Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

'गर्व' की बात: खास टॉयलेट बनाकर देश को खुले में शौच से मुक्त कराने में जुटा यह शख्स

 'गर्व' की बात: खास टॉयलेट बनाकर देश को खुले में शौच से मुक्त कराने में जुटा यह शख्स

Thursday October 31, 2019 , 9 min Read

भारत देश में खुले में शौच यानी ओपन डेफेकेशन एक गंभीर समस्या है। कई लोग निजी रूप से तो देश में आई कई सरकारों ने दशकों से भारत को खुले में शौच से मुक्त देश बनाने की कोशिश की है। इस दिशा में अभी भी काम हो रहा है। वैश्विक स्तर की बात करें तो दुनियाभर में करीब 2.3 अरब लोगों के पास आधारभूत टॉयलेट की सुविधा नहीं है। वहीं, भारत में यह संख्या लगभग 60 करोड़ है। इसमें से 50 लाख लोग शहरों की झोपड़-पट्टियों में रहते हैं। 


साल 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया था। तब से ग्रामीण और मेट्रोपॉलिटन शहरों में लोगों के लिए शौचालय जैसी बुनियादी स्वच्छता सुविधाएं उपलब्ध हो गई हैं। हालांकि, ये शौचालय सही रख-रखाव न होने की वजह से जल्द खराब हो जाते हैं और मुख्य समस्या जस की तस बनी रहती है। अब खुले में शौच की समस्या से निपटने के लिए फरीदाबाद स्थित सोशल एंटरप्राइज यानी सामाजिक उद्यम 'गर्व टॉयलेट्स' IoT (इंटरनेट ऑफ थिंग्स) टेक्नोलॉजी वाले शौचालय बना रहा है।


k

गर्व टॉयलेट्स के साथ मयंक मिधा


मयंक मिधा ने अपनी पत्नी मेघा भटनागर मिधा के साथ मिलकर 2017 में गर्व टॉयलेट्स की स्थापना की थी। इसने अब तक देशभर में 721 शौचालय बनाए हैं। गर्व टॉयलेट्स ने घाना, नाइजीरिया, भूटान और नेपाल जैसे चार अन्य देशों में भी काम किया है। यह जितने भी सार्वजनिक शौचालय बनाती है, उसमें IoT सुविधा होती है। इसमें सोलर पैनल, बैटरी पैक, ऑटो फ्लश, फर्श की सफाई करने वाली तकनीक और बायोडीजेस्टर टैंक जैसी सहूलियत भी उपलब्ध रहती है। इन शौचालयों में आम लोगों के साथ दिव्यांगों का भी ख्याल रखा गया है। यानी इनमें इंडियन के साथ वेस्टर्न स्टाइल वाले कमोड भी होते हैं। ये इस तरह बनाए जाते हैं कि इन्हें आराम से एक जगह से दूसरी जगह पर ले जाया जा सकता है।


अपनी पहल के बारे में योरस्टोरी को विस्तार से बताते हुए मयंक कहते हैं,

'अगर किसी एनजीओ या सीएसआर ग्रुप जैसे ग्राहक को सिर्फ एक या दो शौचालय की जरूरत है तो पूरे सेटअप को चंद घंटों में ही खत्म किया जा सकता है। इसके अलावा हमारे शौचालय में पारंपरिक शौचालयों के उलट बिजली की खपत नहीं होती है। यह पूरी तरह से रिन्यूएबल है। अगर सही मायनों में कहें तो हमने सालाना 102.4 टन CO2 (कॉर्बन डाइऑक्साइड) का उत्सर्जन घटा दिया है।'

सुरक्षित और स्वच्छ अभियान

इलेक्ट्रॉनिक्स और कम्युनिकेशन इंजीनियर मयंक जब इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आनंद से रूरल मैनेजमेंट में एमबीए की डिग्री ले रहे थे तो उन्हें देश के स्वच्छता मसलों से जुड़े आकंड़े मिले।




वह बताते हैं,

'मेरे करियर का एक बड़ा हिस्सा मैन्युफैक्चरिंग सेगमेंट में रहा है। मैं एयरटेल और टेलीनॉर के साथ करता था। वहां हम बीटीएस कैबिनेट जैसे टेलीकॉम इक्विपमेंट दे रहे थे, जो टॉयलेट कैबिनेट से मिलते जुलते थे।'


मयंक देश के सार्वजनिक शौचालयों से संबंधित समस्याओं से वाकिफ थे। उनके मन में सवाल आया कि क्या इस टेलीकॉम इक्विपमेंट का मेटल से बने टॉयलेट कैबिनेट्स में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी आइडिया के साथ मयंक ने 2014 में अपनी पत्नी के साथ मेटल वाले टिकाऊ सार्वजनिक शौचालय बनाने का प्रोजेक्ट शुरू किया। गर्व शौचालय को 2015 में रजिस्टर्ड कराया गया था। उन्होंने टॉयलेट स्ट्रक्चर बनाकर कंपनी में 10 लाख रुपये का निवेश किया।


k

गर्व टॉयलेट्स

बाकी स्टार्टअप्स की तरह ही इस स्टार्टअप को भी कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इनमें स्ट्रक्चर की महंगी लागत से लेकर ग्राहकों को उन्हें खरीदने के लिए प्रेरित करना शामिल था। शुरुआती दो साल तक उनको सरकार या किसी दूसरे एनजीओ से किसी भी तरह की मदद नहीं मिली।


मयंक ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा,

'हम लोगों को समझाते हैं कि यह मॉडल तेजी से आगे बढ़ेगा। ये टॉयलेट उस फैक्ट्री में बनाए जाते हैं, जिसकी क्षमता हर महीने 300 टॉयलेट बनाने की है। अगर ये टॉयलेट्स बनाने के लिए किसी ठेकेदार को ठेका दिया जाए तो वह इन्हें बनाने के लिए 6 महीने का समय लेगा। लंबे समय की बात की जाए तो स्मार्ट टॉयलेट बनाने की लागत उन्हें ऑपरेट करने की लागत के समान होगी। इसकी तुलना में आम टॉयलेट के रखरखाव की लागत हमेशा ही अधिक रहेगी।'

पति-पत्नी की यह जोड़ी अपने टॉयलेट्स को सिंपल और इजी-टु-यूज बनाने के लिए अत्याधुनिक तकनीक का प्रयोग करना चाहती थी और इसी कारण उन्हें नई तकनीक को समाहित करने जैसी परेशानियों का सामना भी करना पड़ा। साल 2017 में इस जोड़ी ने फरीदाबाद के म्युनसिपल कॉर्पोरेशन के साथ मिलकर पायलट प्रोजेक्ट चलाया। हालांकि प्रोजेक्ट उतना सफल नहीं हुआ क्योंकि कॉर्पोरेशन टॉयलेट के संचालन को बढ़ाने में कामयाब नहीं हुआ। यहीं से उनकी टीम को कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के लिए अपने कॉन्सेप्ट की ओर जाना पड़ा।




स्वच्छता को बढ़ावा देना

उसी साल यानी साल 2017 में ही इस स्टार्टअप को एक फाउंडेशन ने पटना के एक सरकारी स्कूल में टॉयलेट बनाने और उनकी मदद करने के लिए इनवाइट किया। इस स्कूल में बेसिक सेटअप पहले से ही किया जा चुका था। इस पूरे प्रोजेक्ट को कोका-कोला कंपनी से फंडिंग मिली। आज दिल्ली और बिहार के करीब 18,000 स्टूडेंट्स गर्व टॉयलेट का प्रयोग कर रहे हैं।


k

मयंक बताते हैं,

'हमारा लक्ष्य लोगों के बीच स्वच्छता की आदतों को बढ़ावा देना है। जब हम किसी स्कूल में जाते हैं तो वहां के अधिकारी हमें बताते हैं कि साफ टॉयलेट की व्यवस्था होने के कारण अब स्टूडेंट्स क्लास लेने में पहले से ज्यादा उत्साह दिखाने लगे हैं।'


इस छोटी सफलता के बाद, मयंक ने लोगों के बीच अच्छा रिस्पॉन्स देखा। इसके बाद मयंक और उनकी टीम ने कई CSR और प्राइवेट कंपनियों के लिए 100 प्री-फैब्रिकेटेड टॉयलेट बनाए। साल 2018 में टीम ने 700 से अधिक टॉयलेट इंस्टॉल किए जिनमें से 358 बेसिक थे और इनमें किसी भी तरह की इलेक्ट्रॉनिक सुविधाएं नहीं थीं।


डिजाइन के बारे में बात करते हुए मयंक ने बताया,

'सभी टॉयलेट का निर्माण और उनका डिजाइन इन-हाउस यानी फैक्ट्री में होता है। केवल इलेक्ट्रॉनिक काम ही बाहर से करवाया जाता है। लागत की बात करें तो सभी इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं वाले टॉयलेट की लागत 2.7 लाख रुपये से लेकर 4 लाख रुपये तक होती है। अगर इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं को हटा दिया जाए तो एक टॉयलेट की लागत 1.8 लाख रुपये हो जाती है।'


IoT (इंटरनेट ऑफ थिंग्स) सुविधाओं वाले टॉयलेट की मदद से मयंक की टीम को टॉयलेट उपयोग करने वाले लोगों के व्यवहार को समझ और उसका विश्लेषण कर सकती है। जैसे- फ्रेश होने के बाद फ्लश करना, हाथ धोना, सेवा की गुणवत्ता स्तर को बढ़ाना और यह देखना कि कहीं कोई टॉयलेट के सेटअप से तोड़फोड़ तो नहीं करता।


मयंक कहते हैं,

'सिस्टम सेटअप हमारी टीम को टॉयलेट की हर कमी के बारे में बताता है क्योंकि यह टॉयलेट में जहां भी कमी हो या कुछ हिस्सा टूटा-फूटा हो तो उसका फोटो भेजता है।'



प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की शर्तों के तौर पर इन टॉयलेट्स में 2 लीटर या उससे कम पानी का प्रयोग होता है। वहीं अगर बात करें परंपरागत टॉयलेट की तो इनमें 5 से 6 लीटर पानी का प्रयोग होता है। इसकी एक वजह यह भी है कि गर्व टॉयलेट्स का पूरा स्ट्रक्चर स्टील से बना होता है और इसकी सफाई के लिए किसी भी तरह के केमिकल की आवश्यकता नहीं होती है। फिलहाल मयंक की टीम फरीदाबाद के पास स्थित एक बस्ती में सेटअप पर काम कर रही है। इसमें 4 लोगों के एक परिवार को इन टॉयलेट के प्रयोग के लिए हर महीने 250-300 रुपये खर्च करने होंगे। मयंक की टीम ही इन बस्तियों में रहने वाले लोगों के साफ-सफाई के प्रति व्यवहार का भी विश्लेषण करती है।


मयंक के अनुसार,

'यह उन एनजीओ के लिए जरूरी है जिन्होंने स्वच्छता के नए और सुरक्षित उपाय अपनाने के लिए गर्व टॉयलेट से साझेदारी की है।'

इन सबके अलावा मयंक की टीम ने नीदरलैंड सरकार के साथ भी काम किया है। नीदरलैंड सरकार ने घाना (प. अफ्रीकी देश) में मयंक के काम को स्पॉन्सर किया यानी वित्तीय और अन्य मदद उपलब्ध कराई। घाना में गर्व टॉयलेट्स ने पायलट प्रोजेक्ट के पार्ट के तौर पर दो टॉयलेट बनाए। इनका उद्देश्य लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव को जानना और 'लोग कैसे टॉयलेट को अपनाते हैं' के बारे में पता लगाना था। आगे मयंक कहते हैं, 'हमने नाइजीरिया और भूटान सरकार के साथ मिलकर भी काम किया है और अब हमें स्वच्छ भारत अभियान के तहत गर्व टॉयलेट के निर्माण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार से भी ऑर्डर मिला है।'

समर्थन, टीम और आगे का भविष्य

हाल ही में गर्व टॉयलेट्स को इन्वेंट कंपनी से अपना पहला मूल निवेश (सीड इन्वेस्टेमेंट) और मेंटरिंग (सलाह) सपॉर्ट मिला। इसी साल टीम ने अपने काम के लिए कुछ अनुदान (ग्रांट) राशि भी जीती। वर्तमान में गर्व टॉयलेट की कोर टीम में 6 सदस्य हैं। इनमें मयंक, मेघा और नेहा के साथ 3 और सदस्य शामिल हैं।


k

दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (डीएमआरसी) के साथ मिलकर मयंक ने शुरु किया है प्रोजेक्ट


कोर टीम के अलावा नॉन-कोर टीम में कुल 27 सदस्य हैं। इनमें से कुछ को कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर तो कुछ को जॉब पोर्टल के जरिए टीम में शामिल किया गया है। यह एक लंबी समयावधि वाला रखरखाव कॉन्ट्रैक्ट साइन करते हैं। मयंक की टीम टॉयलेट इंस्टाल करने के साथ-साथ उसके रखरखाव का भी पूरा ध्यान रखती है और उससे रेवेन्यू अर्जित करती है।


मयंक कहते हैं,

'हमने दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (डीएमआरसी) के साथ मिलकर एक प्रोजेक्ट शुरू किया है। इसमें पहले हम टॉयलेट इंस्टॉल करेंगे जिन्हें बाद में मेट्रो कार्ड से जोड़ा जाएगा। ऐसा होने के बाद यूजर्स अपने कार्ड से ही इन शौचालयों को प्रयोग में ले पाएंगे।'

रेवेन्यू के लिए शौचालयों की बाहरी दीवार का प्रयोग विज्ञापनों के लिए किया जा सकता है। अब कंपनी का प्लान ऐसे शौचालयों का सब्सक्रिप्शन आधारित मॉडल तैयार करने का है। इसमें उपयोगकर्ता सुविधा का लाभ लेने के लिए मनचाहा प्लान ले सकते हैं। इसके साथ ही लोगों के उपयोग के लिए गर्व टॉयलेट्स अपने शौचालयों के बाहर पीने के पानी का एटीएम (ड्रिंकिंग वाटर एटीएम) भी लगाएगा।