IIT रूड़की के शोधकर्ताओं ने सेप्सिस की समस्याओं में श्वेत रक्त कोशिका मार्करों की भूमिका दिखाई
प्रो. प्रणिता पी सारंगी, बायोसाइंसेज और बायोइंजीनियरिंग विभाग, आईआईटी रुड़की ने कहा, ‘‘सेप्सिस की रोकथाम में मोनोसाइट्स, मैक्रोफाज और न्यूट्रोफिल का महत्व देखते हुए ऐसी कोशिकाओं के माइग्रेशन की गतिविधि समझना ज़रूरी है ताकि सूजन और सेप्सिस के विभिन्न चरणों का स्पष्ट पता चले।’’
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रूड़की के शोधकर्ताओं ने गंभीर संक्रमण और सेप्सिस के दुष्परिणाम में कुछ खास इम्यून सेल मार्करों की भूमिका दर्शायी है। आईआईटी रुड़की के बायोसाइंसेज और बायोइंजीनियरिंग विभाग के प्रो. प्रणिता पी सारंगी के नेतृत्व में यह शोध किया गया। शोध का वित्तीयन बायोकेयर महिला वैज्ञानिक अनुदान और जैव प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार के अभिनव युवा जैव प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ पुरस्कार अनुदान से किया गया। शोध के परिणामस्वरूप सेप्सिस की समस्याओं में इम्यून सेल मार्करों की भूमिका की गहरी जानकारी मिली है।
श्वेत रक्त कोशिकाएं - न्यूट्रोफिल, मोनोसाइट्स और मैक्रोफाज मृत कोशिकाओं और बैक्टीरिया एवं अन्य रोगजनक जैसे बाहरी आक्रमणकारियों का सफाया करती हैं। वे खून से संक्रमण वाले हिस्से में पहुँच कर रोग पैदा करने वाले बाहरी पदार्थों का सफाया करती हैं। हालांकि जब संक्रमण बेकाबू और गंभीर हो जाता है (जिसे आमतौर पर ‘सेप्सिस’ कहते हैं) तो प्रतिरक्षा कोशिकाएं भी असामान्य रूप से सक्रिय और स्थान विशेष पर केंद्रित हो जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप ये कोशिकाएं समूह में शरीर के अंदर चारों ओर घूमती हैं और महत्वपूर्ण अंगों जैसे फेफड़े, गुर्दे और यकृत में जमा हो जाती हैं। इससे एक साथ कई अंगों के नाकाम होने या फिर मृत्यु का खतरा भी रहता है।
एक प्रेस बयान में, शोध के बारे में खुद प्रो. प्रणिता पी सारंगी, बायोसाइंसेज और बायोइंजीनियरिंग विभाग, आईआईटी रुड़की ने कहा, ‘‘सेप्सिस की रोकथाम में मोनोसाइट्स, मैक्रोफाज और न्यूट्रोफिल का महत्व देखते हुए ऐसी कोशिकाओं के माइग्रेशन की गतिविधि समझना ज़रूरी है ताकि सूजन और सेप्सिस के विभिन्न चरणों का स्पष्ट पता चले।’’
ये प्रतिरक्षा कोशिकाएं रक्त वाहिकाओं से चल कर ऊतकों के हिस्से से गुजरते हुए संक्रमित/सूजे हिस्सांे में पहुंचने के दौरान प्रोटीन जैसे कि कोलाजेन या फाइब्रोनेक्टिन से बंधऩ बनाती हैं। यह बंधन इंटीग्रिन नामक रिसेप्टर अणुओं के माध्यम से होता है जो कोशिका की सतहों पर मौजूद होते हैं। इंटीग्रिन रिसेप्टर्स प्रतिरक्षा कोशिकाओं और घेरे के मैट्रिक्स के बीच संचार सक्षमता बनाते हैं जो कोशिका के माइग्रेशन और अन्य कार्यों के मॉड्यूलेशन में सहायक है। हालांकि वे ज़्यादा सक्रिय हो जाएं (जिसे हाइपर-एक्टिवेशन कहते हैं) तो अन्य समस्याएं पैदा हो सकती हैं।
इस अध्ययन के लिए प्रो. सारंगी के समूह ने सेप्सिस के दो माउस मॉडल का इस्तेमाल किया ताकि सेप्सिस में इंटीग्रिन की भूमिका दर्शाना आसान हो। संक्रमण होने पर मोनोसाइट्स रक्त संचार और अस्थि मज्जा से चल कर संक्रमित/सूजे ऊतकों तक पहंुचते हैं। ऊतकों के अंदर पहंुचने के बाद मोनोसाइट्स मैक्रोफाज में परिपक्व हो जाते हैं और फिर सेप्टिक परिस्थिति से संकेत पा कर ये कोशिकाएं धीरे-धीरे सूजन पैदा करने के बदले इम्यूनोसप्रेसिव सबटाइप का काम करती हैं जिनका उनके इंटीग्रिन एक्सप्रेशन प्रोफाइल से परस्पर संबंध है।
प्रो. सारंगी के मार्गदर्शन में पीएच डी कर रहे प्रमुख शोधकर्ता शिव प्रसाद दास ने कहा, ‘‘इन निष्कर्षों से हमें सेप्सिस के विभिन्न चरणों को जानने और उनके सटीक उपचार में मदद मिलेगी।’’
प्रोफेसर अजीत के चतुर्वेदी, निदेशक आईआईटी रूड़की ने शोध के बारे में बताया, ‘‘इस शोध से सेप्सिस के जीव विज्ञान की समझ बढ़ेगी और इस जानलेवा समस्या से सुरक्षा का चिकित्सा विज्ञान अधिक विकसित होगा।’’
शोध के निष्कर्ष द जर्नल ऑफ इम्युनोलॉजी में प्रकाशित किए गए हैं जो अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ इम्युनोलॉजिस्ट (एएआई) की आधिकारिक पत्रिका है और इसे इंडियन इम्युनोलॉजी सोसायटी (इम्युनोकॉन-2019) के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में प्रस्तुत किया गया है।