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जमनालाल बजाज: वह 'वैरागी उद्योगपति' जो राष्ट्र, दलितों, महिलाओं और हिंदी के उत्थान के लिए खुद को भूल गया...

जमनालाल, वह शख्सियत जिन्हें एक ऐसा मर्चेंट प्रिंस भी कहा जाता था, जिन्होंने एक लोअर मिडिल क्लास जिंदगी जी.

जमनालाल बजाज: वह 'वैरागी उद्योगपति' जो राष्ट्र, दलितों, महिलाओं और हिंदी के उत्थान के लिए खुद को भूल गया...

Friday November 04, 2022 , 11 min Read

जब भी पूंजीपतियों या उद्योगपतियों की बात चलती है तो जेहन में यही आता है कि इनकी लाइफस्टाइल कितनी हाई-फाई होगी. या फिर यह कि यह तो व्यापारी आदमी है, हर चीज को नफा-नुकसान के तराजू में तौलकर फैसला लेगा. पूंजीपतियों के साथ समस्या ही यह होती है कि वे स्वयं ही अपनी व्यवसायी या व्यापारी की छवि से मुक्त नहीं हो पाते. नतीजा कई बार समाज उन्हें जीवनपर्यंत उसी नज़र से देखता रह जाता है. लेकिन भारत में जमनालाल बजाज (Jamnalal Bajaj) जैसे वैरागी पूंजीपति भी हुए हैं, जिन्होंने त्याग, समर्पण, समाजसेवा और राष्ट्रप्रेम का ऐसा उदाहरण पेश किया कि गांधी और विनोबा भावे जैसे लोग उनके साथ पारिवारिक सदस्य के रूप में घुल-मिल गए.

जमनालाल, वह शख्सियत जिन्हें एक ऐसा मर्चेंट प्रिंस भी कहा जाता था, जिन्होंने एक लोअर मिडिल क्लास जिंदगी जी. जमनालाल बजाज को भारत के नामचीन उद्योगपति, मानवशास्त्री, समाजसेवी एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के तौर पर जाना जाता है. इसके अलावा उन्हें महात्मा गांधी से करीबी संबंधों के चलते भी जाना जाता है. जमनालाल महात्मा गांधी के अनुयायी थे और उनके इतने ज्यादा करीबी थे कि गांधीजी ने उन्हें अपना पांचवां पुत्र करार दे दिया था. जमनालाल द्वारा संचालित ट्रस्ट आज भी समाजसेवा के कामों में जुटा है. आज 4 नवंबर को उनके जन्मदिवस के मौके पर डालते हैं एक नजर जमनालाल बजाज की जिंदगी के कुछ पहलुओं पर....

गरीब मारवाड़ी परिवार में जन्म

जमनालाल बजाज का जन्म 4 नवम्बर 1889 को राजस्थान की जयपुर रियासत के सीकर में "काशी का बास" में एक गरीब मारवाड़ी परिवार में हुआ था. उनके पिता कनीराम एक गरीब किसान और माता बिरदीबाई गृहिणी थीं. लेकिन जमनालाल की किस्मत ने कुछ ऐसी करवट ली कि उनकी जिंदगी ​ही बदल गई. जमनालाल एक दिन अपने घर के बाहर खेल रहे थे. इसी दौरान रास्ते से गुजरते हुए वर्धा के सेठ बच्छराज ने देखा. वह जमनालाल पर कुछ इस तरह मुग्ध हुए कि उन्हें गोद लेने का फैसला कर लिया. उस वक्त 5 साल के जमनालाल चौथी कक्षा में थे. इसके बाद सेठ बच्छराज (बजाज) और उनकी पत्नी सादीबाई बच्छराज (बजाज) ने जमनालाल को पोते के रूप में अपनाया. ये दोनों एक अमीर राजस्थानी व्यापारी जोड़े थे लेकिन वर्धा, महाराष्ट्र में बस गए थे. सेठ बच्छराज ब्रिटिश राज में एक प्रसिद्ध और सम्मानित व्यापारी थे.

इस तरह एक गरीब किसान का बेटा जमनालाल, सेठ जमनालाल बजाज बन गया. हालांकि जमनालाल कभी भी अपनी इस अमीरी से खुश नहीं हुए, न ही उन्होंने अन्य अमीरों की तरह ऐश ओ आराम की जिंदगी जीना पसंद किया. उनके लिए उनके पिता की दौलत कभी मायने नहीं रखती थी. उन्हें पैसों की खनक लुभा न सकी और वह देश सेवा में लगे रहे.

13 वर्ष की उम्र में विवाह

भारत में बाल-विवाह के उस दौर में जमनालाल का विवाह 13 वर्ष की उम्र में ही 9 वर्ष की जानकी से कर दिया गया. केवल 17 वर्ष की उम्र में ही जमनालाल ने कारोबार संभाल लिया. 1920 के दशक में सेठ जमनालाल बजाज ने व्यापार की भूमि पर एक ऐसा बीज बोया जो आज व्यापार जगत का एक सघन वृक्ष बन चुका है. उन्होंने अपनी शुगर मिल के जरिए शुरुआत की. जमनालाल ने एक बाद एक कई कंपनियों की स्थापना की थी, जो आगे चलकर बजाज समूह (Bajaj Group) कहलाया. आज बजाज समूह भारत के प्रमुख व्यवसायी घरानों में से एक है.

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पत्नी जानकी देवी के साथ जमनालाल (Image: https://www.jamnalalbajajfoundation.org/)

17 की उम्र में परिवारिक संपत्ति पर त्याग दिया दावा

एक बार सेठ बच्छराज परिवार सहित एक शादी समारोह में जा रहे थे. ऐसे में हर कोई चाहता है कि उनका परिवार शाही दिखे. इसी मंशा से उन्होंने जमनालाल से कहा कि हीरे-पन्नों से जड़ा एक हार पहनकर चलें. लेकिन जमनालाल फकीर किस्म के इंसान थे, उन्हें दौलत का दिखावा बिल्कुल नहीं भाता था. इसी वजह से उन्होंने हार पहनने से मना कर दिया. इस बात को लेकर दोनों में ऐसी अनबन हुई कि जमनालाल घर छोड़कर चले गए. ये तब की बात है जब जमनालाल 17 साल के थे.

इतना ही नहीं बाद में जमनालाल ने अपने बच्छराज को एक स्टाम्प पेपर पर लिखकर भेजा कि उन्हें उनकी संपत्ति से कोई लगाव नहीं है. उन्होंने लिखा था कि, "मैं कुछ लेकर नहीं जा रहा हूं. तन पर जो कपड़े थे, बस वही पहने जा रहा हूं. आप निश्चिंत रहें. मैं जीवन में कभी आपका एक पैसा भी लेने के लिए अदालत नहीं जाऊंगा. इसलिए ये कानूनी दस्तावेज बनाकर भेज रहा हूं.' हालांकि सेठ बच्छराज का जमनालाल से मोह नहीं टूटा और उन्होंने जमनालाल को ढूंढ़ लिया. इसे बाद उन्हें घर आने के लिए मनाया गया और वह घर आ गए लेकिन संपत्ति का त्याग कर चुके थे. इसके बाद जब विरासत में उन्हें संपत्ति मिली, तो उन्होंने उस संपत्ति को दान के रूप में ही खर्च किया. उनके बाद बजाज ग्रुप की पूरी कमान उनके बड़े बेटे कमलनयन बजाज ने संभाली. जमनालाल बजाज के दूसरे बेटे रामकृष्ण बजाज थे.

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जमनालाल द्वारा सेठ बच्छराज को 1907 में, पारिवारिक संपत्ति पर दावा छोड़ते हुए लिखा गया खत (Image: https://www.jamnalalbajajfoundation.org/)

आध्यात्मिक खोजयात्रा शुरू

युवा जमनालाल के दिल में तो कुछ और था. उनके भीतर आध्यात्मिक खोजयात्रा शुरू हो चुकी थी और वह किसी सच्चे कर्मयोगी गुरु की तलाश में भटक रहे थे. इस क्रम में पहले वह मदनमोहन मालवीय से मिले. कुछ समय तक वह रबीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ भी रहे. अन्य कई साधुओं और धर्मगुरुओं से भी वह जाकर मिले. धीरे-धीरे जमनालाल स्वाधीनता आन्दोलन में जुड़ते गए. 1906 में जब बाल गंगाधर तिलक ने अपनी मराठी पत्रिका केसरी का हिन्दी संस्करण निकालने के लिए विज्ञापन दिया तो युवा जमनालाल ने एक रुपया प्रतिदिन के हिसाब से मिलने वाले जेब खर्च से जमा किए गए 100 रु तिलक को जाकर दे दिए.

इस बीच जमनालाल, महात्मा गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में किए जा रहे सत्याग्रह की खबरों को पढ़ते और उनसे बहुत प्रभावित होते रहे. 1915 में भारत वापस लौटने के बाद जब गांधीजी ने साबरमती में अपना आश्रम बनाया तो जमनालाल कई बार कुछ दिन वहां रहकर गांधीजी की कार्यप्रणाली और उनके व्यक्तित्व को समझने की कोशिश करते रहे. गांधीजी में उन्हें सन्त रामदास के उस वचन की झलक मिली कि "उसी को अपना गुरु मानकर शीष नवाओ, जिसकी कथनी और करनी एक हो." गांधीजी के रूप में जमनालाल को अपना गुरु मिल चुका था. उन्होंने पूरी तरह से गांधीजी को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया.

आश्रम वर्धा में आकर बनाएं...

जमनालाल, गांधीजी से अक्सर यह अनुरोध करते कि गांधी अपना आश्रम वर्धा में आकर बनाएं, जहां उन्हें जमनालाल की ओर से हर प्रकार का सहयोग मिलेगा. उनके बहुत कहने पर गांधीजी ने अपनी जगह 1921 में विनोबा भावे को वर्धा भेजा और कहा कि वह जाकर वहां के ‘सत्याग्रह आश्रम’ की जिम्मेदारी संभालें. विनोबा पूरे बजाज परिवार के कुलगुरु की तरह वहां जा बसे. विनोबा और जमनालाल बजाज के बीच संबंध बेहद आत्मीय थे. वर्धा में स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र बनाने के लिए जमनालाल ने अपनी ओर से 20 एकड़ जमीन भी दान की थी. वर्धा में सेवाग्राम, जमनालाल बजाज की ही देन है, जिसकी पूरी जमीन जमनालाल ने दान की थी.

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Image: https://www.jamnalalbajajfoundation.org

जब गांधीजी को पिता के रूप में गोद लेना चाहा

1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के दौरान जमनालाल ने एक अजीब सा प्रस्ताव महात्मा गांधी के सामने रख दिया. उन्होने गांधीजी से अनुरोध किया कि वह उनका ‘पांचवां बेटा’ बनना चाहते हैं और उन्हें अपने पिता के रूप में ‘गोद लेना’ चाहते हैं. पहले पहल तो इस अजीब प्रस्ताव को सुनकर गांधीजी को आश्चर्य हुआ, लेकिन बाद में उन्होंने इस पर अपनी स्वीकृति दे दी.

स्वाधीनता संग्राम में योगदान

जमनालाल 1921 में असहयोग आन्दोलन, 1923 में नागपुर झंडा सत्याग्रह, 1929 में साइमन कमीशन का बहिष्कार, 1930 में डांडी यात्रा, 1941 मं एंटी वॉर कैंपेन और अन्य कई आन्दोलनों में सक्रिय तौर पर शामिल रहे. यहां तक की डांडी मार्च में महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के बाद जमनालाल बजाज को भी दो वर्ष के लिए नासिक सेन्ट्रल जेल में रहना पड़ा. खुद महात्मा गांधी ने उनके योगदान का जिक्र करते हुए कहा था कि मैं कोई काम नहीं कर सकता, यदि जमनालाल बजाज की ओर से तन, मन और धन से सहयोग न हो. मुझे और उन्हें राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है.

जमनालाल ने 1939 में जयपुर सत्याग्रह की अगुवाई की. बिजोलिया और सीकर में भी क्रांति की अलख जगाई. वह गांधी सेवा संघ के फाउंडर-प्रेसिडेंट थे और ऑल इंडिया खद्दर बोर्ड के चेयरमैन रहे. इतना ही नहीं शिक्षा के माध्यम से महिलाओं के उत्थान के लिए उन्होंने वर्धा में महिला आश्रम और अजमेर में महिला शिक्षा सदन को स्थापित किया. भारतीय स्वतंत्रता के महानायकों में से एक रहे बालगंगाधर तिलक का 1920 में निधन हुआ था और 1921 में उनके नाम पर ऑल इंडिया तिलक मेमोरियल फंड बना था. इसमें जमनालाल बजाज ने उस समय 1 करोड़ रुपये की बड़ी पूंजी दान की थी. इस राशि का उपयोग देश भर में खादी की लोकप्रियता के लिए किया गया था. करीब दो दशकों तक वह कांग्रेस के लिए एक 'फाइनेंसर' की तरह रहे.

अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ यूं जताया विरोध

जमनालाल बजाज ने बन्दूक और रिवॉल्वर जमा कराते हुए अपना लाइसेंस भी वापस कर दिया. अदालतों का बहिष्कार करते हुए अपने सारे मुकदमे वापस ले लिए. मध्यस्थता के जरिए विवादों को निपटाने के लिए अपने साथी व्यवसायियों को मनाया. जिन वकीलों ने आज़ादी की लड़ाई के लिए अपनी वकालत छोड़ दी, उनके निर्वाह के लिए उन्होंने कांग्रेस को एक लाख रुपये का अलग से दान दिया.

समाज सुधारक

कहते हैं कि बदलाव या सुधार की शुरुआत अपने घर से करनी चाहिए. जमनालाल ने ऐसा ही किया. उन्होंने सामाजिक सुधारों की शुरुआत सबसे पहले अपने घर से ही की. असहयोग आन्दोलन के समय जब विदेशी कपड़ों का बहिष्कार शुरू हुआ तो उन्होंने सबसे पहले अपने घर के कीमती और रेशमी कपड़ों को बैलगाड़ी पर लदवाकर शहर के बीचोंबीच उसकी होली जलवाई. उनकी पत्नी जानकीदेवी ने भी सोने और चांदी जड़े हुए अपने कपड़ों को आग के हवाले कर दिया और दोनों ने आजीवन खादी पहनने का व्रत ले लिया.

पहले विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार को आर्थिक सहयोग दिया था. जिसके बाद उन्हें मानद मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया. जब उन्होंने युद्ध कोष में धन दिया तो उन्हें ‘राय बहादुर’ की उपाधि से सम्मानित किया. हालांकि स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनने के बाद उन्होंने अंग्रेजों को आर्थिक सहयोग देना बंद कर दिया. 1921 में जब वह असहयोग आंदोलन से जुड़े तब उन्होंने अपनी राय बहादुर और मानद मजिस्ट्रेट की उपाधि अंग्रेजी सरकार को वापस लौटा दी.

असहयोग आंदोलन के दौरान ब्रिटिश शासन के खिलाफ तीखा भाषण देने और सत्याग्रहियों का नेतृत्व करने के लिए 18 जून, 1921 को जमनालाल को गिरफ़्तार कर लिया गया. उन्हें डेढ़ वर्ष के सश्रम कारावास की कठोर सजा और 3000 रुपये का दंड भी हुआ. धूलिया जेल के अधिकारियों ने उन्हें ए क्लास कैदी का स्टेटस दिया लेकिन जमनालाल ने अपने साथियों के साथ सी क्लास कैदी बनना पसंद किया. उसके बाद 1935 के अधिनियम के तहत जब कांग्रेस ने चुनाव लड़ने का फैसला किया तो जमनालाल ने इसका खुला विरोध किया था. बाद में जब चुने गए विधायक और मंत्री ब्रिटेन की राजशाही के नाम पर शपथ-ग्रहण करने लगे, तो भी उन्होंने इस पर ऐतराज जताया. कांग्रेस के इस निर्णय से जमनालाल कभी संतुष्ट न हो सके.

हालांकि जमनालाल को कभी किसी पद की इच्छा नहीं रही. 1937-38 में हरिपुरा में उन्हीं को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने पर सहमति हो चुकी थी लेकिन उन्होंने गांधीजी से कहा कि यूरोप से लौटे सुभाष बाबू को यह सम्मान और अवसर दिया जाना चाहिए.

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Image: https://www.jamnalalbajajfoundation.org/

दलितों के लिए खोले परिवार के मंदिर के दरवाजे

उन्होंने पर्दा प्रथा को सबसे पहले अपने घर से खत्म किया, अपने परिवार के स्वामित्व वाले मंदिर के दरवाजे हरिजनों, जिन्हें अछूत भी कहा जाता था, के लिए खोले. ​यह मंदिर भारत में ऐसा करने वाला पहला मंदिर था. सनातनियों के घोर विरोध के बावजूद वर्धा स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर में दलितों का प्रवेश कराने में उन्होंने विनोबा के नेतृत्व में सफलता हासिल की. इतना ही नहीं अपने घर के प्रांगण, खेतों और बगीचों में स्थित कुओं को उन्होंने दलितों के लिए खोल दिया. उन्होंने निर्धन परिवार के बच्चों की शादियां करवाईं. इस वजह से गांधी जी स्नेह से उन्हें ‘ शादी काका’ भी कहते थे. जमनालाल ने गो-सेवा (गाय संरक्षण), खादी के प्रसार व विकास, ग्रामीण विकास

के क्षेत्र में भी अग्रणी काम किया. उन्होंने हिंदी के उपयोग का प्रचार करने के लिए एक अखिल भारतीय दौरा भी किया. मद्रास में हिंदी साहित्य समेलन के प्रेसिडेंट के रूप में उनका संबोधन भारत की हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के आयामों का एक व्यापक विस्तार है.

उल्लेखनीय कार्य

  • राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के लिये भूमि-दान
  • सस्ता साहित्य मंडल की स्थापना के लिये धन की व्यवस्था

1942 को इस दुनिया को अलविदा

11 फरवरी, 1942 को अकस्मात ही जमनालाल का देहान्त हो गया. मस्तिष्क की नस फट जाने के कारण सेठ जमनालाल इस दुनिया को अलविदा कह गए. उनकी स्मृति में सामाजिक क्षेत्र में सराहनीय कार्य करने के लिए ‘जमनालाल बजाज पुरस्कार’ की स्थापना की गई. उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी जानकीदेवी ने स्वयं को देशसेवा, गौ सेवा में समर्पित कर दिया. विनोबा के भूदान आन्दोलन में भी वह उनके साथ रहीं. जमनालाल बजाज के देश के लिए किए गए कार्यों को सम्मानित करने के लिए सरकार ने 1970 में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया. साथ ही आधिकारिक तौर पर 1990 में जन्म शताब्दी वर्ष का जश्न मनाया. उनके नाम पर जमनालाल बजाज फाउंडेशन भी है, जिसकी स्थापना 1977 में हुई.