बिहार का यह एनजीओ ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री मॉडलों की मदद से पैदावार बढ़ाने में कर रहा किसानों की मदद
भारत की कामगार आबादी का लगभग 44 प्रतिशत हिस्सा कृषि या इससे जुड़े अन्य व्यवसायों के माध्यम से रोज़गार कमा रहा है। इस सेक्टर पर आजीविका के लिए इतनी निर्भरता होने के बाद भी देश में बड़ी संख्या में किसान ऋण के भारत से दबे हुए हैं और अपनी आजीविका को सुचारू रूप से चलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
नीति आयोग द्वारा जारी 2011-12 की रिपोर्ट के अनुसार, आजीविका के लिए खेती पर निर्भर परिवारों का 1/5 हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे था। इस स्थिति के प्रमुख कारण हैं, ज़मीन और मिट्टी पर आवश्यकता से अधिक पड़ने वाला दबाव, खेती की आधुनिक तकनीकों के बारे में जागरूकता का अभाव और पर्यावरण में बदलाव आदि।
परिस्थिति की गंभीरता को भांपते हुए कुमार नीरज और धरमजीत कुमार ने 2017 में खेती स्टार्टअप की शुरुआत की। बिहार के इस गैर-सरकारी संगठन का उद्देश्य है कि किसानों को ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री के बारे में जानकारी देना और इसके इस्तेमाल के माध्यम से पैदावार को बढ़ाने में मदद करना।
ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री मॉडल में एक से ज़्यादा फ़सलें उगाई जाती हैं, जिसमें फ़सलों के साथ पेड़-पौधों को भी उगाया जाता है। इसकी ख़ासियत यह है कि इसकी मदद से न सिर्फ़ मिट्टी की गुणवत्ता बेहतर होती है, बल्कि ऊर्जा बचाने और उत्पादन बढ़ाने में भी यह मददगार होता है। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में अर्थशास्त्री और भूगोलवेत्ता जे. रसेल स्मिथ ने इसकी अवधारणा प्रस्तुत की थी लेकिन आज भी किसानों का एक बड़ा वर्ग इससे परिचित नहीं है।
ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री के विषय में अधिक से अधिक किसानों को जागरूक करने के उद्देश्य के साथ खेती स्टार्टअप निशुल्क कार्यशालाओं और प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन कराता है, जिनमें पर्माकल्चर, ऐले क्रॉपिंग (पेड़ों की श्रृंखला के साथ फ़सलें लगाना), विंड ब्रेक्स, अपलैंड बफ़र्स (संरक्षण के लिए पानी के स्रोत के पास पेड़ लगाना) आदि विधियां शामिल हैं। संगठन ज़रूरत के हिसाब से ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री मॉडल्स को अपनाने में भी किसानों की मदद करता है।
संगठन के को-फ़ाउंडर कुमार नीरज ने योरस्टोरी को बताया,
"पिछले दो सालों में खेती, बिहार के लखीसराय में स्थित डुरडिह गांव और आस-पास के गांवों के 2 हज़ार से ज़्यादा किसानों तक पहुंच चुका है।"
कहां से हुई शुरुआत
26 वर्षीय कुमार नीरज जब कर्नाटक स्टेट लॉ यूनिवर्सिटी, धारवाड़ से लॉ की पढ़ाई कर रहे थे, तब अक्सर वह अपने गांव डुरडीह जाया करते थे। उन्होंने पाया कि अधिकतर किसान उत्पादन में अनियमितता से जूझ रहे थे। सिंचाई और मिट्टी की ख़राब गुणवत्ता की समस्याएं प्रमुख थीं।
कुमार पुराना समय याद करते हुए बताते हैं,
"मेरे गांव में और आस-पास के इलाके के किसान अपने उत्पादन के लिए मॉनसून पर निर्भर हुआ करते थे। मैं इस चुनौती को दूर करना चाहता था। इस दौरान ही मुझे तिरुवनंतपुरम में कंथारी इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल ऑन्रप्रन्योरशिप से सोशल चेंज में एक साल का लीडरशिप कोर्स करने का मौक़ा मिला। मैंने इस अवसर को भुनाया और जमकर फ़ील्ड वर्क किया। खेतों में काम किया और विभिन्न प्रकार के खेती के तरीक़ों के बारे में जाना। इस दौरान ही मुझे ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री और उसके लाभों के बारे में जानकारी मिली।"
अपने मेंटर्स सैब्रिए टेनबर्कन और रॉलैंड फ़्रूटिग के साथ मिलकर उन्होंने लंबे समय तक ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री की तकनीकों पर काम किया। जब उन्हें अपने ऊपर भरोसा हो गया, तब उन्होंने 2017 में 'खेती' एनजीओ की शुरुआत की।
संगठन की शुरुआत बूटस्ट्रैप्ड फ़ंडिंग के साथ हुई थी। हाल में संगठन के पास 4 लोगों की मुख्य टीम है और नियमित रूप से कई स्वयंसेवक संगठन के लिए काम करते रहते हैं।
खेती की शुरुआत करने के बाद एनजीओ के को-फ़ाउंडर्स ने अपनी पूरी ऊर्जा एक सफल ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री मॉडल विकसित करने में लगाई। इसके लिए उन्हें सृष्टि फ़ाउंडेशन की ओर से आर्थिक मदद भी मिली। उन्होंने डुरडीह गांव से 6 किसानों की एक टीम बनाई और पुडुचेरी में एक ज़मीन पर ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री का एक मॉडल भी लगाया। इस मॉडल की सफलता के बाद उन्हें किसानों का साथ मिला और किसानों ने ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री मॉडल को अपने खेतों में स्थापित करने पर हामी भरी।
कुमार ने जानकारी दी कि खेती की टीम योजना बना रही है कि अगले साल से प्रशिक्षण सत्रों के अलावा एक फ़ेलोशिप प्रोग्राम की भी शुरुआत की जाए, जिसमें लोगों को यह सिखाया जाए कि वे अपनी खेती की ज़मीन को ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री मॉडलों के हिसाब से कैसे तैयार कर सकते हैं। कुमार का मानना है कि इस प्रोग्राम की मदद से विभिन्न पृष्ठभूमियों से संबंधित लोगों को ऐग्रोफ़ॉरेस्ट्री मॉडलों और उसके फ़ायदों को करीब से समझने का मौक़ा मिलेगा।