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जयपुर के नवल डागा का घर है पर्यावरण की एक जीवंत पाठशाला

जयपुर के नवल डागा का घर है पर्यावरण की एक जीवंत पाठशाला

Friday September 13, 2019 , 4 min Read

"जयपुर के अनूठे पर्यावरण संरक्षक, कवि-लेखक नवल डागा को सृजन-संस्कार अपने पिता और राजस्थान पत्रिका समूह के मालिक कर्पूरचंद कुलिश से मिला। अपने तापरोधी घर को उन्होंने प्रकृति की जीवंत पाठशाला बना रखा है। आईएएस, आईएफएस की तैयारी करने वाले उनके यहां ज्ञान प्राप्त करने आते हैं।"

nawal Daga

01 दिसंबर, 1956 को जयपुर (राजस्थान)  में जनमे अनूठे पर्यावरण संरक्षक, कवि-लेखक नवल डागा विगत चार दशकों से पूरी दुनिया को अद्भुत रचनात्मक संदेश दे रहे हैं। ऐसा पर्यावरण प्रेम कि उन्होंने अपने पूरे घर को हरियाली से ढक दिया है। गर्मियों में जब बाहर का तापमान 45 डिग्री होता है, तो उनके घर के अंदर 36 डिग्री। आईएएस, आईएफएस की तैयारी करने वाले युवा और कोचिंग देने वाले उनके यहां प्रशिक्षुवत आते रहते हैं। उनके घर की छत पर तीन सौ से अधिक गमलों में सब्जियां उगाई जाती हैं।


इतना ही नहीं, नवल डागा अपने जीवन में और भी बहुत कुछ कर गुजरे हैं, जिन्हे जानकर कोई भी दांतों तले उंगली दबा ले, कि क्या कोई एक व्यक्ति एक-अकेले इतना कुछ संभव कर सकता है। वह अब तक साढ़े पांच सौ से अधिक किताबें लिखकर खुद ही उसका प्रकाशन भी कर चुके हैं। ये पुस्तकें उन्होंने कचरे के कागज से छापी हैं। उनके पिता हमेशा अपनी जेब में पेन, पेपर और पोस्टकार्ड रखे रहते थे। रोजाना वह कम से कम दस पोस्टकार्ड लिख नहीं लेते, अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे। डागा के पास आज भी पिता के ऐसे साढ़े छत्तीस हजार से अधिक पोस्टकार्ड संग्रहित हैं। 


नवल डागा बताते हैं कि उनके पिता शिवरतन डागा बीजों के दुकानदार थे। लिखने-पढ़ने का पहला संस्कार उन्हें अपने पिता से ही मिला। उसके बाद उन्नीस सौ सत्तर के दशक में राजस्थान 'पत्रिका' के संस्थापक कर्पूरचंद कुलिश से उनको छोटी-छोटी पुस्तकें लिखने की प्रेणा मिली। इसीलिए आज उनके उत्पादन कौशल में चार-पांच रुपए वाली किताबें भी शामिल हैं। उनका मानना है कि मोटी-मोटी किताबें लोग घर में खरीदकर रख जरूर लेते हैं, लेकिन उनको पढ़ने वाले विरले ही होते हैं।





उनकी ज्यादातर पुस्तकें पर्यावरण विषयक हैं। वह कहते हैं कि अब व्हाट्सएप-फ़ेसबुक, टीवी, यूट्यूब से लोगों का पढ़ने का स्वाद खराब हो चुका है। लोग कामचलाऊ तरीके से जिंदगी बसर करने के आदती हो चुके हैं। इसलिए, पाठ्यक्रम की बात छोड़ दें तो बाकी किताबें उनकी आखिरी जरूरत होकर रह गई हैं। डागा बताते हैं कि मेरा घर बहुत विचित्र है लेकिन मेरी पत्नी इसके जर्रे-जर्रे से वाकिफ़ रहती हैं। 


नवल डागा के यहां चौदह भारतीय भाषाओं में तैयार होने वाले साढ़े छह हजार से अधिक आइटमों में से लगभग तीन सौ प्रकार के कुशन कवर हैं। लगभग साढ़े पांच सौ गौत्रीय आइटम हैं। एक हजार से अधिक तरह की खुद की रचित श्रद्धांजलियां हैं। साढ़े बारह सौ से अधिक प्रकार के गिफ्ट आइटम हैं, जिन्हे वह केवल अपने यहां आने वाले लोगों को भेंट करते हैं।


उनके इस स्वउत्पादित संग्रहालय में सौ तरह के झोले, साठ तरह के चैक बुक कवर, गुल्लक, साड़ी के फॉल, मोबाइल स्टैंड, पेन स्टैंड, चाबी स्टैंड, गिलास, ट्रे, टाइल्स, छाते, राखियां, खटिया (माचे), बुक्स, अख़बार, तकिया, पंखी, पेपर वेट, ट्रैवलिंग बेग, चाय प्लेट, गाय को रोटी खिलाने का कवर, पर्स, झाड़ू, कमर बेल्ट, माचिस कवर, फाइल कवर आदि हैं। इसके अलावा उनके घर की छत पर 395 गमलों में भिन्डी, तुरई, करेला, घीया, गवार, टिंडा, टमाटर, बैंगन, मिर्च, पालक, खरबूजा, ककड़ी, कोला, सेम बलोर, फ्रेंच बीन, एक्सप्रेस बीन, चंदलिया आदि सब्जियां फूल-फल रही हैं।





नवल डागा कहते हैं कि वह लोगों की आम ज़िंदगी में काम आने वाली चीज़ों पर अपने पर्यावरण रचकर उन्हे लोगों तक पहुंचाते रहते हैं। वह अपने यहां तैयार होने वाले लकड़ी वाले प्रॉडक्ट्स के लिए कभी पेड़ नहीं काटने देते हैं। कबाड़ के लकड़ी, कांच, प्लास्टिक, कागज, गत्ता, फ्लेक्स, विनाइल आदि से काम चला लेते हैं। इसीलिए वह रद्दी बेचने वालों, सफाईकर्मियों, झाड़ू-पोछा लगाने वाले लोगों की बड़ी कद्र करते हैं। वह कहते हैं कि उनके इस काम से निचले वर्ग के निर्धनों को रोजगार मिल जाता है।


नवल चाहते हैं कि कचरा बीनने वालों को ही पद्मश्री जैसा सम्मान मिले। जो लोग प्लास्टिक, कचरा, लोहा, लकड़ी बीनते हैं, इसकी वजह से कुछ चीजों के भाव कम होते हैं, गंदगी नहीं रहती, एक्सीडेंट नहीं होते। जो लोग कचरा उठा रहे हैं, उन लोगों को सब्सिडी देनी चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे पढाई की फीस में छूट दी जाती है। ऐसा करने से यह लोग मोटिवेट होकर ज्यादा कचरा इकट्ठा करेंगे, जिससे ज्यादा कचरा रीसायकल होने से हमारे पर्यावरण की सेहत ठीक रह सकेगी।