सामाजिक परिवर्तन के लिए आईएएस बनीं दिल्ली की दिव्यांग उपायुक्त इरा सिंघल
प्रशासनिक अधिकारियों को लेकर आम लोगों में जैसी नकारात्मक धारणा होती है, उसे अपनी सोच और कोशिशों से झुठला देती हैं देश की पहली दिव्यांग आईएएस टॉपर इरा सिंघल। मूल रूप से थापर नगर (मेरठ) की रहने वाली इरा 25 वर्षों से अधिक समय से दिल्ली में रह रही हैं। उनको आईएएस बनने की प्रेरणा एक कर्फ्यू से मिली।
यूपीएससी सिविल सर्विसेस एग्जामिनेशन की सामान्य कैटिगरी में देश की पहली विकलांग महिला टॉपर इरा सिंघल समाज की संवेदनहीनता से विचलित हो जाती हैं।
इरा ने आईएएस की पहली परीक्षा 2010 में दी। पहली ही बार में वह आईआरएस के लिए चुनी गईं, मगर दिव्यांगता आड़े आ गई। उन्होंने हार नहीं मानी और कोर्ट तक गईं और उन्होंने इन पंक्तियों को सार्थक कर दिखाया - मंजिलें उन्हीं को मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है, पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है।
मूल रूप से थापर नगर (मेरठ) की रहने वाली इरा 25 वर्षों से अधिक समय से दिल्ली में रह रही हैं। उनको आईएएस बनने की प्रेरणा एक कर्फ्यू से मिली।
इरा बताती हैं, जब वह मेरठ में थीं, शहर में एक बार कर्फ्यू लग गया। वह सुनती थीं कि कर्फ्यू डीएम ने लगाया है। तब वह सोचती थीं कि डीएम कौन होता है। इसके बाद उन्होंने डीएम बनने की सोची, मगर दिल्ली जाने के बाद इंजीनियरिंग कर ली। उसके बाद एमबीए किया, जिसके बाद एक चॉकलेट बनाने वाली बड़ी कंपनी में अच्छी जॉब मिल गई। कंपनी में 20-20 घंटे काम करने के बाद वह बड़ी सैलरी पा रही थीं।
एक दिन अचानक सोचा कि इतना काम करने के बाद भी वह पैसा तो कमा रही हैं, मगर देश और समाज को इससे क्या फायदा है। इसके बाद उन्होंने आईएएस बनने की ठानी।
इरा बताती हैं कि लगातार तीन साल तक आईएएस क्वालीफाई करने के बावजूद उन्हें दिव्यांगता के चलते तैनाती नहीं दी गई। इसके लिए उनको कोर्ट तक जाना पड़ा। कोर्ट का फैसला उनके फेवर में आया, मगर इसके बाद भी उन्हें ज्वॉइनिंग नहीं मिली। अंतत: जब वह हार मान चुकी थीं तो एक मित्र ने एक बार और ट्राई करने को कहा। चौथी बार जब उन्होंने फिर परीक्षा दी तो सेलेक्ट हो गईं।
इस समय वह केशवपुरम (दिल्ली) में उपायुक्त हैं।
खुद रीढ़ की हड्डी में नूनन सिंड्रोम से पीड़ित इरा ने एक दिन अपने फेसबुक वॉल पर लिखा- 'आज हम चार लोग मसूरी से दिल्ली वापस आ रहे थे। रास्ते में मुरादनगर में हमने एक हादसा देखा। एक मारूति की एक ट्रैक्टर के साथ भिड़ंत हो गई और मारूति में बैठा ड्राइवर और एक यात्री बुरी तरह घायल हो गए थे। हम उनकी मदद के लिए रुक गए और दिल्ली-मेरठ के बेहद व्यस्त हाइवे पर हमने स्थानीय लोगों को इकट्ठा किया।
वह लिखती हैं - 'हमने उन दोनों को कार से बाहर निकाला। गंभीर रूप से घायल इन दोनों लोगों की मदद के लिए हमने स्थानीय ऐम्बुलेंस बुलाई, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। इसी बीच मैंने वहां से गुजर रहे लोगों को रोकने का फैसला किया। मुझे उम्मीद थी कि मैं कम से कम एक ऐसी कार जरूर ढूंढ लूंगी, जो इन घायलों में से एक को ले जाए। हमारे पास से गुजरने के दौरान सभी कारों की रफ्तार धीमी हो रही थी और लोग इस भीषण दृश्य को देख रहे थे। मैंने कम से कम 20 कारों के दरवाजे खटखटाए और आती-जाती कारों को पागलों की तरह हाथ दिए पर कोई नहीं रुका। एक भी नहीं। यह हमारी मानवता है। आखिर में हमने एक पुलिस वैन बुलाई और उनमें से एक को भेजा। दूसरे की मौके पर ही मौत हो गई। इस घटना ने मुझे दुखी कर दिया कि उनमें से एक भी इंसान ने यह नहीं सोचा कि वे आसानी से यह कर सकते थे। किसी के अंदर भी इतनी इंसानियत नहीं थी कि वह रुक कर मदद करता। क्या यही देश हमने अपने लिए बनाया है? सभी ड्राइवर जानते थे कि मैं एक छोटी सी लड़की अंधेरी रात में, व्यस्त सड़क पर ऐसे खतरनाक हादसे के बाद उनसे मदद मांग रही थी और उन सभी ने मदद करने से मना कर दिया। यह हमारी दुनिया है। यह हम हैं।'