तुम आये, जैसे पेड़ों में पत्ते आये: डॉ. शांति सुमन
शान्ति सुमन के गीतों में उद्बोधन, आवेग और एक उमंग-तरंगित मन का उत्साह भर नहीं, समय की विद्रूपताओं से उनकी सीधी मुठभेड़ और युगीन यथार्थ का वह खरा बोध भी है, जिसे जन और उसके जीवन-संदभों के बीच से उन्होंने पाया और अर्जित किया है।
उन्होंने सर्जना, अन्यथा, भारतीय साहित्य तथा कंटेम्पररी इंडियन लिट्रेचर आदि का सम्पादन भी किया है। डॉ. सुमन किशोर वय से ही कविताऍं लिखने लगी थीं, जब वह आठवीं कक्षा में पढ़ती थीं।
डॉ. शांति सुमन को 'भिक्षुक' सम्मानपत्र, अवंतिका विशिष्ट साहित्य सम्मान, मैथिली साहित्य परिषद के विद्यावाचस्पति सम्मान, हिन्दी प्रगति समिति के भारतेन्दु सम्मान एवं सुरंगमा सम्मान, विंध्य प्रदेश से साहित्य मणि सम्मान से भी समादृत हो चुकी हैं।
समकालीन काव्य वांग्मय में डॉ. शांति सुमन हमारे समय का एक महत्वपूर्ण नाम है। उनका आज (15 सितंबर) जन्मदिन है। एक वक्त हुआ करता था, जब देश के किसी भी हिस्से में आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों में डॉ. सुमन के नवगीतों की अपनी अलग गूंज होती थी। उनके गीत हमारे समय का आईना हैं -
तुम आये, जैसे पेड़ों में पत्ते आये धूप खिली मन-लता खिल गयी
एक पर्त दर पर्त छिल गयी हाथ बढ़ाया जिधर टूटकर छत्ते आये।
रही-सही पहचान खो गयी यहीं कहीं दोपहर हो गयी
यादों के खजूर रस्ते-चौरस्ते आये। थोड़ी ठंडक ज्यादा सी-सी
मीठी-मीठी बात सुई-सी मौन-मधुर विश्वासों के गुलदस्ते आये
तुम आये, जैसे पेड़ों में पत्ते आये।
15 सितंबर 1942 को कासिमपुर, सहरसा (बिहार) में जनमी एवं साहित्य सेवा सम्मान, कवि रत्न सम्मान, महादेवी वर्मा सम्मान आदि से पुरस्कृत डॉ. शांति सुमन की प्रकाशित कृतियाँ हैं - ओ प्रतीक्षित, परछाई टूटती, सुलगते पसीने, पसीने के रिश्ते, मौसम हुआ कबीर, मेघ इंद्रनील, मैथिली गीत-संग्रह, तप रहे कचनार, भीतर-भीतर आग, एक सूर्य रोटी पर, समय चेतावनी नहीं देता, सूखती नहीं वह नदी, जल झुका हिरन, मध्यमवर्गीय चेतना और हिन्दी का आधुनिक काव्य आदि। इनके अलावा उन्होंने सर्जना, अन्यथा, भारतीय साहित्य तथा कंटेम्पररी इंडियन लिट्रेचर आदि का सम्पादन भी किया है। डॉ. सुमन किशोर वय से ही कविताऍं लिखने लगी थीं, जब वह आठवीं कक्षा में पढ़ती थीं।
उनकी पहली गीत-रचना त्रिवेणीगंज, सुपौल से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'रश्मि' में छपी। लंगट सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर से हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त शांति सुमन ने उसी कॉलेज में आजीविका भी पाई और 33 वर्षों तक प्राध्यापन के बाद वहीं से वे प्रोफेसर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से 2004 में सेवामुक्त हुईं। अपनी धारदार गीत सर्जना के लिए हिन्दी संसार में विशिष्ट पहचान रखनेवाली डॉ. शांति सुमन को 'भिक्षुक' सम्मानपत्र, अवंतिका विशिष्ट साहित्य सम्मान, मैथिली साहित्य परिषद के विद्यावाचस्पति सम्मान, हिन्दी प्रगति समिति के भारतेन्दु सम्मान एवं सुरंगमा सम्मान, विंध्य प्रदेश से साहित्य मणि सम्मान से भी समादृत हो चुकी हैं। उन्नीस सौ पचास से अस्सी तक के दशकों में कवि सम्मेलनों के मंचों पर अपनी रचनाओं से उन्होंने अपार यश अर्जित किया -
फटी हुई गंजी न पहने खाये बासी भात ना।
बेटा मेरा रोये, माँगे एक पूरा चन्द्रमा। पाटी पर वह सीख रहा लिखना ओ ना मा सीअ से अपना , आ से आमद
धरती सारी माँ- सीबाप को हल में जुते देखकर सीखे होश सम्हालना। घट्ठे पड़े हुए हाथों का प्यार बड़ा ही सच्चाखोज रहा अपनी बस्ती में
दूध नहाया बच्चाबाप सरीखा उसको आता नहीं भूख को टालना। अभी समय को खेतों मेंपौधों सा रोप रहा
आँखों में उठनेवालेगुस्से को सोच रहारक्तहीन हुआ जाता कैसे गोदी का पालना।
वरिष्ठ आलोचक शिवकुमार मिश्र लिखते हैं- निरंतर क्षरित और क्षत-विक्षत होती मनुष्यता और उसकी संभावनाओं को निहायत क्रूर और हिंस्र आज के समय के बरक्स, गीत के रचना-विधान में अक्षत बनाए और बचाए रखने के जीवंत उपक्रम का साक्ष्य हैं, शान्ति सुमन की रचनाधर्मिता की फलश्रुति उनके वे गीत, जो उनके 'धूप रंगे दिन' शीर्षक संकलन में, उनकी रचनाधर्मिता की सारी ऊष्मा और ऊर्जा को लिए हुए हैं । गीत, शांति सुमन की रचनाधर्मिता का स्व-भाव है, जिसे उन्होंने काव्याभिव्यक्ति की दीगर तमाम भंगिमाओं के बीच-शिद्दत से जिया और बचाए रखा है। यही नहीं, समय के बदले और बदलते संदर्भों में अनुभव-संवेदनों की नई ऊष्मा और नया ताप भी उन्हें दिया है। इसी नाते उनका नाम प्रगतिशील आन्दोलन के साथ आरंभ हुई जनगीतों की परंपरा को, नई सदी की दहलीज तक लाने वाले जन गीतकारों में पहली और अगली कतार का नाम है।
जनधर्मिता और कविता-धर्मिता का एकात्म हैं शान्ति सुमन के गीत, जो कविता को उसके वास्तविक आशय में जन-चरित्री बनाते हैं, उसे जन की आशाओं-आकांक्षाओं से बेहतर जिन्दगी के उसके स्वप्नों तथा संघर्षों से जोड़ते हैं।
शान्ति सुमन के गीतों में उद्बोधन, आवेग और एक उमंग-तरंगित मन का उत्साह भर नहीं, समय की विद्रूपताओं से उनकी सीधी मुठभेड़ और युगीन यथार्थ का वह खरा बोध भी है, जिसे जन और उसके जीवन-संदभों के बीच से उन्होंने पाया और अर्जित किया है। गहरे और व्यापक जन-संघर्षों की धार से गुजरे ये गीत आज के विपर्यस्त समय की चपेट में आए साधारण जन के दुख-दाह, ताप-त्रास, उसकी बेबसी और लाचारी को ही शब्द और रूप नहीं देते, स्थितियों से संघर्ष करती उसकी जिजीविषा तथा जुझारू तेवरों को भी जनधर्मी पक्षधरता की पूरी ऊर्जा के साथ रूपायित करते हैं, जिन्हें जन और जन-सघर्षों की सहभागिता में शान्ति सुमन ने देखा और जिया है।
उनके गीतों में बाह्य प्रकृति भी जीवन की सहभागिता में अपनी जनधर्मी भंगिमाओं की समूची सुषमा के साथ चित्रित हुई है। उनके गीतों से होकर गुजरना जनधर्मी अनुभव-संवेदनों की एक बहुरंगी, बहुआयामी, बेहद समृद्ध दुनिया से होकर गुजरना है, साधारण में असाधारणता के, हाशिए की जिन्दगी जीते हुए छोटे लोगों के जीवन-संदर्भों में महाकाव्यों के वृत्तान्त पढ़ना है। स्वानुभूति, सर्जनात्मक कल्पना तथा गहरी मानवीय चिन्ता के एकात्म से उपजे ये गीत अपने कथ्य में जितने पारदर्शी हैं, उसके निहितार्थों में उतने ही सारगर्भित भी। मुक्तिबोध ने कविता को जन-चरित्री के रूप में परिभाषित किया है। शांति सुमन के गीत मुक्तिबोध की इस उक्ति का रचनात्मक भाष्य हैं -
इसी शहर में ललमनिया भी रहती है बाबू। आग बचाने खातिर कोयला चुनती है बाबू।
पेट नहीं भर सका, रोज के रोज दिहारी से सोचता मन चढ़कर गिर जाए
ऊँच पहाड़ी से लोग कहेंगे क्या यह भी तो गुनती है बाबू।
चकाचौंध बिजलियों की जब बढ़ती है रातों में,
खाली देह जला करती है मन की बातों में,
रोज तमाशा देख आँख से सुनती है बाबू।
तीन अठन्नी लेकर भागी उसकी भाभी घर से,
पहली बार लगा कि टूट जाएगी वह जड़ से,
बिना कलम के खुद की जिनगी लिखती है बाबू।
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