कश्मीर घाटी की रग्बी स्टार इर्तिका अयूब बनीं मिसाल
"रग्बी स्टॉर इर्तिका अयूब कहती हैं कि कश्मीर घाटी में खिलाड़ी लड़कियों को सबसे पहले अपने परिवार की सरहदें लांघना मुश्किल होता है। फिर जान-पहचान के लोग शादी-ब्याह के ताने मारते हुए रुकावट बन जाते हैं। खुद उन्हे ऐसी तमाम मुश्किलें झेलनी पड़ी हैं। डिप्रेशन में रहना पड़ा है लेकिन वह हार नहीं मानी हैं, न कभी मानेंगी।"
‘एमिनेन्स अवॉर्ड्स’ से सम्मानित कश्मीर घाटी की सबसे कम उम्र, चौबीस साल की स्टॉर खिलाड़ी इर्तिका अयूब को ये बात अच्छी नहीं लगती है कि खेल भी जेंडर (लैंगिक) अनुपात को प्राथमिकता दी जाए। उनका मानना है कि इससे कुल मिलाकर सामूहिक स्तर पर खेल का ही नुकसान होता है। वह कहती हैं कि पश्चिमी देश चाहे जितने विकसित हो चुके हैं, उनके साथ ही, आज पूरी दुनिया में लड़कों का खेल अलग, लड़कियों का खेल अलग, यानी ये सिस्टम खांचों में बांट दिया गया है, जबकि यह वर्गीकरण खिलाड़ी की योग्यता के अनुपात में होना चाहिए।
ऐसा भी हो सकता है कि एक लड़के की तुलना में कोई लड़की ज्यादा बेहतर टीम की कप्तान साबित हो, तो उसे ही अवसर दिया जाना चाहिए। ऐसा तभी संभव हो सकता है, जब जेंडर लेबल पर कॉमन टीम हो यानी लड़के और लड़कियां एक साथ। ट्रेडिशनल टीम उसी पुराने खांचें में दर्शकों के लिए भी उबाऊ हो चुकी हैं। ट्रेंड बदले, नए फॉर्मूले में टीमों का गठन हो, तो हमारे नए-पुराने सभी खेल और भी ज्यादा रोमांचक हो सकते हैं। जेंडर के आधार पर टीमों के गठन के अपने लिमिटेशंस होते हैं, इससे कुल मिलाकर बेहतर खेलने वाली लड़कियों के साथ भी वही रवैया अख्तियार किया जा रहा है, जैसा कि घरों के भीतर महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है।
अपने इन्ही क्रांतिकारी विचारों के कारण इर्तिका अयूब संघर्ष करती हुई खेल की दुनिया में अपनी नई पहचान बना चुकी हैं। इसके लिए इस रग्बी स्टॉर को बड़े अजीब-अजीब तरह के संघर्ष करने पड़े हैं। रग्बी से पहले वह अपनी उम्र के लड़कों के साथ फुटबॉल खेला करती थीं लेकिन पिछले आठ वर्षों से सिर्फ रग्बी खेल रही हैं।
वह अब तक कश्मीर घाटी में कुल 14 स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं, जिनमें सात राज्य स्तर पर और सात जिला स्तर पर जीती हैं। वह जम्मू-कश्मीर की सबसे कम उम्र की रग्बी विकास अधिकारी (आरडीओ) हैं। वह अब तक स्कूल-कॉलेजों के सैकड़ों बच्चों को भी प्रशिक्षित कर चुकी हैं।
इर्तिका एक ऐसा खेल खेल रही हैं, जो कुछ साल पहले तक कश्मीर में मौजूद ही नहीं था। इस समय वह पचास कश्मीरी लड़कियों को रग्बी सिखा रही हैं। आज वह कश्मीर की सबसे जानी-पहचानी शख्सियत बन चुकी हैं।
इर्तिका बताती हैं कि अपने संघर्ष की शुरुआत तो उन्हे अपने घर से ही करनी पड़ी थी। उनका खेलना शुरू में उनके परिवार को अच्छा नहीं लगता था लेकिन उनकी खेल गतिविधियों पर उनके पिता शेख मोहम्मद उस वक़्त गर्व करते थे, जब टीवी पर अथवा पत्र-पत्रिकाओं में उनकी तस्वीरें देखते थे। उन्होंने अपने स्कूल टूर्नामेंट के साथ खेलना शुरू किया था। बाद में वह राष्ट्रीय खेलों में जाने लगीं। उन्ही दिनो उनके साथ एक दुखद वाकया हुआ। खेल के दौरान उनकी नाक टूट गई। परिवार के लोग एक बार फिर बिफर उठे। जान-पहचान के लोग भी कहने लगे कि अब तो इस लड़की से कोई शादी भी नहीं करेगा। एक बार तो वह डिप्रेशन में चली गईं। तब भी सिर्फ पिता ने उनका साथ निभाया।
इर्तिका खेल में राजनीति का शिकार भी हुईं लेकिन उन्होंने अपने कदम पीछे नहीं लौटाए। जब वह हाईस्कूल में पढ़ रही थीं, उन्हे नहीं मालूम था कि रग्बी कौन सा खेल होता है। उनके स्पोर्ट्स टीचर ने सबसे पहले रग्बी खेल में भाग लेने के लिए कहा और वह खेलने लगीं। एक दिन डिस्टिक टूर्नामेंट में जब उन्होंने गोल्ड मेडल जीत लिया तो सफल रग्बी खिलाड़ी के रूप में उनका सिक्का जम गया। फिर उनका नेशनल टूर्नामेंट में चयन हो गया लेकिन परिवार वाले फिर रुकावट बन गए। वे उन्हे कश्मीर से बाहर नहीं भेजना चाहते थे। उनके चाचा के समझाने पर परिवार वाले किसी तरह सहमत हुए और उन्होंने नेशनल टूर्नामेंट में सिल्वर जीत लिया।
इर्तिका बताती हैं कि एक बार तो उनके सीनियर ही उनकी इज्जत पर सवाल उठाने लगे। धमका कर उनसे रिजाइन ले लिया गया। वह छह महीने तक डिप्रेश्ड रहीं लेकिन पापा मोटिवेट करते रहे। वह संघर्ष के लिए एक बार फिर उठ खड़ी हुईं और अकेले रग्बी लड़कियों की कोचिंग करने लगीं।
अब इर्तिका उन लड़कियों को सप्ताह में तीन दिन रिफ्रेशमेंट भी देती हैं। वह चाहती हैं कि उनकी सिखाई लड़कियां नेशनल, इंटरनेशनल लेबल पर खेलें। इर्तिका के पास खेल के इक्विपमेंट्स नहीं हैं।
विगत दिसंबर में गवर्नर के अडवाइजर ने इक्विपमेंट्स मंजूर किए थे लेकिन वे अभी तक मिले नहीं हैं। 'रग्बी ऑल इंडिया फेडरेशन' ने अब उनको रग्बी डिवेलपमेंट ऑफिसर नियुक्त कर दिया है। इर्तिका कहती हैं कि उनको उसी तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा है, जैसेकि अन्य कश्मीरी लड़कियों को करना पड़ता है।
वर्तमान में इर्तिका को अपने परिवार का पूरा-पूरा सपोर्ट है। वह आज भी फुटबॉल, खो-खो, बैडमिंटन, वॉलीबॉल या क्रिकेट में भी रुचि रखती हैं। अब तक वह एक लंबा सफर तय कर चुकी हैं।
इर्तिका का मानना है कि हर तरह के खेल में कश्मीरियों की बड़ी प्रतिभा है। यहां की लड़कियां चाहती हैं कि वे किसी भी खेल में शामिल हों लेकिन उनको कोई मौका नहीं दिया जा रहा है। उन्हे भी घर-परिवार की बंदिशों का सामना करना पड़ रहा है। इन लड़कियों को जम्मू-कश्मीर खेल परिषद से बड़ी उम्मीदें हैं।