अकाल के दो रंग मांझी और मोहिनी, एक ने जीवन तो दूसरे ने लिखी मरण की कहानी
महानगरीय प्रपंच में कोई सोचता है, पानी बरसे-न-बरसे, अपनी बला से। किसानों के देश में गांव सूखे की अलग दास्तानें लिख रहे हैं, उन्ही में दो, महोबा और लातूर की। महोबा के एक किसान ने वर्षों से सूखी नदी को भर दिया तो लातूर की बेटी सुसाइड नोट लिखकर दुनिया से विदा हो गई कि पापा मेरी शादी के लिए खेत मत बेचना।
'किसी ने लिखी आंसुओं से कहानी, किसी ने लिखा किंतु दो बूंद पानी।' यही है जीवन का विपर्यय और मरण की असंगति। एक रंग के सूखे वाली ये दोनो दास्तान भी दो बूंद पानी की ही हैं। पानी की कहानी जन-जन की जिंदगी में घुली हुई है लेकिन उसके घूंट-घूंट कोई अपने लिए चाहता है तो किसी को दूसरों की प्यास की पड़ी रहती है और वह वक्त के थपेड़ों को पछाड़ते हुए 'दशरथ मांझी' बन जाता है। सूखा और पानी के इन्ही दो रंगों में छिपे हैं जिंदगी और समाज के हजार रंग।
वर्षों से सूखा मराठवाड़ा में भी, महोबा में भी। गया (बिहार) के गांव गहलौर के दशरथ मांझी ने सिर्फ इसीलिए एक-अकेले दम पर पहाड़ का सीना चीर दिया था कि कहीं दूर से ढो-ढोकर पानी ले आने का उनकी पत्नी का रास्ता छोटा हो जाए। महोबा किंवदंतियों के दो महारथी आल्हा-ऊदल का इलाका है, बुंदेलखंड में। यहीं के गांव बन्नी के रहने वाले हैं किसान बलवीर सिंह। उनका जुनून भी मांझी से कुछ कम नहीं लगता है। उनके इलाके में है एक चंद्रावल नदी, जो पिछली दो बरसातों से सूखी पड़ी रही है।
अकालग्रस्त महोबा के इस पूरे इलाके में भूगर्म जलस्तर पचास फुट नीचे खिसक लिया है। जानवरों, पशु-पक्षियों तक की त्राहि-त्राहि जब बलवीर से देखी नहीं गई, उन्होंने प्रण किया कि समाज, शासन और सरकारें तो कुछ करने से रहीं, अब उन्हे ही कुछ कर दिखाना चाहिए। और वह अपनी हिम्मत से सूखे में नदी के पानी की कहानी लिखने निकल पड़े, इस संकल्प के साथ कि जब तक बरसात नहीं होती है, वह जीवनधारा चंद्रावल को सूखने नहीं देंगे। नदी खोद कर तो बहाई नहीं जाती, सो, बलवीर सिंह को अपने ट्यूबवेल का सहारा दिखा। वह उसी के पानी से नदी को भरने लगे। बिजली बिल दस हजार रूपए पार गया मगर वह थमे नहीं। दो फुट की गहराई तक दस फुट पानी से लबालब चंद्रावल लहराने लगी है। उसी के पानी से नदी किनारे के गांवों में लगे हैंडपंप भी जीवन देने लगे हैं। पशु-पक्षियों के दिन भी बूंद-बूंद बहुर आए हैं। लोग बलवीर सिंह की जय बोल रहे हैं।
दूसरी दास्तान भी सूखाग्रस्त मराठवाड़ा के एक किसान परिवार से ही जुड़ी है। वैसे तो पिछले पांच वर्षों में यहां का भीषण अकाल अब तक हजारों किसानों की बलि ले चुका है लेकिन बीस साल की मोहिनी की जिंदगी और मौत की दास्तान जरा अलग सी है। मां कांता पांडुरंग बिशे की दो लंबी-लंबी चोटियों वाली बेटी मोहिनी नर्स बनने के सपने देखा करती थी। सूखे ने ऐसा निचोड़ कि अपना गांव छोड़कर पूरा परिवार लातूर शहर पहुंच गया। मोहिनी की पढ़ाई भी छूट गई। रोजी-रोटी का ठिकाना नहीं बना तो पूरा परिवार पहुंच गया पुणे। पिता कारखाने में काम करने लगे। साथ-साथ जवान हो चुकी बेटी के हाथ पीले करने की चिंताएं भी मां-बाप को सताने लगीं। इसी बीच काम करने वालो के जत्थे पर जत्थे जब उसी कारखाने पर दस्तक देने लगे, दिहाड़ी कम होने लगी। एक बार फिर घर-गृहस्थी हांफने लगी।
पूरे परिवार को दो जून रोटी की चिंता से अधिक मोहिनी के अनिश्चित भविष्य का दुख मथने लगा। दो छोटे भाई-बहन, मां ने मना किया, सबकी पढ़ाई छूट गई। सुंदर सी मोहिनी को रिश्ते तो आ ही रहे थे, मगर मां-बाप शादी रचाएं तो कैसे, हाथ में फूटी कौड़ी नहीं। तय हुआ कि गांव का खेत बेच देने से एक पंथ दो काज हो जाएंगे। एक तो मोहिनी को ससुराल की चौखट नसीब हो जाएगी और दूसरे, बाकी बचे पैसे से गृहस्थी कुछ दिन और खिंच जाएगी।
खेत के मोल-भाव की मोहिनी को भी भनक लगी तो उसे और कुछ नहीं सूझा। उसने मन ही मन ठान लिया कि मुसीबत आ बनी अपनी शादी के लिए चाहे किसी भी कीमत पर पूरे परिवार की एक अदद पूंजी गांव का खेत नहीं बिकने देगी। चुपचाप एक दिन छोटा सा सुसाइड नोट लिखा कि पापा खेत मत बेचना, गले में फंदा कसा और दुनिया से विदा हो गई। कांता सुबक-सुबक कर बताती है- अकाल में आज भी गांव का खेत बंजर पड़ा है।