My Relationship with Money: कुबेर बरसा नहीं, मन तरसा नहीं...
अभिवादन स्वीकार करिए रविकांत पारीक का. आज यहां इस कॉलम में, मैं कोई कहानी नहीं लिख रहा. ये एक डायलॉग है. यानि बातचीत. और इस डायलॉग की... इस बातचीत की थीम है My Relationship with Money.
इसकी शुरुआत मैं अपने मायने बयां करने से करता हूं; यह जानते हुए भी कि शुरुआत मायनों से नहीं की जाती. ये मुनासिब नहीं होता है. फिर भी ये हिमाक़त मैं करने जा रहा हूं. थोड़ा आज़ादा-मनिश, थोड़ा मनमर्जियां जो हूं.
आगे बढ़ते हैं. सो मैं कहूंगा कि पैसे के साथ आपका रिश्ता... सिर्फ आपका रिश्ता नहीं होता. ये आपके परिवार से भी जुड़ा होता है. परिवार की शुरूआत आपके माता-पिता से होती है. पैसे के साथ आपका रिश्ता— आपकी परवरिश का बेहद अहम हिस्सा होता है.
अब लौटते हैं डायलॉग पर. शुरूआत करते हैं बचपन से. बचपन मतलब स्कूल के दौर से. मैं किसी कॉन्वेंट स्कूल का प्रोडक्ट (आज की टर्म) नहीं था. कॉन्वेंट स्कूल से मेरा मतलब है वो इंग्लिश मीडियम वाले सर या जॉन आदि उपसर्गों से शुरू होने वाले स्कूल. ज्यादा बखान नहीं करूंगा. ऐसे में, घर में पॉकिट मनी वाला कल्चर न होना लाज़िम था. शायद आप में से अधिकांश इसे खुद से जोड़ पाएं. समझ पाएं. हसरतें थीं. जनाब़ 90 के दशक के बच्चों की हसरतों से तो आप वाक़िफ़ ही होंगे. एक खिलौने (गाड़ी) की हसरत. चॉकलेट या टॉफी (मेरे लिए ये आज के अल्फ़ाज़ हैं, तब तो 'गोली' ही हुआ करते थे) की हसरत. बस यही. तब के एक बच्चे की हसरतों की दुनिया यहीं तक सिमटी थी; कम से कम मेरी तो.
लेकिन मैंने कभी भी इन हसरतों को, जरुरतों की शक्ल में नहीं ढलने दिया. क्यूंकि 'मिडिल क्लास' होने के मायने बाउजी ने बखूबी समझाए थे. हां, इसे उन्होंने कभी अपने चेहरे से ज़ाहिर नहीं किया. पर, मैंने उनके ललाट की लकीरें तब ही पढ़ ली थीं. और हां, मुझे हमेशा इस बात पर नाज़ है कि मेरे बाउजी ने हमेशा अपने बच्चों के लिए खुद से बढ़कर किया. जब-जब और जो-जो मांगा, हमें मिला.
फिर जब होश संभाला, यानि की कॉलेज (ग्रेजुएशन, डिग्री बताने से फ़र्क़ नहीं पड़ता) के दिन; ज़िंदगी का सबसे नाज़ुक दौर. नाज़ुक इसलिए कि यही वो दौर होता है, जब हम जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते हैं. लेकिन मैं मर्यादित रहा. तब भी पैसे की अहमियत का ख़याल रखा. मितव्ययी (कम ख़र्च करने वाला) रहा. फिल्मों का शौकिया मुनव्वर मैं था. लेकिन इसे खु़मारी नहीं होने दिया. इसलिए उस दौर की फिल्में सिनेमा हॉल में नहीं देखी. कभी दोस्तों-यारों के साथ पार्टी नहीं की. पिज्जा पार्टी भी नहीं. सच कहूं तो, थे भी नहीं. ना उतने पैसे, ना उतने दोस्त.
आगे, कॉलेज (पोस्ट-ग्रेजुएशन) के दिनों में भी ये बातें कॉपी-पेस्ट रहीं. कॉलेज के लिए समर वेकेशन (गर्मियों की छुट्टियों) में एक असाइनमेंट किया. कुछ पैसे मिले. आज याद नहीं कि तब क्या किया था उनका. लेकिन यहां-वहां तो नहीं किए.
रहगुज़र में साल 2013 के अक्टूबर महीने में जॉब मिली. पहली जॉब. नवंबर के पहले हफ्ते में पहली सैलरी मिली. तब पहली बार बाउजी के लिए Nokia का मोबाइल फोन खरीदा. हालांकि, उनके पास कंपनी का दिया हुआ था. तो उन्होंने मुझे मना भी किया. फिर बाद में वो फोन मां को दिया गया. आज भी घर में सहेज कर रखा हुआ है मैंने उसे.
हां, मैंने घरवालों को ज्यादा तोहफे़ तो नहीं दिए. लेकिन घर में कभी खाली हाथ दाख़िल नहीं हुआ. बाउजी से सीखा है. वो आज भी खाली हाथ नहीं आते. हर किसी के लिए कुछ-न-कुछ लेकर ही आते हैं.
2013 से अब तक अलग-अलग सेक्टर में जॉब की. बीच में थोड़ा ब्रेक भी लिया. उसके बाद से आज तक जॉब कंटिन्यू है. जगह बदली. शहर बदले. लेकिन खुद को नहीं बदला.
हां, अब सही जगह हूं. अपने काम में सुकून है. हमेशा कुछ नया पढ़ रहा हूं, लिख रहा हूं, देख रहा हूं, सीख रहा हूं... महसूस कर रहा हूं. इस लम्हे को जी रहा हूं.
घड़ी की टिक-टिक इशारा कर रही है. वक्त हो चला है रवि बाबू.
डायलॉग का अंत मैं इन्हीं अल्फ़ाज़ों से करूंगा, "My Relationship with Money: कुबेर बरसा नहीं, मन तरसा नहीं..."
ये था एक डायलॉग. उम्मीद है आप सभी को पसंद आया होगा. इसे शेयर जरूर करें. मिलते हैं फिर कभी, ऐसे ही किसी डायलॉग/कहानी के साथ. तब तक के लिए खुश रहें, खुद का और अपनों का ख़याल रखें. प्यार बांटते रहें.
शुक्रिया.