परिजनों से बिछड़े 48 हजार बच्चों को घर पहुंचा चुके हैं रामेश्वरम के मूर्ति माइक
आज के समय में, जबकि देश की तमाम जगहों पर आए दिन बच्चा चोरी के बहाने मॉब लिंचिंग जैसी अमानवीय वारदातें होती रहती हैं, रामेश्वरम् (तमिलनाडु) के 64 वर्षीय मूर्ति माइक पिछल पचास वर्षों में मेलों, उत्सवों के दौरान अपने परिजनों से बिछड़ गए लगभग 48 हजार बच्चों को उनके घर पहुंचा चुके हैं। अब तो उन्होंने इस काम को ही अपने जीवन का पहला और आख़िरी मकसद बना लिया है।
रामेश्वरम् (तमिलनाडु) के रहने वाला मूर्ति के नाम के साथ माइक शब्द कोई ऐसे ही नहीं चिपक गया। उसकी एक रोचक दास्तान है, वह जब आवाज लगा-लगाकर भीड़-भाड़ भरी जगहों पर खोए बच्चों को उनके परिजनों तक पहुंचने के लिए मुनादी के अंदाज में ढूंढने निकल पड़ते थे। उन दिनो दक्षिण भारत के धार्मिक उत्सवों में खोए बच्चों की सूचना देने वाली आवाज बरबस लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट कर लिया करती थी। वह आवाज मूर्ति की है, जो पिछले 50 वर्षों में 48 हजार बच्चों को उनके परिवारों तक पहुंचा चुके हैं।
बात 1964 की है। दस साल की उम्र में रामेश्वरम के एक होटल में जब उन्होंने अपनी टेबल से कुछ खाने के लिए आवाज लगाई थी, उनकी पीछे की चेयर पर बैठा एक पुलिस इंस्पेक्टर उनको थाने धर ले गया था। तब पहली बार खोए हुए बच्चे की घोषणा करने के लिए उनको पुलिस विभाग की तरफ से तैनात कर दिया गया। जब उन्होंने एक उत्सव के दौरान पहली बार माइक संभाला और पूरे दिन में तकरीबन बीस बच्चों को उनके परिजनों से मिलवाया, आईजी ने खुश होकर उन्हें सौ रुपए का इनाम दिया था।
मूर्ति के अनुसार उस जमाने में सौ रुपए की बड़ी कीमत थी। उसके बाद से वह दक्षिण भारत के धार्मिक उत्सवों में परिजनों से बिछड़ गए बच्चों के लिए घूम-घूमकर आवाज लगाने लगे और वही काम उनके जीवन का पहला मकसद बन गया। बचपन से ही उनकी आवाज भारी-भरकम रही है। वह जब माइक पर गूंजती है, दूर-दूर तक पहुंच जाती है। अब लोग उनको मूर्ति माइक के नाम से जानते हैं।
मूर्ति माइक बताते हैं, अपने 50 साल के सफर में उन्होंने तमिल, इंग्लिश, मराठी, हिंदी, गुजराती, तेलुगु और कन्नड़ भाषा में भी आवाज लगाना सीख लिया है। अब तो उनको रामेश्वरम तीर्थ स्थल के मेले में भी आवाज लगाने के लिए बुलाया जाता है। इस सफर में उनको खट्टे-मीठे दोनों तरह के अनुभव मिले हैं। उन्हे उन बच्चों के लिए अक्सर अफसोस रहता है, जिनको वह उनके परिजनों से नहीं मिला सके। वह बताते हैं कि एक बार एक मेले में एक लड़की खो गई, वह उसके लिए पूरे दिन भूखे रहकर आवाज लगाते रहे लेकिन शाम को उसका शव मंदिर के पास तालाब में तैरता हुआ मिला।
उस घटना ने मूर्ति को अंदर तक झकझोर कर रख दिया। वह काफी दिनों तक असहज और परेशान रहे। वह बताते हैं कि एक मुस्लिम उत्सव में तीन साल का गूंगा बहरा बच्चा शाहुल हामिद खो गया। उन्होंने घूम-घूमकर मेले में काफी आवाज लगाई, फिर भी जब वह नहीं मिला तो पुलिस के साथ मिलकर वह उसे आसपास के गांवों में ढूंढने निकल पड़े। आखिरकार वह एक घर में मिल तो गया लेकिन मूक-बधिर होने के कारण वह अपने परिजनों के बारे में कुछ बता पाने में असमर्थ था। वह काफी दिनो तक वह पुलिस के संरक्षण में रहा।
64 वर्षीय मूर्ति माइक कहते हैं कि जब कोई बिछड़ा बच्चा उनकी कोशिश से अपने घर वालों तक पहुंच जाता है, उस वक़्त वैसा सुख और सुकून उन्हे और किसी काम में नहीं मिलता है। इसलिए वह जब तक जिंदा हैं, यही काम करते रहेंगे। वह बताते हैं कि कई बार जान जोखिम में डालकर उनको अप्रिय स्थितियों का भी सामना करना पड़ता है। बच्चों के मिलने-मिलाने को लेकर विवाद भी पैदा हो जाता है लेकिन वैसे हालात में भी वह अपनी जिम्मेदारी से कत्तई डिगते नहीं हैं क्योंकि उन्हे पुलिस का भी संरक्षण रहता है।
मूर्ति सिर्फ अपने परिवारों से बिछड़ गए बच्चे ही नहीं तलाशते बल्कि जब किसी के पास चोरी का सामान देख लेते हैं, उसे प्रेम से लौटा देने के लिए प्रेरित भी करते हैं। एक धार्मिक उत्सव के दौरान एक महिला की सोने की चेन खो जाने पर वह जोर-जोर से आवाज लगाने लगे। कुछ ही देर में भीड़ के बीच से आकर एक व्यक्ति ने वह चेन महिला को लौटा दी। उन्हे अंदर से बड़ी तसल्ली मिलती है कि अब तक वह परिजनों से बिछड़ गए लगभग 48 हजार बच्चों को उनके घर पहुंचा चुके हैं।