पीढ़ियों से हल जोतती, लकड़ी के गट्ठर ढोती पहाड़ की इन महिला किसानों के पति परदेसी
"न जाने कितनी पीढ़ियों से पहाड़ जैसी जिंदगी बसर कर रहीं ये पहाड़ की कर्मजली-सी मेहनतकश औरतें नहीं चाहती हैं कि खेतों में हल चलाते, जंगलों से लकड़ी के गट्ठर ढोते-ढोते भविष्य में उनकी तरह उनकी बेटियों की भी रीढ़ दोहरी हो जाए। उनके जीवट और जज्बे को तो उत्तराखंड के पहाड़ भी सलाम करते हैं।"
पहाड़ की औरतों की जिंदगी भी पहाड़ जैसी, उनके जीवट-जज्बे को पहाड़ भी सलाम करते हैं। वे अपनी अकेले-अकेले जिंदगी को ढोती रहती हैं। झुक-गिरकर भी चलती रहती हैं अहर्निश। चूल्हे की लकड़ी की तरह सुलगती रहती हैं। पैसे के बिना गुजारा नहीं तो ज्यादातर पति परदेस रहते हैं। कटार लेकर अपने बच्चों की चौबीसो घड़ी पहरेदारी का जिम्मा, सो अलग से। कभी गिर भी जाती हैं, तो साथ की महिला कंधे पर उठा ले आती है। उनकी जानलेवा मशक्कत का कोई मोल नहीं।
उत्तराखंड की पहाड़ी युवती दिव्या, पल्ली, निर्मला सुंद्रियाल, सोना, पूजा, रजनी देवी, अनीता, नंदीश्वरी, सबकी विपत्ति-गाथा, राम कहानी एक जैसी। देश-दुनिया चांद-मंगल पर जाती-आती रही, इन्हे तो पीठ पर लकड़ी के गट्ठर लादे, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ चढ़ते-उतरते दिन-रात एक करते रहना है। महानगरों से पहाड़ लौट कर उनके मर्द कहते हैं- वहां तो बड़ी चकाचौंध है भाई, मॉल, मार्ट, बार, पब, रोशनी में नहाए चौराहे, हाइवे। यहां क्या है, टेढ़ी रीढ़ और मुट्ठी-मुट्ठी भर लुढ़कतीं, पुढ़कतीं जिंदगियां, बस, और क्या!
दिल्ली में काम कर रहे युवक से पौड़ी के गांव चरगाड (पोखरा) की परास्नातक दिव्या की मंगनी हो चुकी है। वह कहती हैं, शादी करके दिल्ली जाना भी हुआ तो पलायन रोकने के लिए कुछ साल बाद गांव लौट आएंगी। पौड़ी के पल्ली गांव की ज्यादातर महिलाओं के पति परदेसी हैं। वे अकेले घर ढो रही हैं। दिव्या की मां खेतों में खटती रही हैं, दिव्या ने नहीं किया। वह सोचती हैं, लड़की ने गांव में शादी कर ली तो खेती, घास कटाई करनी पड़ेगी। यहां की औरतों के खेती न करने, गाय नहीं पालने पर उनके घर-गांव वाले भी कोसने लगते हैं। इसलिए यहां की लड़कियां सुभीते की जिंदगी के लिए होश संभालते ही पलायन के मूड में रहती हैं।
सोना की उम्र अभी इकतीस साल है। उन्होंने खुद ही गांव में दिहाड़ी करते पति को एक दिन कमाने के लिए बाहर चंडीगढ़ भेज दिया। गांव में कमाई के पैसों से शराब पी जाते थे। अब घर, बच्चे, खेत, रिश्तेदारी सब काम सोना के मत्थे आ पड़े हैं। पहाड़ पर चकबंदी नहीं हुई है। छोटे-छोटे टुकड़ों में खेत कोई इस पहाड़ पर तो कोई उस तलहटी में। सुबह पांच बजे से ही अकेले दम पर काम, फसल अच्छी हो गई तो पांच-छह महीने का अन्न घर में आ जाता है।
बच्चों को तैयार करना, गाय को जंगल भगाना, घास लाना, खाना बनाना, खेतों में जाना और फिर सात बजे के करीब वापस आना। रक्षा के लिए बड़ी कटार रखती हैं। पति तीन-चार महीने बाद आते हैं। अब उनकी कमाई खराब नहीं होती। वह जो पैसे भेजते हैं, उनसे घर चल जाता है। परेशानी तो बहुत है। घर के बाहर बाघ तक आ जाते हैं, दरवाजा बंद करके शोर मचाती हैं। खेत जंगली सुअर चर जाते हैं। उनसे भी फसल की रखवाली।
बीए पास बत्तीस वर्षीय पूजा के तीन बच्चे हैं। सबसे छोटा डेढ़ साल का। घर में सास-ससुर और देवर, पति दिल्ली में प्राइवेट जॉब करते हैं। काम के दबाव में बच्चों की ठीक से देखभाल भी नहीं कर पाती हैं।
अपने बारे में तो सोचने के लिए उनके पास एक मिनट की फुर्सत नहीं है। अपने लिए भी कुछ नहीं कर पाई। बोझा ढोने से कमर में दर्द होता है। पहले मनरेगा में काम करती थीं। बच्चे के कारण छोड़ दिया।
छत्तीस वर्षीय रजनी देवी के पति दिल्ली में हैं। वहां कभी काम मिलता है, कभी नहीं। हर महीने पैसे नहीं भेज पाते हैं। रजनी अपने दो बच्चों की परवरिश के लिए मनरेगा में काम करती हैं।
रजनी कहती हैं, सब महिलाएं चूल्हे पर रोटी बनाती हैं। सिलेंडर के लिए पैसे कहां से लाएं। एक बार जंगल में गिर गईं, पैर में फ्रेक्चर हो गया। क्या डरें, जब रोज वहीं जाना है। पहाड़ पर सब सही है, बस पैसा नहीं है। मेडिकल की कोई सुविधा नहीं। डिलीवरी के वक़्त बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है।
उत्तराखंड की अनीता और नंदीश्वरी कहती हैं, हम लोग खुद अपना ध्यान रखते हैं। दुआ करते हैं, बीमार न पड़ें। डिलीवरी के लिए पौड़ी से एंबुलेंस बुलानी पड़ती है। रास्ता खराब होने की वजह से घंटों लग जाते हैं। कभी-कभी घरों में भी प्रसव हो जाता है। यहां एक आयुर्वेदिक दवाखाना है पर वहां दवा नहीं है। गांव की कोई महिला सेनेटरी पैड भी इस्तेमाल नहीं करती। उसके लिए पैसे कहां से लाए। गांव में नशाखोरी बहुत बढ़ गई है।
पलायन आयोग की सिफारिशी रिपोर्ट में एक पैरा ये भी है कि हमें पहाड़ में महिलाओं के जीवन की कठिनाइयों को कम करना होगा।, विकास में महिलाओं की भागीदारी लानी होगी। उन्हें ध्यान में रखकर नीतियां बनानी होंगी क्योंकि पीढ़ियों से पहाड़ जैसी जिंदगी बसर कर रहीं ये कर्मजली सी महिलाएं नहीं चाहती हैं कि खेतों में हल चलाते, जंगलों से लकड़ी के गट्ठर ढोते-ढोते भविष्य में उनकी तरह उनकी बेटियों की भी रीढ़ दोहरी हो जाए।