मिलें पांच लाख से ज्यादा बाल श्रमिकों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने वाली पद्मश्री प्रो. शांता सिन्हा से
बाल श्रम के खिलाफ दशकों से संघर्षरत हैदराबाद की पद्मश्री प्रो. शांता सिन्हा मममीदिपुड़ी वेंकटारागैया फाउंडेशन की संस्थापक हैं। उनके नेतृत्व में पिछले तीन दशकों में एमवीएफ के इस शिविर के माध्यम से पांच लाख से ज्यादा छात्र मुख्यधारा की शिक्षा में शामिल हो चुके, साथ ही डेढ़ सौ से ज्यादा गांव बालश्रम मुक्त हो गए हैं।
अंतरराष्ट्रीय ख्याति के बालश्रम विरोधी कार्यकर्ता पद्मश्री प्रो. शांता सिन्हा हैदराबाद में मममीदिपुड़ी वेंकटारागैया फाउंडेशन की संस्थापक हैं, जिसे लोग एमवी फाउंडेशन के नाम से जानते हैं। वह हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर हैं।
आंध्र प्रदेश के नेल्लोर में एक मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में जन्मी सात भाइयों के बीच अकेली बहन प्रो.सिन्हा बालश्रम, बंधुआ मजदूरी को बेहद करीब से देखा है। पहले इस बारे में उनकी इतनी गहरी समझ नहीं थी कि उसके खिलाफ आवाज उठातीं।
उन्होंने अपने जीवन के पहले 20 साल हैदराबाद में बिताए। शुरुआती पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने उस्मानिया विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में परास्नातक किया, फिर जेएनयू से पीएचडी।
जेएनयू में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने अपने सहपाठी से शादी रचा ली।
पीएचडी पूरी होने से पहले ही एक पुत्री गोद में आ गई लेकिन अपना संकल्प पूरा करने के लिए उन्होंने बच्ची को माता-पिता के साथ छोड़ दिया।
पद्मश्री प्रो.सिन्हा बताती हैं कि पीएचडी पूरी होने के बाद जब उनकी उस्मानिया विश्वविद्यालय में पहली पोस्टिंग हुई, जिंदगी बड़े सुकून में थी लेकिन एक झटके ने सब अरमानों पर पानी फेर दिया, जब मस्तिष्क रक्तस्राव के कारण उनके पति का देहावसान हो गया।
उसके कुछ वर्ष बाद भारत की ग्रामीण राजनीति पर रिसर्च के मकसद से हैदराबाद विश्वविद्यालय के आसपास के गांवों में जाने लगीं। वह अपने रिसर्च को विश्वविद्यालय के प्रोजेक्ट से जोड़ना चाहती थीं। उसके साथ ही उन्होंने सरकार के श्रमिक विद्यापीठ में भी कार्यक्रम के लिए अप्लाई कर दिया। वह उनके द्वारा देश में पहली बार ग्रामीण श्रमिकों की शिक्षा के लिए शुरू किया गया कार्यक्रम रहा।
हर शाम वह गांवों में जाने लगीं। वहीं से पहली बार उन्होंने पता चला कि बंधुआ श्रम किस हद तक शोषण की पराकाष्ठा पर है। उसके बाद उन्होंने तय किया कि जिंदगी का असली मकसद मिल गया है। उन्होंने बंधुआ मजदूरी और उनके बच्चों को बालश्रम से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया। इसके साथ ही वह ऐसे श्रमिकों को मुक्ति दिलाने में जुट गईं।
प्रो. सिन्हा बताती हैं कि इस पहल में उनकी एक निकटतम मित्र ने भी हाथ बंटाया। उसके बाद वह उन मजदूरों को पढ़ाने के साथ संगठन तैयार करने के साथ ही उन्हें उनके अधिकारों पर जोर देने के लिए मजबूत करने लगी, तभी श्रमिक विद्यापाठ में उका कार्यकाल खत्म हो गया।
उन्होंने देखा कि बंधुआ लोगों के बच्चों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं।
ऐसे में उन्होंने अपने परिवारिक ट्रस्ट मम्मीदिपुड़ी वेंकटारागैया फाउंडेशन (एमवीएफ), जो गरीब बच्चों के उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति के साथ उनके कल्याण के लिए काम कर रहा था, के तहत बाल मजदूरों और बंधुआ श्रमिकों के बच्चों पर ध्यान देना शुरू किया।
चूंकि बहुत सारे बच्चे बड़े थे, तो आवासीय कार्यक्रमों की शुरुआत कर ब्रिज कोर्स के माध्यम से उन्हें अपनी उम्र के उपयुक्त कक्षा के लिए तैयार किया जाने लगा।
पिछले तीन दशक की अवधि में एमवीएफ के इस शिविर के माध्यम से पांच लाख से ज्यादा छात्र मुख्यधारा की शिक्षा में शामिल हुए हैं।
इलाके के डेढ़ सौ से ज्यादा गांव अब बाल श्रम मुक्त हैं। इस काम के लिए प्रो. सिन्हा को 1998 में भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया।
उसके बाद उन्हे सामुदायिक नेतृत्व के लिए अंतरराष्ट्रीय रमन मैगसेसे पुरस्कार मिला। इसके अलावा शिक्षा इंटरनेशनल से अल्बर्ट शंकर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार (1999) और एसोचैम लेडीज लीग से डैकेड एचीवर्स अवॉर्ड मिल चुका है।