सरकारी कंपनियों को अक्षम बताने वाला मारुति सुजुकी के चेयरमैन का दावा कितना सही है?
मारुति सुजुकी इंडिया के चेयरमैन आरसी भार्गव ने कहा कि सरकार को व्यवसाय नहीं करना चाहिए, क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां अक्षम हैं और अपनी वृद्धि के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं जुटा सकती हैं.
मारुति सुजुकी इंडिया के चेयरमैन आरसी भार्गव ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को अक्षम बताकर एक बार फिर से सरकार को केवल पॉलिसी बनाने तक सीमित करने और बिजनेस को केवल प्राइवेट कंपनियों के लिए छोड़ देने की बहस को नई हवा दे दी है.
भार्गव ने कहा कि सरकार को व्यवसाय नहीं करना चाहिए, क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां अक्षम हैं और अपनी वृद्धि के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं जुटा सकती हैं. उन्होंने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को वृद्धि के लिए हर समय समर्थन की जरूरत है और पूंजी निवेश के लिए सरकार से धन की जरूरत है. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार को व्यवसाय में नहीं होना चाहिए. किसी भी सूरत में नहीं.’’
मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड अब जापान के सुजुकी मोटर कॉरपोरेशन के स्वामित्व में है. उन्होंने आगे कहा, ‘‘सच्चाई यह है कि सरकार द्वारा चलाई जाने वाली कंपनियां कुशल नहीं हैं. उनके पास उत्पादकता नहीं है. वे मुनाफा पैदा नहीं करती हैं. वे संसाधन नहीं जुटाती हैं. वे बढ़ती नहीं हैं. उन्हें वृद्धि के लिए हर वक्त सरकार के समर्थन की जरूरत रहती है.’’
भार्गव ने जोर दिया, ‘‘आप कराधान से औद्योगिक वृद्धि नहीं कर सकते.’’ उन्होंने कहा कि औद्योगिक वृद्धि आंतरिक संसाधनों से होती है और किसी भी कंपनी को धन का सृजन करना चाहिए और धन का क्षरण नहीं होना चाहिए.
उन्होंने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का समर्थन करने के लिए करदाताओं के धन का इस्तेमाल होता है. उन्होंने तत्कालीन मारुति उद्योग लिमिटेड का हवाला देते हुए कहा कि उस समय हमें कई गैर-मूल्य वर्धित गतिविधियां करनी होती थीं, जिन्होंने कंपनी को आगे बढ़ने से रोका. भार्गव ने हालांकि कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र की विफलता सिर्फ भारत में नहीं हुई, बल्कि रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और जापान में भी ऐसा देखने को मिला.
क्या सच में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां अक्षम हैं?
एक बिजनेस अखबार की रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2005 में शीर्ष 10 में से छह और शीर्ष 20 सबसे अधिक लाभदायक कंपनियों में से 12 सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां थीं. वित्त वर्ष 22 की पहली छमाही के अंत में, ऐसे सार्वजनिक उपक्रमों की संख्या घटकर क्रमशः तीन और सात रह गईं.
यह देश में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कंपनियों के बीच एक हेल्दी कॉम्पिटीशन बढ़ने को तो दिखाता ही है. इसके साथ ही यह सार्वजनिक कंपनियों द्वारा हासिल होने वाले भारी मुनाफे और पैसा बनाने की ओर भी इशारा करता है. वहीं, प्राइवेट कंपनियों की तुलना में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां सामाजिक सेवा में भागीदारी निभाती हैं और नियमित तौर पर पिछड़ी जाति के कर्मचारियों को आरक्षण के तहत जॉब्स मुहैया कराती हैं.
वहीं, भारत में (या दुनिया में कहीं और) ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जो कहता है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम अप्रासंगिक हैं या पहले से ही घाटे में चल रहे हैं और अक्षम हैं. इसके विपरीत, ऐसे बहुत से कारण हैं जो इस दिशा में संकेत करते हैं कि वे अभी भी भारत के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं.
वहीं, बीते 18 अगस्त को प्रकाशित अपने बुलेटिन में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बड़े पैमाने पर निजीकरण से फायदे से अधिक नुकसान होंगे. उसने विस्तार से भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में बताया.
आरबीआई ने अपने बुलेटिन में लिखा था कि पब्लिक सेक्टर बैंक सिर्फ अधिकतम मुनाफा कमाने के मकसद से काम नहीं करते. इन्होंने ज्यादा से ज्यादा लोगों तक वित्तीय सेवाएं पहुंचाने के जरूरी लक्ष्य को भी अपने कामकाज में जिस तरह से समाहित किया है, वैसा निजी क्षेत्र के बैंक नहीं कर पाए हैं.
Edited by Vishal Jaiswal