पड़ चुकी घड़ी की सुइयों को सही टाइम के अनुरूप एडजस्ट करना होता था और उसके बाद घड़ी फिर से वापस अपनी जगह पर. नानाजी वक्त-वक्त पर घड़ी को नीचे उतारकर उसकी मशीनरी में तेल डालते थे ताकि घड़ी सही से चलती रहे. जब भी मशीनरी के लिए घड़ी का पीछे वाला हिस्सा खोला जाता तो हमारे लिए वह दिलचस्प होता. घड़ी की मशीनरी के छोटे—छोटे कलपुर्जे बड़े ही अनूठे लगते.
जब वक्त से आगे हो जाती थी घड़ी..
कभी-कभी मशीनरी में तेल डालने या चाबी भरने के बाद घड़ी वक्त से आगे चलने लगती थी. 90 के दशक में हमारे घर में कोई दूसरी वॉल क्लॉक नहीं थी. हां लेकिन कलाई घड़ी जरूर थीं और उन्हीं से सही वक्त का पता लगाया जाता था, या फिर टीवी से. टीवी से याद आया कि वॉल क्लॉक के आगे पीछे होने के चक्कर में कभी हम फिल्म या सीरियल के लिए वक्त से पहले टीवी ऑन कर लेते थे, या फिर कभी देरी से. देरी से ऑन करने पर फिल्म या सीरियल थोड़ा सा मिस हो जाता था, जो हमारी मासूम नाराजगी का कारण बनता था.
शीशे के ढक्कन वाली घड़ी
चूंकि हम छोटे थे तो घड़ी तक स्टूल की मदद से भी नहीं पहुंच पाते थे. ऊपर से घड़ी बच्चों के लिए थोड़ी सी भारी थी. इसलिए उसे नीचे उतारने के बाद भी बच्चों को उठाने नहीं दिया जाता था. घड़ी पर एक शीशे का ढक्कन था, जो एक ओर से खुलता था. उसी ढक्कन को दरवाजे की तरह खोलकर घड़ी में चाबी दी जाती थी और सुइयां एडजस्ट की जाती थीं. कभी-कभी जिद करने पर नानाजी हमें भी चाबी भरने और सुइयां एडजस्ट करने का मौका देते थे. चाबी फुल हो जाने का पता ऐसे लगता था कि आगे चाबी घूमती नहीं थी.
घड़ी की सुइयों पर नजर
चूंकि हम दीवार पर लगी घड़ी तक पहुंच नहीं सकते थे तो हमारी नजर रहती थी, घड़ी की सुइयों पर. जब कभी बाल मन को लगता था कि कहीं घड़ी पीछे तो नहीं हो गई या बंद लग रही है तो तुरंत नानाजी को बोला जाता था. इस उम्मीद में कि काश हमारा कयास सच हो...अगर ऐसा हुआ तो एक तो घड़ी को नीचे उतारा जाएगा यानी वो हमारे करीब आएगी और दूसरा हमें शाबासी मिलेगी. बच्चों से सूचना मिलने के बाद नानाजी कलाई घड़ी निकालकर टाइम देखते थे. अगर वॉल क्लॉक सही चल रही होती तो हमारे उत्साह के गुब्बारे की हवा निकल जाती. लेकिन अगर बच्चों रूपी सूत्रों से मिली जानकारी सही होती तो नानाजी के हाथ घड़ी की ओर या फिर चाबी के डिब्बे की ओर बढ़ चलते.
और फिर जब हमेशा के लिए हो गई बंद...
धीरे-धीरे हम बड़े होने लगे और घड़ी तक पहुंचने और उसे उतारने में सक्षम हो गए. अब घड़ी के पीछे होने या बंद होने पर खुद ही चाबी भर सकने के काबिल हो चुके थे. वक्त गुजरने के साथ नानाजी बीमार रहने लगे और घड़ी की लगभग पूरी जिम्मेदारी हम बच्चों के साथ-साथ घर के बाकी लोगों पर भी रहने लगी. उसकी साफ-सफाई, उसमें चाबी देना, मशीनरी में तेल डालना. नानाजी के गुजरने के कई सालों बाद भी वह घड़ी हमारा साथ देती रही और हम उसे संभालते रहे. लेकिन एक दिन उस घड़ी की मशीनरी जवाब दे गई और घड़ी हमेशा के लिए बंद हो गई.
घड़ी को उतारकर बड़ी सी अलमारी के एक कोने में जगह दे दी गई और दीवार पर उसकी जगह एक दूसरी घड़ी ने ले ली. आज Wehrle की वह घड़ी भले ही डेड है लेकिन उसके साथ की यादें जवां हैं...