स्टार्टअप 'बैक टू विलेज' का लक्ष्य किसानों की अवेयरनेस है, फंडिंग जुटाना नहीं
IIT खड़गपुर से पढ़ाई करने के बाद मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी ठुकरा कर ओडिशा में किसानों को ऑर्गेनिक फॉर्मिंक सिखा रहे बिहार के गांव चकदरिया के मनीष कुमार के लंबे संघर्ष का पहला पाठ यह है कि उन्होंने आज तक अपने स्टार्टअप 'बैक टू विलेज' के नाम पर कोई भी निजी फंडिंग नहीं ली है।
आइआइटी ग्रेजुएश के बाद मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी छोड़कर पिछले चार वर्षों से ओडिशा के किसानों को ऑर्गेनिक फार्मिंग सिखा रहे बिहार के गांव चकदरिया निवासी मनीष कुमार का सफर कुछ वैसा ही है कि 'मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया।' जब वह सबसे शुरुआत में नौकरी की बजाय ग्रामीणों को ऑर्गेनिक फार्मिंग सिखाना चाह रहे थे, उनके गांव का एक भी किसान सुनने तक को तैयार नहीं था, लेकिन आज पांच हजार किसान उनकी राह पर, उनके साथ चल पड़े हैं। इतना ही नहीं, हाल ही में उनको 'यंग एचीवर अवॉर्ड' भी मिला है। वर्ष 2015 में ओडिशा पहुंचने के बाद से वह अपनी बिजनेस पार्टनर पूजा भारती के साथ स्टार्टअप 'बैक टू विलेज' संचालित कर रहे हैं।
मनीष बताते हैं कि उनके पापा सरकारी लिपिक थे। एक ही कमरे में चार लोगों का परिवार बसर कर रहा था। उन दिनो हर दो-तीन साल में उनका ट्रांसफर हो जाता था, जिससे उनकी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई अस्त-व्यस्त रहा करती थी। उनको पूर्णिया (बिहार) के एक स्कूल में मात्र तीन सौ रुपए के वार्षिक खर्च पर हॉस्टल के एक कमरे में डेढ़ दर्जन से अधिक लड़कों के साथ खाने में कंकड़ और बिस्तर पर खटमलों से जूझते हुए रहना-पढ़ना पड़ा। दसवीं क्लास पास करने तक वह इस तरह आठ अलग-अलग स्कूलों में पढ़ते रहने के विवश थे।
बीए पास करने के बाद वह बैंक में नौकरी करना चाह रहे थे लेकिन उनको अपने एक टीचर से सुझाव मिला कि आइआइटी कर लो, अपने आप नौकरी मिल जाएगी। वह वक़्त उनके लिए काफी मुश्किल भरा रहा, जब पापा रिटायर हो रहे थे, बहन की शादी होनी थी और उनके बड़े भाई एक छोटे स्कूल की टीचिंग से घर-गृहस्थी चलाने में असहाय हो चुके थे।
पिता ने कहा कि घबराओ नहीं, उस काम में लग जाओ, जो करने का तुम्हारा मन कह रहा हो। वह 2005 में उसी दिशा में चल पड़े। खड़गपुर आइआइटी में एडमिशन मिल गया तो सबसे पहले उन्हे अपने पापा से शाबासी मिली।
मनीष जब खड़गपुर आईआईटी में पढ़ाई कर रहे थे, एक दिन अपने एक सहपाठी के साथ रांची के पास आदिवासियों के इलाके में पहुंच गए। कुछ दिनो तक उन्होंने 'संभव' नाम से एक ग्रुप बनाकर वहां के संसाधनहीन बच्चों को ही नहीं पढ़ाया बल्कि उनके परिजनों को रोजी-रोटी में भी मदद की। वहां की महिलाएं पेपर बैग बनाकर बेचने लगीं। इसके अलावा उन्होंने 2009 की बाढ़ में दोस्तों के साथ दो लाख रुपए जुटाकर बिहार सरकार को भेजे। उन्होंने वैशाली गाँव में 'देहात' नाम से किसानों की कृषि संबंधी सुविधाओं के लिए एक सेंटर खोला। इस समय उसकी सौ से अधिक शाखाएं हैं, जिसे गांवों के किसान खुद ही संचालित कर रहे हैं।
उनके रहन-सहन ने मनीष कुमार को अंदर तक झकझोर दिया। लौटकर उन्होंने संकल्प लिया कि पढ़ाई पूरी होते ही वह आदिवासियों के बीच काम करने निकल जाएंगे। जिन दिनो वह आइआइटी फाइनल में थे, तब तक दिमाग में तस्वीर साफ हो चुकी थी कि उन्हे अपने संकल्प को कैसा आकार देना है। उन्होंने तय किया वह किसानों के साथ मिलकर वह ऑर्गेनिक फार्मिंग में लगेंगे। फाइनल कर अपने गांव चकदरिया पहुंच गए। वहां किसी तरह तीस किसान उनकी बात सुनने के लिए एक दिन इकट्ठे तो हुए लेकिन उनके ऑर्गेनिक फार्मिंग के कांसेप्ट से कन्विंस होने की बजाय तरह-तरह की ऊल-जुलूल बातें करते हुए लौट गए। वर्ष 2010 में एक बार फिर जब उन्होंने किसानों को पारंपरिक कृषि छोड़कर राजमा, मंगरैला, सूरजमुखी आदि की खेती करने का सुझाव दिया। कुछ लोग राजमा की खेती पर सहमत हो गए। खेती अच्छी हुई, उनका मनीष पर भरोसा बढ़ा लेकिन उन्हे स्थायी रूप से सक्रिय करना उन्हे बड़ा चैलेंजिंग लगा।
उस समय मनीष कुमार को सबसे ज्यादा संदेह इस बात का था कि अगर उनके गांव के लोग उनकी सीख पर ठीक से अमल नहीं करेंगे तो लंबा समय गुजर जाने के बाद उनके पास न नौकरी होगी, न व्यवसाय, न कोई अपना भविष्य। आईबीएम के इंटरव्यू के लिए बैठे, सलेक्शन भी हो गया लेकिन कंपनी को जॉइन न कर किसी तरह सालभर की कोशिश के बाद एक गांव के किसानों को ऑर्गेनिक फार्मिंग के लिए सहमत करने में सफल रहे लेकिन वह वहीं तक रुक कर नहीं रह गए। आगे बढ़ चले और एक दिन पहुंच गए ओडिशा। इस समय उनकी मुहिम रंग ला चुकी है। वहां के खासतौर से सैकड़ों आदिवासी किसान ऑर्गेनिक खेती करने लगे हैं।
अपने दोस्त शशांक के साथ 'फार्म्स एंड फार्मर्स' स्टार्टअप चलाने लगे लेकिन यह सिलसिला भी टूट गया और उन्होंने अपना स्टार्टअप 'बैक टू विलेज' स्थापित किया। वर्ष 2014 में उनकी एक पुरानी बैचमेट पूजा भारती वड़ोदरा से अपनी नौकरी छोड़कर 'बैक टू विलेज' की को-फाउंडर बन गईं। उन्होंने असम जाकर 'अमृत खेती' की ट्रेनिंग ली। अप्रैल, 2016 में दोनो ने मयूरभंज (ओडिशा) में 'बैक टू विलेज' लॉन्च किया और पांच गांवों के किसानों के साथ जैविक खेती पर काम करने लगे। उन्होंने तीन एकड़ ज़मीन लेकर किसानों के लिए नए ऑर्गनिक फार्म सेंटर स्थापित किए। कुछ समय बाद ओएनजीसी से फंडिंग मिली तो अब उनका स्टार्टअप मयूरभंज के अलावा बालेश्वर और पुरी में भी इन्फॉर्मेशन कियोस्क के साथ 10 आर्गेनिक फार्म सेंटर बना रहा है। मनीष कुमार के लंबे संघर्ष का सबसे कठोर सच यह है कि उन्होंने आज तक अपने स्टार्टअप 'बैक टू विलेज' के नाम पर कोई भी निजी फंडिंग नहीं ली है।