फल बेचने वाले एक अनपढ़ ने गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए खड़ा कर दिया स्कूल
अपनी जिंदगी के पिछले पंद्रह सालों में हजब्बा अपनी सारी कमाई गरीबों को शिक्षित करने और उनके लिए स्कूल खोलने में लगा देते हैं। अब उनका सपना है कि वह एक डिग्री क़ॉलेज भी खोलें।
हजब्बा अनपढ़ हैं, लेकिन उनके भीतर गांव के अशिक्षित बच्चों को पढ़ाने की लगन है। बच्चों को पढ़ाने के लिए कर चुके हैं अपने परिवार से कई समझौते।
एक विदेशी दपंती के अंग्रेजी में बात करने ने बदल दी हजब्बा की सोच, क्योंकि उन्हें आती थी सिर्फ स्थानीय भाषा। नहीं आती थी अंग्रेजी।
फल बेचने वाले हरेकाला हजब्बा हर रोज सुबह-सुबह संतरों की पेटी लेने के लिए 25 किलोमीटर का सफर करना पड़ता है। वह पिछले 30 सालों से रोजाना मंगलौर जाते हैं और वहां से फल लेकर आते हैं।
खास बात यह है कि अपनी जिंदगी के पिछले पंद्रह सालों में हजब्बा अपनी कमाई गरीबों की शिक्षा और उनके लिए स्कूल खोलने में लगा देते हैं। हालांकि हजब्बा अनपढ़ हैं, लेकिन उनके भीतर गांव के अशिक्षित बच्चों को पढ़ाने की लगन है। वह बच्चों को पढ़ाने के लिए अपने परिवार से भी कई समझौते कर चुके हैं।
हजब्बा बताते हैं कि उनकी जिंदगी में यह बदलाव तब आया था जब एक विदेशी दंपती ने उनसे अंग्रेजी में बात करने की कोशिश की थी। लेकिन हजब्बा को सिर्फ स्थानीय भाषा ही आती है इसलिए वह उस अंग्रेज दंपती से बात नहीं कर पाए थे। उनके जाने के बाद काफी देर तक हजब्बा सोचते रहे कि वह अंग्रेजी में बात क्यों नहीं कर सके। उन्हें लगा कि अगर उन्होंने भी अच्छे स्कूल में पढ़ाई की होती तो शायद उन्हें अंग्रेजी बोलने में कोई दिक्कत नहीं होती।
हजब्बा ने इसके बाद प्रण लिया कि वह नहीं पढ़ पाए तो क्या हुआ उनकी आने वाली पीढ़ी कम से कम शिक्षा से वंचित न रहने पाए और इसके लिए उन्होंने अपनी कमाई का एक हिस्सा अपनी कॉलोनी के बच्चों को पढ़ाने के लिए भेजने लगे।
हजब्बा ने सबसे पहले अपनी कॉलोनी के उन बच्चों को पढ़ाने का काम किया जो कभी स्कूल ही नहीं जा पाए। उन्होंने देखा कि 5-6 साल के बच्चे स्कूल ही नहीं जा रहे हैं, वे अपने घर में ही बैठे रहते हैं। लेकिन इस तरह एक दो बच्चों को पढ़ाने से उन्हें संतुष्टि नहीं मिल रही थी, इसलिए उन्होंने एक स्कूल ही बनाने का निश्चय कर लिया। लेकिन उनकी यह कोशिश इतनी आसान भी नहीं थी। उन्हें गांव वालों ने उपहास का पात्र समझ लिया।
1999 में हजब्बा ने अपने आस-पास के रहने वाले लोगों को समझाने की कोशिश की और एक मस्जिद में ही स्कूल चलाने के लिए लोगों को राजी कर लिया।
कुछ दिन तक हजब्बा ने मस्जिद में स्कूल को संचालित किया लेकिन कुछ ही दिन के बाद उन्होंने एक दूसरी बिल्डिंग में स्कूल को ट्रांसफर कर दिया। इस दौरान वह अपनी फल की दुकान भी लगाते रहे और सरकारी अफसरों के पास चक्कर भी लगाते रहे। वह हर हफ्ते सरकारी अधिकारियों से मिलते और उनसे अपने गांव में एक स्कूल खोलने की बात कहते थे।
हजब्बा की मेहनत रंग लाई और 2004 नवंबर में उन्हें दक्षिण कन्नड़ जिला पंचायत की तरफ से हायर प्राइमरी स्कूल के लिए जमीन मिल गई। अब उनके इस स्कूल में गांव के सारे बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं और वह अब एक डिग्री कॉलेज भी खोलना चाहते हैं।
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