महात्मा गांधी की एक इच्छा से जन्मा था भारत का पहला स्वदेशी स्याही ब्रांड 'सुलेखा इंक', आज भी कर रहा कारोबार
स्वदेशी आंदोलन के चलते भारत में ब्रिटिश राज के दौरान ही कई ब्रांड्स की नींव पड़ी. कुछ ब्रांड्स ऐसे भी हुए जो आज भी अस्तित्व में हैं. इनमें से एक है सुलेखा इंक.
19 जुलाई 1905...ब्रिटिश सरकार ने भारत में बंगाल के विभाजन का ऐलान किया, जिसे 'बंग-भंग' के नाम से भी जाना जाता है. बंगाल-विभाजन 16 अक्टूबर 1905 से प्रभावी हुआ. अंग्रेजों ने इसके पीछे कारण बताया कि 8 करोड़ से ज्यादा लोगों की आबादी वाले बंगाल के एडमिनिस्ट्रेशन में दिक्कत आती है. लेकिन हकीकत यह थी कि बंगाल, क्रांति का केंद्र था और ब्रिटिश अधिकारी विरोध प्रदर्शनों को नियंत्रित नहीं कर पा रहे थे. बंगाल से उठ रहीं क्रांति की लपटें पूरे भारत में न फैल पाएं, इसलिए अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन कर दिया. राज्य को भाषा और धर्म के आधार पर बांट दिया गया. हिंदू बड़े पैमाने पर पश्चिमी हिस्से में आ गए और पूर्वी हिस्से में बड़े पैमाने पर मुस्लिम रह गए. इस बंटवारे से भारतीयों में रोष उत्पन्न हो गया और विभाजन के विरोध से नींव पड़ी 'स्वदेशी आंदोलन' (Swadeshi Movement) की....
वैसे तो स्वदेशी का यह विचार बंग-भंग से बहुत पुराना है. भारत में स्वदेशी का पहले-पहल नारा बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने 1872 में ही विज्ञानसभा का प्रस्ताव रखते हुए दे दिया था. उन्होंने कहा था-"जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन-ब-दिन साधनहीन होते जा रहे हैं. अतिथिशाला में आजीवन रहने वाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पड़े हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए भी एक विराट अतिथिशाला बन गई है." इसके बाद भोलानाथ चन्द्र ने 1874 में शम्भुचन्द्र मुखोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित "मुखर्जीज़ मैग्जीन" में स्वदेशी का नारा दिया था. जब 1905 में बंग-भंग हुआ, तब स्वदेशी का नारा जोरों से अपनाया गया.
7 अगस्त 1905 को टाउन हॉल कलकत्ता (वर्तमान नाम कोलकाता) से स्वदेशी आंदोलन की औपचारिक शुरुआत की गई. भारतवासियों से ब्रिटेन में बनी चीजों का बहिष्कार करने और स्वदेशी को अपनाने की अपील की गई ताकि ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुंच सके और भारत आत्मनिर्भर बन सके. स्वदेशी के लिए अमीर भारतीयों ने भी दिल खोले और पैसे के साथ-साथ खादी व ग्रामोद्योग सोसायटीज के लिए जमीन भी दी. हर घर में कपड़ा बनना शुरू हो गया और स्वेदशी आंदोलन बड़ा होता चला गया. आगे चलकर यही स्वदेशी आंदोलन महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के स्वतंत्रता आंदोलन का भी केन्द्र-बिन्दु बन गया और उन्होने इसे "स्वराज की आत्मा" कहा. हालांकि विभाजन के कारण उत्पन्न उच्च स्तरीय राजनीतिक अशांति के कारण 1911 में दोनों तरफ की भारतीय जनता के दबाव की वजह से बंगाल के पूर्वी एवं पश्चिमी हिस्से पुनः एक हो गए.
स्वदेशी आंदोलन के चलते भारत में ब्रिटिश राज के दौरान ही कई ब्रांड्स की नींव पड़ी. कुछ ब्रांड्स ऐसे भी हुए जो आज भी अस्तित्व में हैं. इनमें से एक है सुलेखा इंक (Sulekha Ink). जी हां, वही सुलेखा इंक जो भारत की सबसे पहली स्वदेशी स्याही थी और जिसे महात्मा गांधी की इच्छा पर शुरू किया गया.
क्या थी वह इच्छा...
साल 1932 में महात्मा गांधी ने बंगाल केमिकल्स के पूर्व केमिस्ट सतीश दास गुप्ता (Satish Das Gupta) से अनुरोध किया कि वह गांधी के इस्तेमाल के लिए स्वदेशी स्याही बनाएं. गुप्ता, महात्मा गांधी के फॉलोअर थे. उस वक्त स्वदेशी आंदोलन अपने चरम पर था. दास ने गांधी जी की इस इच्छा का सम्मान करते हुए स्याही तैयार की और उसे नाम दिया 'कृष्णधारा'. उन्होंने इसे खादी आउटलेट्स के नेटवर्क के माध्यम से बेचना शुरू किया. इसके बाद उन्होंने उन्होंने कृष्णधारा बनाने के फॉर्मूले को मैत्रा भाइयों- शंकराचार्य (Shankaracharya Maitra) और नानी गोपाल (Nani Gopal) को दे दिया. स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के चलते, युवा मैत्रा भाई उस वक्त जेल से वापस ही लौटे थे. सतीश ने उन्हें यह निर्देश भी दिया कि वे स्याही का वाणिज्यिक उत्पादन शुरू करें. स्याही का नाम सुलेखा पड़ने को लेकर दो कहानियां प्रचलित हैं. पहली यह कि दास ने ही मैत्रा भाइयों से कहा था कि स्याही का नाम 'सुलेखा' रखें. दूसरी प्रचलित कहानी में दावा किया जाता है कि स्याही को सुलेखा नाम रबीन्द्र नाथ टैगोर (Rabindra Nath Tagore) ने दिया था.
पिता ने दी जीवन की सारी जमा-पूंजी
स्वदेशी उद्यम सुलेखा को स्थापित करने के लिए आवश्यक शुरुआती संसाधन, सुलेखा इंक के संस्थापकों के पिता अंबिका चरण मैत्रा ने उपलब्ध कराए. उन्होंने अपने जीवन की सारी बचत इसके लिए दे दी. साल 1934 में मैत्रा भाइयों ने राजशाही के एक शेड में सुलेखा इंक बनाना शुरू किया और नींव पड़ी सुलेखा वर्क्स लिमिटेड (Sulekha Works Limited) की. इस वक्त राजशाही, बांग्लादेश में है. उसके बाद स्याही का प्रॉडक्शन व रिसर्च एंड डेवलपमेंट जारी रखने के लिए वे बैरकपुर में अपने कजिन आशुतोष भट्टाचार्य के घर में शिफ्ट हो गए. साल 1935/36 में सुलेखा इंक का प्रॉडक्शन फिर से राजशाही में शिफ्ट किया गया. वहां स्याही बनाने की जिम्मेदारी मैत्रा परिवार की महिलाओं की थी. संस्थापकों की मां सत्यबती देवी ने कुछ अन्य महिलाओं के साथ मिलकर स्याही की पहली खेप घर पर ही तैयार की. स्याही बनाने में शंकराचार्य और नानीगोपाल की पत्नियों ने भी योगदान दिया.
नानी गोपाल मैत्रा दिन में राजशाही यूनिवर्सिटी में फिजिक्स टीचर की नौकरी करते थे और शाम को स्याही का केमिकल कंपोजीशन परफेक्ट बनाते थे. कारोबार की मार्केटिंग व अन्य पहलू उनके बड़े भाई शंकराचार्य मैत्रा देखते थे. शुरुआत के दिनों में स्याही को स्वाधीनता संग्रामियों के नेटवर्क के माध्यम से, कॉलेज स्टूडेंट्स, डॉक्टरों, वकीलों और लेखकों को और रेलवे स्टेशनों के निकट बेचा जाता था. महिलाएं घर-घर जाकर भी बिक्री किया करती थीं.
1938 में कलकत्ता में शिफ्टिंग
शुरुआत में जब सुलेखा इंक हाथ से बनाई जाती थी तो इसमें काफी वक्त लगता था. स्याही को दो बार फिल्टर किया जाता था. कागज पर स्याही जल्दी सूखे और रीफिल को जाम न करे, इसके लिए उसमें सीक्रेट सॉल्वेंट मिलाया जाता था. आज भी कंपनी इसी सॉल्वेंट व प्रॉसेस को फॉलो करती है. साल 1936 में नानी गोपाल कलकत्ता शिफ्ट हो गए और सियालदह के निकट हैरिसन रोड (वर्तमान में एमजी रोड) पर एक शोरूम खोला. नानी गोपाल के कलकत्ता आने की वजह थी, उन्हें धोती के बजाय सूट पहनने के लिए कहा जाना. स्वदेशी आंदोलन का हिस्सा नानी गोपाल को यह मांग भला कैसे गवारा होती. इसलिए उन्होंने राजशाही यूनिवर्सिटी में अपनी नौकरी छोड़ी और कलकत्ता शिफ्ट हो गए.
इसके बाद 1938 में सुलेखा के ऑपरेशंस भी कलकत्ता शिफ्ट हो गए. फैक्ट्री को 16, मदन दत्ता लेन (बोबाजार) में शुरू किया गया. 1939 में सुलेखा की फैक्ट्री बालीगंज (कस्बा) इलाके में शिफ्ट हुई. स्याही के लिए मांग में बढ़ोतरी होने के बाद 1946 में फैक्ट्री को साउथ ऑफ जाधवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज की किराए की भूमि पर शिफ्ट किया गया. बाद में यह जमीन सुलेखा के मालिकों ने खरीद ली और अब यह क्षेत्र में 'सुलेखा' के नाम से जानी जाती है. 1946 में ही सुलेखा वर्क्स, एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी बन गई और मैत्रा ब्रदर्स प्राइवेट लिमिटेड इसकी मैनेजिंग एजेंसी बन गई. 1948 में सुलेखा ने 1 लाख रुपये टर्नओवर का आंकड़ा छुआ.
फिर आया 'ओपन जनरल लाइसेंस'
1949/50 में सुलेखा इंक के कारोबार को नुकसान होने लगा. इसकी वजह रही ओपन जनरल लाइसेंस, जिसके तहत स्याहियों के मुफ्त आयात को देश में अनुमति दे दी गई. इसके चलते कई छोटे स्तर के स्याही मैन्युफैक्चरर्स को अपना बिजनेस बंद करना पड़ा. हालांकि सुलेखा नुकसान के बावजूद चलती रही. इसके बाद 1950 में फाउंटेन पेन की इंक को ओपन जनरल लाइसेंस के दायरे से बाहर कर दिया गया.
इसके बाद 1952 में सुलेखा वर्क्स ने सोदेपुर में एक विशाल गार्डन हाउस खरीदा और यहां स्याही की दूसरी फैक्ट्री शुरू की गई. इसी साल वैश्विक इंक निर्माताओं को 51 प्रतिशत लोकल शेयरहोल्डिंग के साथ भारतीय बाजार में प्रवेश की अनुमति दी गई. हालांकि क्विंक को अपवाद के तौर पर 66.66 प्रतिशत शेयरहोल्डिंग के साथ अनुमति दी गई. स्वान, वाटरमैन और कई अन्य स्याही निर्माता इस रूट के माध्यम से भारत में आए.
फिर नाम की एक बड़ी उपलब्धि
1952-54 के दौरान सुलेखा ने अपने नाम एक बड़ी उपलब्धि की. इस अवधि में सुलेखा ने भारत में अकेले इतनी फाउंटेन पेन इंक बेच डाली, जो अन्य स्याही निर्माता मिलकर भी नहीं बेच पाए. 1960 में कंपनी ने 'वर्कर्स को-ऑपरेटिव' के कॉन्सेप्ट की पेशकश की. 1967 आते-आते कंपनी के प्रॉडक्ट पोर्टफोलियो में फाउंटेन पेन, डुप्लीकेटिंग, चेक राइटिंग, रबर स्टांप, स्टेंसिल और ड्रॉइंग इंक शामिल हो चुकी थीं. इसके अलावा फिनोल, सीलिंग वैक्स और विभिन्न तरह के ग्लू की भी कंपनी बिक्री करने लगी थी.
1968 से शुरू किया एक्सपोर्ट
1968 से सुलेखा ने स्याही को विदेश भेजना शुरू किया. पहला ऑर्डर बर्मा सरकार (वर्तमान नाम म्यांमार) से मिला. बर्मा सरकार ने एक ग्लोबल टेंडर के माध्यम से सुलेखा को सिलेक्ट कर एक बेहद बड़ा ऑर्डर दिया था. इस टेंडर के लिए यूरोप, अमेरिका की मल्टीनेशनल कंपनियों और चीन की कंपनियों ने भी पार्टिसिपेट किया था. इसके कुछ समय बाद सुलेखा नियमित तौर पर मिडिल व फार ईस्ट, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया आदि को स्याही निर्यात करने लगी.
रिफ्यूजियों को दिया रोजगार
1970-73 की अवधि के बीच सुलेखा ने पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश) से भागे 2000 से ज्यादा रिफ्यूजियों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर रोजगार दिया. इनमें से ज्यादातर परिवार सुलेखा की जाधवपुर फैक्ट्री, दक्षिणी कोलकाता के बाघजतिन और गांगुली बागान इलाकों के आसपास सैटल किए गए.
1970 से लेकर 1980 के बीच कंपनी अपनी ख्याति के चरम पर थी. उन दिनों सुलेखा वह सब कुछ थी, जो बनने का सपना हर राष्ट्रवादी उद्यम देखता है. सुलेखा इंक एक गहरी जड़ों वाली विरासत की गौरवपूर्ण वाहक थी; एक न्यायसंगत नियोक्ता थी; इसका एक लगभग सर्वव्यापी प्रॉडक्ट था, जो भारत में तो दिग्गज था ही बल्कि दुनिया के चारों कोनों में भी इसका संपन्न बाजार था. इसके अलावा कंपनी का नाम विभिन्न सामाजिक और धर्मार्थ कार्यों के लिए भी सम्मान से लिया जाता था. 1977 के बाद से सुलेखा की ग्रोथ गिरने लगी, जिसके कई कारणों में से एक था- उग्रवादी ट्रेड यूनियनवाद के चलते कंपनी की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना.
1982 में केन्या में शुरू की फैक्ट्री
1981 में यूनाइटेड नेशंस (यूनेस्को) ने सुलेखा को अफ्रीका के विभिन्न देशों में स्याही की फैक्ट्रियां स्थापित करने के लिए चुना. यह वह दौर था जब यूनाइटेड नेशंस, एंटिटीज को किसी दूसरे महाद्वीप में जाने को कह रहा था और वहां फैक्ट्री लगाने में मदद कर रहा था. इसके पीछे मकसद था ज्ञान और विशेषज्ञता का आदान-प्रदान. 1982 में कंपनी ने केन्या में टर्नकी बेसिस पर पहली फैक्ट्री लगाई. सुलेखा ने इसे दो साल मैनेज करने के बाद हैंडओवर कर दिया. कंपनी द्वारा उत्पादित हाई क्वालिटी इंक को देखते हुए केन्या सरकार ने दूसरी स्याहियों का आयात प्रतिबंधित कर दिया.
1988 में सभी फैक्ट्री कीं बंद
1984 तक सुलेखा का पूर्वी भारत के 89 प्रतिशत बाजार पर कब्जा था. यह दावा 'MODE' के एक मार्केट सर्वे में किया गया था. कंपनी की एक फैक्ट्री उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में भी थी. कम प्रॉडक्शन, कैश की किल्लत और अन्य कारकों के चलते धीरे-धीरे सुलेखा को नुकसान होने लगा और 1988 के अंत में सुलेखा ने अपनी सभी फैक्ट्रियों में काम सस्पेंड करने की घोषणा की. 1990 के दशक की शुरुआत में कंपनी लिक्विडेशन में चली गई. इसके बाद आया साल 2005, जब कोलकाता हाईकोर्ट ने कंपनी की लिक्विडेशन प्रोसिडिंग्स पर स्थायी तौर पर स्टे लगा दिया. नवंबर 2006 में सुलेखा की फैक्ट्रियों को फिर से खोला गया. क्लोजर के इन 18 वर्षों के दौरान कंपनी के खिलाफ विभिन्न अदालतों में कई मुकदमे भी दर्ज हुए. 2007 में फैक्ट्रियों में प्रॉडक्शन फिर से शुरू हुआ, लेकिन इस बार कंपनी होम केयर रेंज बना रही थी. इसके बाद साल 2011 में सुलेखा ने सोलर डिवीजन को लॉन्च किया. लेकिन स्याही बनाने का सिलसिला थमा नहीं.
साल 2020 में सुलेखा की स्वदेशी इंक की वापसी
साल 2020 में सुलेखा ने स्वदेशी इंक को लॉन्च कर वापसी की. इंक को स्कारलेट, रेड, एग्जीक्यूटिव ब्लैक और रॉयल ब्लू रंगों में लॉन्च किया गया. इतना ही नहीं इंक को शांतिनिकेतन में बने खादी पाउच की पैकिंग में उतारा गया. आज सुलेखा के प्रॉडक्ट पोर्टफोलियो में फाउंटेन पेन बुक्स, स्याहियां, फाउंटेन पेन्स, आर्ट प्रिंट्स, नोट बुक्स शामिल हैं. स्याहियों की रेंज के नाम- समर्पण, स्वाधीन, स्वराज और स्वदेशी हैं, जो कंपनी की नींव और सिद्धांतों का प्रतिबिंब हैं.
केवल स्याही नहीं है सुलेखा
सुलेखा इंक के मैनेजिंग डायरेक्टर और नानी गोपाल के पोते कौशिक मैत्रा (Kaushik Maitra) कहते हैं, 'सुलेखा एक स्याही से अधिक है, जिसने आजादी के संघर्ष के इतिहास को उकेरा. यह स्वदेशी का जीवन रक्त थी. लोगों को कलम से सशक्त बनाने की महात्मा गांधी की इच्छा को पूरा करने के लिए जन्मी सुलेखा, बलिदान की कहानी है, आत्मनिर्भरता की अदम्य भावना की कहानी है, जीवन के एक ऐसे तरीके की कहानी है जो अन्याय की ताकत के आगे नहीं झुका...इसने एक ऐसा उत्पाद बनाकर लोगों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने की कोशिश की, जो न केवल महंगी आयातित स्याही को प्रतिस्थापित करता है बल्कि अपने आप में विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी भी था.' कौशिक के मुताबिक, कंपनी ने स्याही बनाना कभी बंद नहीं किया. इसका प्रॉडक्शन कम मात्रा में चलता रहा.