आजीविका और वजूद की लड़ाई लड़ रहीं ओड़िशा की तटीय महिलाएं
पूरे देश में मछली पकड़ने पर साल में दो महीने का प्रतिबंध लगाया जाता है. लेकिन ओड़िशा के 480 किमी लम्बे समुद्री तट पर ओलिव रिडले कछुए के संरक्षण के लिए इन दो महीनों के अलावा सात महीने का अतिरिक्त प्रतिबंध लगाया जाता है.
देश के पूर्वी समुद्र-तट पर स्थित ओड़िशा राज्य की 480 किलोमीटर लंबी तटरेखा पर मछली पकड़ने पर साल में दो तरह का प्रतिबंध लगाया जाता है. मछलियों के संरक्षण के लिए दो माह का प्रतिबंध पूरे देश में होता है. इस क्षेत्र में पाए जाने वाले ओलिव रिडले नामक ख़ास प्रजाति के कछुए को बचाने के लिए इस समुद्री-तट पर पिछले दो दशकों से सात महीनों का एक अतिरिक्त प्रतिबंध लगाया जा रहा है.
इन सात महीनों के दौरान जिन मछुआरों की आजीविका प्रभावित होती है उनके परिवारों को एकमुश्त मुआवजा दिया जाता है. हालांकि, जो महिलाएं इस काम से जुड़ी हुई हैं और इस कड़ी में अहम भूमिका अदा करती हैं, उन्हें ज़्यादातर स्थानीय बाजारों में उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है.
मछली और कछुआ संरक्षण के लिए दोहरा प्रतिबंध
उड़ीसा समुद्री मत्स्य पालन नियमन अधिनियम 1982 की धारा 2, 7 और 4 एवं वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के प्रावधानों के तहत ओड़िशा के तट पर हर साल मछली पकड़ने पर दो अलग-अलग प्रकार के प्रतिबंध लगाए जाते हैं. प्रतिबंध लागू होते है सभी प्रकार के ट्रॉलर और 8.5 मीटर से अधिक लंबी मोटर बोट प्रतिबंधित हो जाती हैं.
मछली पकड़ने पर पहला प्रतिबंध मछली के प्रजनन में मदद के लिए 15 अप्रैल से 14 जून तक रहने वाला मौसमी प्रतिबंध है. दूसरा प्रतिबंध खास क्षेत्रों में 1 नवंबर से 31 मई यानी सात महीने तक रहता है. यह प्रतिबंध, कछुओं के संरक्षण के लिए लगाया जाता है. ओड़िशा में कछुओं की तीन नेस्टिंग साइट (आवास) हैं, नदी का मुहाना रुशिकुल्या, समुद्र-तट गहिरमाथा और देवी. ये नेस्टिंग साइट 170 किलोमीटर की तटरेखा को कवर करती हैं.
साल 2010 में, राज्य ने इन जगहों पर समुद्र के किनारे से 20 किलोमीटर के भीतर तक मछली पकड़ने पर मौसमी रोक लगाया. गहिरमाथा को एक समुद्री अभयारण्य के रूप में घोषित किया गया है. अन्य दो स्थानों पर, सीमित संख्या में केवल सैल और ओरा पकड़ने की अनुमति है और वो भी सिर्फ पारम्परिक तरीकों से. साढ़े आठ मीटर से कम लंबी छोटी या मोटर रहित नाव की भी अनुमति है.
सात महीने के प्रतिबंध के बदले राज्य सरकार प्रभावित परिवारों को एकमुश्त 7,500 रुपये आजीविका सहायता देती है. दो महीने के पूरे देश में प्रतिबंध के दौरान मुआवजा 4,500 रुपये दिया जाता है. हालांकि, यह मुआवजा प्रत्येक परिवार द्वारा 1,500 रुपये जमा करने के बाद ही लिया जा सकता है. शेष 3,000 रुपये की राशि को केंद्र और राज्य के बीच बांटा गया है. इसके अलावा मुआवजा परिवार के केवल एक सदस्य को दिया जाता है.
मछुआरों की खराब होती सामाजिक-आर्थिक स्थिति
समुद्री मत्स्य जनगणना 2016 के अनुसार, ओड़िशा में समुद्री मछली पकड़ने वाले 739 गांव हैं, जिनमें मछुआरों की कुल आबादी 5.18 लाख (518,000) है. ओड़िशा मत्स्य पालन और पशु संसाधन विकास विभाग की एक वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021-22 में दो महीने के प्रतिबंध के दौरान 10,228 मछुआरों को मुआवजा दिया गया था, और इसी अवधि में सात महीने के प्रतिबंध के लिए 14,178 मछुआरों को मुआवजा दिया गया.
ओड़िशा ट्रेडिशनल फिश वर्कर्स यूनियन के राज्य अध्यक्ष, प्रसन्ना बेहरा ने बताया, “मछली पकड़ने पर लगाए गए प्रतिबंध के कारण मछली पकड़ने के लिए उपलब्ध क्षेत्र कम हो जाता है. इस वजह से ख़ास तौर से पारंपरिक और छोटे पैमाने पर मछली पकड़ने की गतिविधियां प्रभावित होती हैं. मछली पकड़ने के दिनों की संख्या भी कम कर दी जाती है, जिससे मछुआरों के परिवार प्रभावित होते हैं.”
प्रतिबंध से पहले हर दिन 200 से 1,000 किलोग्राम मछलियां पकड़ी जाती हैं, जिससे 5000 रुपये से 10,000 रूपए तक की आय होती है. सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेशवाटर एक्वाकल्चर, ओड़िशा के शोधकर्ताओं द्वारा 2014 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, प्रतिबंध के 10 वर्षों के भीतर मछलियों का पकड़ना प्रतिदिन 25 से 100 किलोग्राम तक कम हो गया है, जिसकी आय 500 से 1,000 रु. प्रतिदिन बताई गयी है.
बेहरा के अनुसार, मछली पकड़ने के बेहद कम मौके मिलने के कारण मछली पकड़ने वाले समुदायों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई है. उनके पास रोजी-रोटी कमाने के किसी अन्य विकल्प का अभाव है. इन समुदायों के भीतर, सबसे कमजोर स्थिति महिलाओं की रही है.
अन्य गतिविधियों से आय कमाती महिलाएं
गंजम जिले के गोखरकुड़ा गांव की महिलाएं सुबह छह बजे लैंडिंग साइट जाने के लिए घर से निकल जाती हैं. मछुआरे अपने दिन भर में पकड़ी हुई मछलियों के साथ वहां पहुंचते हैं. महिलाएँ वहां घंटों इंतज़ार करती हैं, कभी-कभी दोपहर तक इंतज़ार करना पड़ता है.
इन साइटों पर मछली की नीलामी की जाती है. पकड़ी गई मछलियों की मात्रा और साइट पर खरीदारों की संख्या के आधार पर दैनिक दरें तय होती हैं. ज़्यादातर, सबसे अच्छी मछलियाँ व्यापारियों द्वारा खरीदी जाती हैं. बाकी बची मछलियों को महिला खरीदारों के लिए छोड़ दिया जाता है.
लैंडिंग साइट से मछलियां खरीदने के बाद महिलाएं अच्छी मछलियों को अलग करती हैं और उन्हें बाज़ार में बेच देती हैं. बाकी बची हुई मछलियों को नमक में धो कर सुखाती हैं. इन सूखी हुई मछलियों को सुखुआ (सूखी मछली) के रूप में बेचा जाता है, या अचार बनाने के लिए इनका इस्तेमाल किया जाता है.
हर दिन की पकड़ी हुई मछलियों को वे पैदल या ऑटो से 15 किलोमीटर के दायरे में बेचती हैं. महिलाएं शाम को प्रतिदिन औसतन 250-350 रुपये कमाकर घर लौटती हैं. जिस दिन अच्छी बिक्री नहीं होती उन दिनों में, कोल्ड स्टोरेज के अभाव में, उन्हें मजबूरी में कम कीमत पर मछली बेचना पड़ता है. ऐसे दिनों में वे मात्र 50-100 रूपए ही कमा पाती हैं.
ये गतिविधियां उनकी दिनचर्या जैसी लगती हैं. लेकिन प्रतिबंध के दौरान उनके पास आय का कोई अन्य स्रोत नहीं होता और वे अपने घरों तक सीमित हो जाती हैं.
गांव के 300 परिवारों में से किसी के पास कोई जमीन नहीं है. वे आजीविका के लिए पूरी तरह मछली पकड़ने पर निर्भर हैं. उनका गाँव रुशिकुल्या नदी के मुहाने पर स्थित होने के कारण मछुआरों और ग्रामीणों को साल में सात महीने के लिए समुद्र में जाने और मछली पकड़ने पर रोक है.
प्रतिबन्ध के दौरान आर्थिक अवसर से वंचित
मछली पकड़ने पर प्रतिबन्ध के दौरान, तटीय गांवों के अधिकांश आदमी तमिलनाडु, गुजरात और आंध्र प्रदेश जैसे अन्य राज्यों में काम करने के लिए चले जाते हैं, जबकि ज़्यादातर वृद्ध महिलाएँ, स्कूल जाने वाले बच्चों की देखभाल के लिए वहीं रहती हैं.
गंजम जिले की 57 साल की अदिमा का कहना है, “हमें इस बात की जानकारी नहीं होती है कि आदमी कितना कमाते हैं. हम लोग जो पैसा कमाती हैं, उससे अपने परिवार की आर्थिक मदद कर पाती हैं. बीमारी का इलाज या मुश्किल घड़ी में हम पैसे से अपनी या अपने परिवार की सहायता करने लायक रहती हैं. लेकिन हम काम के लिए अन्य जगहों पर नहीं जा सकते और घर पर आजीविका के कोई अन्य अवसर नहीं हैं.”
जिन दिनों में ठीक-ठाक मछली पकड़ी जाती है उन दिनों में ये महिलाएं स्वतंत्र रूप से कम से कम 2,500 रूपए प्रति माह कमाती हैं, जो सात महीने में 17500 रुपये होता है. अदिमा का बेटा और बहू भी ठेकेदारी के काम की तलाश में पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में चले जाते हैं, जबकि वह अपने तीन पोते-पोतियों की देखभाल करने के लिए गांव में ही रहती हैं.
महिलाओं को यह भी लगता है कि जहां मासिक रूप से उनके आर्थिक योगदान को अहम माना जाता है, वहीं आय की कमी परिवार के भीतर उनकी निर्णय लेने की स्थिति को प्रभावित करती है.
गंजम की रहने वाली एक और 63 वर्षीय महिला डी. हेमा ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा, “यहां तक कि यदि परिवारों को मुआवजा दिया जाता है तो उससे मछली पकड़ने से होने वाली आय की भरपाई मुश्किल से हो पाती है. जब हमारे पास पैसे होते हैं तो हम अपना खाना खरीद सकते हैं, अपनी दवाओं की व्यवस्था कर सकते हैं. जब आमदनी बंद हो जाती है तो परिवार के इकलौते कमाने वाले सदस्य पर हमारी निर्भरता बढ़ जाती है. अपने परिवारों की सहायता करने में असमर्थ होने के कारण भी कभी-कभी हम असहाय महसूस करते हैं.”
प्रतिबंध के दौरान उनकी एकमात्र आय सरकारी विधवा पेंशन योजना के तहत मिलने वाली 500 रुपये प्रति माह की राशि है.
गंजम से लगभग 190 किलोमीटर दूर, पुरी जिले में सूखी मछली बेचने का एक पूरा व्यवसायिक केंद्र बंद कर दिया गया, क्योंकि महिलाएं अपने व्यवसाय को लगातार नहीं चला पाईं. अस्टारंगा ब्लॉक के जहांनिया गाँव में, 2000 के दशक की शुरुआत में मछली को सुखाने और बेचने के लिए एक महिला सहकारी समिति की स्थापना की गई थी. ये सहकारी समिति भी कायम नहीं रह पाई.
गाँव के लोगों का दावा है कि बार-बार आने वाले चक्रवातों ने मछली की मात्रा और उनकी गुणवत्ता प्रभावित कर दिया है, जिससे उनकी आय पर असर पड़ा है. सात महीने के प्रतिबंध ने आय को और कम कर दिया है. सहकारी समिति की 38 वर्षीय सदस्या कुसुम बेहरा ने बताया, “जब सर्दियों के दौरान मछली पकड़ने का मौसम चरम पर होता है, उसी दौरान रोक लगा दिया जाता है. मछलियों की मात्रा इतनी कम हो गई थी कि पकड़ी हुई मछलियाँ केवल व्यापारियों को ही बेची जाती थी. इसलिए, हमारे पास सहकारी समिति को भंग करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था.”
औरतें अब जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर धान और सब्जी की खेती के सहारे हैं. उनके परिवार का भरण पोषण करने के लिए पर्याप्त उत्पादन होता है. आदमी काम की तलाश में समुद्र से दूर चले जाते हैं. उन्होंने अपने गाँव के पास के मैंग्रोव (तटीय क्षेत्रों में पाया जाने वाला पौधा) के संरक्षण का स्वैच्छिक कार्य भी शुरू किया है.
वैकल्पिक रोजगार की ओर रुख
जहांनिया से नजदीक पुरी के नागर गांव में महिलाओं ने काम के वैकल्पिक अवसरों की तलाश शुरू कर दी है. गाँव की लगभग 700 महिलाएँ जो मछली पकड़ने से सम्बंधित व्यवसायों पर निर्भर थीं, उन्होंने जीवन-यापन के लिए अब नई हुनर (स्किल) सीखनी शुरू कर दी है. कई महिलाओं ने स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से सिलाई मशीनें खरीद कर बुनियादी सिलाई सीखी, और अब पेटीकोट और ब्लाउज बना रही हैं. गाँव के एक स्वयं सहायता समूह ने एक मिक्सर ग्राइंडर खरीदा, जिसका उपयोग वे अब मसाले का पाउडर बनाने का काम करती हैं.
नागर गांव की रहने वाली, 54 वर्षीय महिला तुलसी बेहरा का कहना है, “हमने बार-बार मांग की है कि हमारे काम की कीमत लगाई जाए और उसके अनुसार हमें मुआवजा दिया जाए, लेकिन इस पर कभी ध्यान नहीं दिया गया. मछुआरा समुदायों में महिलाएं अपने परिवारों के लिए आय करने में अहम् भूमिका निभाती हैं लेकिन मुआवजे के समय, हमारे काम को अहम नहीं माना जाता है. हमें खुद का वजूद कायम रखने के लिए अपनी वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी पड़ती है.
ओड़िशा ट्रेडिशनल फिश वर्कर्स यूनियन के सचिव, के. एलेया ने कहा, “हम महिलाओं को लाभार्थियों के रूप में शामिल करने की अपनी मांगों पर अडिग हैं, ख़ास तौर से जो महिलाएँ किसी न किसी तरह से मछली पकड़ने के व्यवसाय से जुड़ी हैं और प्रतिबंध से प्रभावित हैं.”
इस बीच राज्य मत्स्य विभाग मुआवजे की राशि को बढ़ाकर 15,000 रुपये करने पर विचार कर रहा है. इस संबंध में एक प्रस्ताव विचाराधीन है. मत्स्य पालन निदेशालय के उपनिदेशक बसंत दास ने कहा, “हम मुआवजे की राशि बढ़ाने पर विचार कर रहे हैं.”
महिलाओं को शामिल करने के संबंध में, दास ने कहा, “मुआवजा परिवार के एक सदस्य को दिया जाता है, लेकिन इसमें सहायक गतिविधियों का मुआवजा शामिल होता है, जिसे इस गतिविधि का हिस्सा माना जाता है. प्रदान किए गए कुल मुआवजे के अलावा किसी और मुआवजे का प्रावधान नहीं है.”
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: मछुआरा समुदाय की महिलाएं मछली को नमक से धो कर उन्हें धूप में सुखाती हैं. इन सूखी मछलियों को ‘सुखुआ’ या सूखी मछली के रूप में बेचा जाता है. तस्वीर - ऐश्वर्या मोहंती/मोंगाबे
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