बीते हफ्ते की कुछ प्रेरणादायक कहानियाँ, जो आपको आगे बढ़ने का हौसला देंगी
बीते हफ्ते प्रकाशित हुईं महत्वपूर्ण कहानियाँ जिन्होने हमें प्रेरणा देने के साथ ही आगे बढ़ते रहने की सीख भी दी, उन कहानियों को आप इधर संक्षेप में पढ़ सकते हैं।
कुछ कहानियाँ आपको प्रेरित करने के साथ आगे बढ़ते रहने का साहस देती हैं, ऐसे ही कुछ कहानियाँ बीते हफ्ते हमने आपके सामने रखीं। कहानी चाहें दिव्यांशु की हो जिन्होने आँखों की रोशनी खोकर दुनिया को और भी खूबसूरत नज़रिये से देखना शुरू कर दिया या फिर वो करनैल सिंह हों, जिनका शरीर एक हादसे की चपेट में आकर लकवाग्रस्त हो गया, लेकिन कृषि को लेकर उनके लगाव ने उन्हे आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दी।
आइये उन सकहानियों पर संक्षेप में एक नज़र डालें, इसी के साथ दिये गए लिंक पर क्लिक कर उसी कहानी को विस्तार में भी पढ़ सकते हैं।भी
इनके हौसलों में है उड़ान
19 साल की उम्र में ग्लूकोमा नामक बीमारी ने दिव्यांशु गणात्रा की आँखों की रोशनी छीन ली, लेकिन मुश्किल घड़ी में दिव्यांशु ने अपने आत्मविश्वास को हिलने नहीं दिया बल्कि और आगे मजबूती के साथ उभर कर सामने आए। ज़िंदगी जीने के दिव्यांशु के जज्बे को आज लोग सलाम करते हैं। गौरतलब है कि दिव्यांशु देश के पहले ब्लाइंड सोलो पैराग्लाइडर हैं।
दिव्यांशु अपनी कमजोरी को कभी मुश्किल नहीं पैदा करने देते, बल्कि वह अन्य दिव्यांगजनों के लिए भी लगातार काम कर रहे हैं। दिव्यांशु दिव्यांगजनों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास कई सालों से कर रहे हैं।
दिव्यांशु कहते हैं,
“कोई साक्ष्य नहीं है कि ये सब करने के लिए आँखों की जरूरत होती है। मेरी सिर्फ आँखें ही गई हैं, लेकिन मेरे पास मेरे हाथ-पैर, मेरा दिमाग अभी भी है। इसके लिए सोच जरूरी है, मुझे नहीं पता कि ऐसी क्या चीज़ है जो मैं आँखों के बिना नहीं कर सकता हूँ।”
दिव्यांशु का जज्बा हम सबके लिए प्रेरणाश्रोत है, आप दिव्यांशु की यह कहानी यहाँ क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
चढ़ गए सफलता की सीढ़ी
राजस्थान में पाकिस्तान सीमा से लगे कस्बे में जन्मे राजेन्द्र पैंसिया का शुरुआती ख़्वाब सिर्फ इतना सा था कि बस किसी तरह सरकारी नौकरी मिल जाए। शुरूआती दौर में घर में खेती का माहौल था और राजेन्द्र खुद भी औसत दर्जे के छात्र थे, हालांकि आगे बढ़ते हुए उन्होने बी. कॉम और एम. कॉम भी किया, चाहते थे कि निजी कंपनी में नौकरी मिल जाए, फिर किसी के संपर्क में आए तो बीएड कर लिया और सरकारी शिक्षक के पद पर तैनाती मिल गई।
हालांकि इसके दो साल बाद ही राजेन्द्र IRS की तैयारी के लिए जयपुर आ गए। रास्ते में निराशा तो मिली लेकिन हार नहीं मानी और लगातार सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उस मुकाम तक भी पहुंचे, जिसके लिए सपने देखे थे। राजेन्द्र पैंसिया की यह बेहद प्रेरणादायक कहानी आप इधर पढ़ सकते हैं।
ले रहे हैं प्लास्टिक का दान
हाल ही में जब मध्य प्रदेश के इंदौर और भोपाल शहरों ने सफाई सर्वेक्षण में बेहतरीन प्रदर्शन किया, तो इसके पीछे ज़ीशान खान की मुहिम का भी बड़ा हाथ था। कई कंपनियों के मालिक जीशान ‘प्लास्टिक डोनेशन सेंटर’ नाम से एक अभियान चला रहे हैं, जहां वो लोगों के प्लास्टिक दान करने के लिए कह रहे हैं।
ज़ीशान को न सिर्फ मध्य प्रदेश सरकार ने सम्मानित किया है, बल्कि संयुक्त राष्ट्र ने भी जीशान की इस पहल के लिए उन्हे सम्मान दिया है। जीशान के साथ आज हजारों की संख्या में युवा और छात्र जुड़े हुए हैं, इसी के साथ ज़ीशान अब राजधानी दिल्ली में भी प्लास्टिक डोनेशन सेंटर की स्थापना करने जा रहे हैं। ज़ीशान की पूरी कहानी आप इधर पढ़ सकते हैं।
अपनी पहल के बारे में बात करते हुए ज़ीशान कहते हैं,
“प्लास्टिक डोनेशन सेंटर की स्थापना करना एक अनोखा विचार है। हम प्लास्टिक को दान के रूप में लेते हैं, जैसे आप मंदिरों में जाकर कुछ दान करते हैं और उस राशि को सामाजिक कार्यों में इस्तेमाल किया जाता है। इसी तरह हम भी लोगों से प्लास्टिक दान करने की अपील करते हैं।”
हालात से नहीं मानी हार
एक हादसे के चलते करनैल सिंह का 70 प्रतिशत शरीर लकवाग्रस्त हो गया, लेकिन बावजूद इसके खेती को लेकर अपने प्यार से वो दूर नहीं रह सके। करनैल सिंह भले ही खुद खेती करने में अब सक्षम न हों लेकिन वे किसानों को खेती को लेकर प्रशिक्षण देते हैं।
जैविक खेती को लेकर करनैल सिंह लोगों को जागरूक करने के साथ ही बेहतरीन तकनीक से भी लोगों को जागरूक कर रहे हैं। करनैल सिंह की यह प्रेरणादायक कहानी आप इधर क्लिक कर पढ़ सकते हैं। करनैल सिंह कहते हैं,
“मैं कोई रहस्य नहीं रखना चाहता। मैं चाहता हूं कि लोग जैविक खेती की ओर रुख करें। मैं नई तकनीकों का भी उपयोग करना चाहता हूं। इस गर्मी में, मैं मौसमी सब्जियों की किस्मों का विस्तार करूँगा, जिन्हें मैं 50 तक बढ़ाता हूँ और अपनी सभी उपज किसानों के बाजार में बेचता हूँ।"
केबीसी जीता अब बचा रहे हैं पर्यावरण
साल 2011 में केबीसी में 5 करोड़ की राशि जीतने के बाद सुशील कुमार अब पर्यावरण को बचाने की मुहिम चल रहे हैं। सुशील कुमार वृक्षारोपण के साथ गौरैया के लिए घोसला भी बनाने का काम करते हैं।
आज सुशील एक संगठन चलाते हैं जिसका नाम है चंपा से चंपारण तक। वह स्कूलों/कॉलेजों से बात करके घरों में पौधे लगाते हैं। अपनी इस पहल में अभी तक वह 80 हजार से अधिक पौधे लगा चुके हैं। वह जहां कहीं भी जाते हैं तो पौधा लेकर ही जाते हैं और लोगों से अधिक से अधिक पौधे लगाने की अपील करते हैं। सुशील की यह कहानी आप इधर पढ़ सकते हैं।
सुशील कहते हैं,
“मैं पर्यावरण के लिए रोज 3-4 घंटे देता हूं। इसके अलावा हमारा मकसद बच्चों की मानसिकता का अध्ययन करना है। इन दिनों अपराध से जुड़ी कई खबरें आती हैं जो कि चिंताजनक हैं।”