किसने नहीं पढ़ा है, 'गदल' और 'उसने कहा था'
हमारे देश में अनेकशः ऐसे साधक साहित्यकार रहे हैं, जिन्हें हिंदी जगत का ऋणी होना चाहिए, लेकिन आज के आपाधापी भरे माहौल में उन्हें तो किसी को याद करने भर की फुर्सत नहीं है। असाधारण प्रतिभा के धनी रांगेय राघव हिंदी के एक ऐसे ही कथाकार थे, जो अपनी छोटी सी जिंदगी में हिंदी साहित्य को आश्चर्यजनक रूप से समृद्ध कर गए। आज ही के दिन एक और यशस्वी हिंदी साहित्यकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी का भी स्मृति दिवस है, जिनकी कहानी 'उसने कहा था', ने लोकप्रियता का नया मानदंड स्थापित किया था। यह भी हैरत की बात है कि दोनो ही रचनाकारों की उम्र 39 साल रही।
अपने रचनात्मक जीवन के बारे में रांगेय राघव लिखते हैं- ‘चित्रकला का अभ्यास कुछ छूट गया था। 1938 ई. की बात है, तब ही मैंने कविता लिखना शुरू किया। सांध्या-भ्रमण का व्यसन था। एक दिन रंगीन आकाश को देखकर कुछ लिखा था। वह सब खो गया है और तब से संकोच से मन ने स्वीकार किया कि मैं कविता कर सकता हूं।
अपनी थोड़ी-सी आयु में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत प्राकृत बांग्ला मराठी आदि का ही नहीं जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया था। गुलेरी जी के साथ एक बहुत बड़ी विडम्बना यह है कि उनके अध्ययन, ज्ञान और रुचि का क्षेत्र हालाँकि बेहद विस्तृत था और उनकी प्रतिभा का प्रसार भी अनेक कृतियों, कृतिरूपों और विधाओं में हुआ था, किन्तु आम हिन्दी पाठक ही नहीं, विद्वानों का एक बड़ा वर्ग भी उन्हें अमर कहानी ‘उसने कहा था’ के रचनाकार के रूप में ही पहचानता है।
हमारे देश में अनेकशः ऐसे साधक साहित्यकार रहे हैं, जिन्हें हिंदी जगत का ऋणी होना चाहिए, लेकिन आज के आपाधापी भरे माहौल में उन्हें तो किसी को याद करने भर की फुर्सत नहीं है। असाधारण प्रतिभा के धनी रांगेय राघव हिंदी के एक ऐसे ही कथाकार थे, जो अपनी छोटी सी जिंदगी में हिंदी साहित्य को आश्चर्यजनक रूप से समृद्ध कर गए। उनका पारिवारिक नाम था - टीएनबी आचार्य (तिरूमल्लै नंबकम् वीरराघव आचार्य) आज (12 सितंबर) उनकी पुण्यतिथि है। उन्हें हिंदी का शेक्सपीयर भी कहा जाता है। आज ही के दिन एक और यशस्वी हिंदी साहित्यकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी का भी स्मृति दिवस है, जिनकी कहानी 'उसने कहा था', ने लोकप्रियता का नया मानदंड स्थापित किया था। यह भी हैरत की बात है कि दोनो ही रचनाकारों की उम्र 39 साल रही।
रांगेय राघव जब मात्र तेरह वर्ष के थे, तभी से सृजन कर्म में तल्लीन रहने लगे थे। उन्होंने सन 1942 में अकालग्रस्त बंगाल की यात्रा के बाद एक रिपोर्ताज लिखा- 'तूफ़ानों के बीच', जो हिंदी प्रेमियों में लंबे समय तक चर्चा का विषय रहा। रांगेय राघव साहित्य के साथ ही चित्रकला, संगीत और पुरातत्व में भी विशेष रुचि रखते थे। उन्होंने अपनी उनतालीस साल की उम्र में ही कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज, आलोचना, संस्कृति आदि पर लगभग डेढ़ सौ पुस्तकें लिख डालीं। 'रांगेय राघव की कहानियों की विशेषता यह रही है कि इस पूरे समय की शायद ही कोई घटना हो जिसकी गूंजें-अनुगूंजे उनमें न सुनी जा सकें।
रांगेय राघव ने हिंदी कहानी को भारतीय समाज के उन धूल-कांटों भरे रास्तों, आवारे-लफंडरों-परजीवियों की फक्कड़ ज़िंदगी, भारतीय गांवों की कच्ची और कीचड़-भरी पगडंडियों की गश्त करवाई, जिनसे वह भले ही अब तक पूर्णत: अपरिचित न रही हो पर इस तरह हिली-मिली भी नहीं थी और इन 'दुनियाओं' में से जीवन से लबलबाते ऐसे-ऐसे कद्दावर चरित्र प्रकट किए जिन्हें हम विस्मृत नहीं कर सकेंगे। 'गदल' भी एक ऐसा ही चरित्र है।' रांगेय राघव ने विदेशी साहित्य को हिन्दी भाषा के माध्यम से हिन्दी भाषी जनता तक पहुँचाने का महान कार्य किया। अंग्रेज़ी के माध्यम से कुछ फ्राँसिसी और जर्मन साहित्यकारों का अध्ययन करने के पश्चात उन्होंने उससे हिन्दी जगत को सुपरिचित कराया।
अपने रचनात्मक जीवन के बारे में रांगेय राघव लिखते हैं- ‘चित्रकला का अभ्यास कुछ छूट गया था। 1938 ई. की बात है, तब ही मैंने कविता लिखना शुरू किया। सांध्या-भ्रमण का व्यसन था। एक दिन रंगीन आकाश को देखकर कुछ लिखा था। वह सब खो गया है और तब से संकोच से मन ने स्वीकार किया कि मैं कविता कर सकता हूं। ‘प्रेरणा कैसे हुई’ पृष्ठ लिखना अत्यंत दुरुह है। इतना ही कह सकता हूं कि चित्रों से ही कविता प्रारंभ हुई थी और एक प्रकार की बेचैनी उसके मूल में थी।' अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'प्राचीन ब्राह्मण कहानियां' की प्रस्तावना में वह लिखते है- 'आर्य परम्पराओं का अनेक अनार्य परम्पराओं से मिलन हुआ है। भारत की पुरातन कहानियों में हमें अनेक परम्परओं के प्रभाव मिलते हैं।
महाभारत के युद्ध के बाद हिन्दू धर्म में वैष्णव और शिव चिन्तन की धारा वही और इन दोनों सम्प्रदयों ने पुरातन ब्राह्मण परम्पराओं को अपनी अपनी तरह स्वीकार किया। इसी कारण से वेद और उपनिषद में वर्णित पौराणिक चरित्रों के वर्णन में बदलाव देखने को मिलता है। और बाद के लेखन में हमें अधिक मानवीय भावों की छाया देखने को मिलती है। मैं ये महसूस करता हूँ कि मेरे से पहले के लेखकों ने अपने विश्वास और धारणाओं के आलोक में मुख्य पात्रो का वर्णन किया है और ऊँचे मानवीय आदर्श खडे किये हैं और अपने पात्रों को साम्प्रदायिकता से बचाये रखा है। इसलिये मैंने पुरातन भारतीय चिन्तन को पाठकों तक पहुचाने का प्रयास किया है।'
दूसरे प्रसिद्ध साहित्यकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी मूलतः हिमाचल प्रदेश के गांव गुलेर के रहने वाले थे लेकिन उनके पिता जयपुर (राजस्थान) में बस गए। गुलेरी जी का साहित्य उनकी घरेलू साधना का प्रतिफल रहा। स्वाध्याय से ही उन्होंने अंग्रेजी सहित कई भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया। आगे चलकर उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय और प्रयाग विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में उच्च शिक्षा प्राप्त की। बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने 'द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स' ग्रन्थ लिखा। जयपुर वेधशाला के यंत्रों पर लगे जीर्णोद्धार तथा शोध-कार्य विषयक शिलालेखों पर ‘चंद्रधर गुलेरी’ नाम भी खुदा हुआ है।
सन् 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादक बन गए। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया। उनका राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन् 1920 में पं. मदन मोहन मालवीय के प्रबंध आग्रह के कारण उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया।
अपनी थोड़ी-सी आयु में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत प्राकृत बांग्ला मराठी आदि का ही नहीं जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया था। गुलेरी जी के साथ एक बहुत बड़ी विडम्बना यह है कि उनके अध्ययन, ज्ञान और रुचि का क्षेत्र हालाँकि बेहद विस्तृत था और उनकी प्रतिभा का प्रसार भी अनेक कृतियों, कृतिरूपों और विधाओं में हुआ था, किन्तु आम हिन्दी पाठक ही नहीं, विद्वानों का एक बड़ा वर्ग भी उन्हें अमर कहानी ‘उसने कहा था’ के रचनाकार के रूप में ही पहचानता है। इस कहानी की प्रखर चौंध ने उनके बाकी वैविध्य भरे सशक्त कृति संसार को मानो ग्रस लिया।
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