नि:शक्तता को मात देकर गोल्फ में नाम कमा रहे 24 साल के अंकुश साहा
खेल हमेशा से इंसान के जुनून और विजयोल्लास का प्रतीक रहा है। फिर चाहे वह क्रिकेट हो, फुटबाल हो या कुश्ती या फिर गोल्फ। हालांकि किसी भी खेल में प्रतिभाग करना मुश्किल माना जाता है क्योंकि उसके लिए शारीरिक रूप से काफी मजबूत होने की जरूरत होती है। वहीं अगर हम नि:शक्तजनों की बात करें तो किसी भी खेल में उनके लिए मुश्किलें दोगुनी हो जाती हैं। लेकिन 24 साल के अंकुश साहा के लिए ये मुश्किलें छोटी पड़ गईं।।
अंकुश साहा उन 150 गोल्फर्स में शामिल हैं जिन्हें किसी प्रकार की बौद्धिक विकलांगता का सामना करना पड़ा है। उन्होंने इसी साल दुबई में आयोजित हुए पैरा एथलीट चैंपियनशिप में प्रतिभाग किया और भारत के लिए रजत पदक भी जीता। अंकुश को काफी लंबे समय तक गोल्फ खेलने के लिए संघर्ष करना पड़ा है। योरस्टोरी से बात करते हुए अंकुश ने बताया, 'जब मैंने गोल्फ खेलना शुरू किया था तो मुझे काफी मुश्किल होती थी। शुरू में हवा का रुख और दूरी का अंदाजा लगाने जैसी बुनियादी चीजों में मुझे दिक्कत होती थी। इस वजह से मुझे काफी काफी मेहनत करनी पड़ी।'
आज अंकुश के खाते में कई सारी उपलब्धियां हैं। 2014 में वे मकाऊ में आयोजित हुए स्पेशल ओलंपिक गोल्फ मास्टर्स में दूसरा स्थान प्राप्त किया। इसके तीन साल बाद उन्होंने उसी टूर्नामेंट में कांस्य पदक जीता। उनकी उलब्धियों की वजह से ही उन्हें 2015 में लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में स्थान मिला। अंकुश ने 13 साल की उम्र से ही गोल्फ खेलना शुरू कर दिया था। उन्होंने अपने पिता लेफ्टिनेंट कर्नल बिप्र साहा को देखकर गोल्फ खेलना शुरू किया था।
पुरानी बातों को याद करते हुए अंकुश बताते हैं, 'जब मैं छोटा था तो मेरे पिता मुझे अपने साथ गोल्फ कोर्स में ले जाते थे। एक दिन मैंने भी अपने हाथों में गोल्फ स्टिक पकड़ ली और फिर कभी पीछे मुड़ के नहीं देखा।' सिर्फ कुछ ही दिनों के भीतर अंकुश ने अपने खेल से सबको हैरान कर दिया। अपने बेटे की प्रतिभा को ध्यान में रखते हुए बिप्र साहा ने उसे बेंबी रंधावा के पास ट्रेनिंग के लिए भेज दिया। बेंबी देश के मशहूर गोल्फ कोच में से एक हैं।
एक साल तक अंकुश ने बेंगलुरु में ट्रेनिंग हासिल की। 2008 में अंकुश ने रंधावा की देखरेख में ही साउथ जोन टूर्नामेंट में प्रतिभाग किया। वक्त के साथ अंकुश का कारवां बढ़ता ही गया। वे बताते हैं, 'गोल्फ खेलकर मुझे बेहद संतुष्टि मिलती है। इससे मैं काफी ज्यादा सकारात्मक महसूस करता हूं और साथ ही इसके जरिए मुझे भारत को वैश्विक स्तर पर प्रतिनिधित्व करने की खुशी मिलती है।' अंकुश की निगाहें अब एशिया पैसिफिक गोल्फ फॉर स्पेशल ओलिंपिक्स में स्वर्ण पदक पर हैं।
अंकुश को जन्म से ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उनकी मां चंपा साहा ने सिजेरियन डिलिवरी के जरिए अंकुश को जन्म दिया था। अंकुश के पिता बिप्र साहा बताते हैं, 'शैशव अवस्था में अंकुश को कई ऑपरेशन से गुजरना पड़ा। उस वक्त डॉक्टरों ने बताया भी था कि इससे अंकुश के दिमाग पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। कुछ सालों बाद हमने अंकुश में वो बदलाव देखने शुरू हो गए। जैसे कि चलने, बोलने और कुछ महसूस करने में उसे दिक्कत होने लगी। इसके बाद हमें मालूम चला कि वह बौद्धिक रूप से अक्षमता का शिकार हो गया है।'
अंकुश की हालत समझने और सुधारने में उनके माता-पिता को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसी वजह से बिप्र साहा को समय से पहले रिटायरमेंट लेना पड़ा ताकि वे अंकुश की सही से देखभाल कर सकें। अंकुश की मां ने उनकी सही से देखभाल करने के लिए स्पेशल एजुकेशन हासिल की। अंकुश ने आगे की पढ़ाई के लिए बेंगलुरु में स्पेस्टिक सोसाइटी में एडमिशन लिया था, लेकिन आगे पढ़ाई जारी नहीं रख पाया।
बिप्र कहते हैं, 'मैंने देखा कि मेरा बच्चा क्लास में गुमसुम अकेला बैठा रहता है। कई बार वह क्लास से बाहर निकल जाता और बाहर ग्राउंड में बच्चों को खेलते हुए देखता। तब मुझे अहसास हुआ कि शायद वह स्पोर्ट्स में अच्छा कर सकता है।' वे आगे बताते हैं कि अंकुश का इंटेलिजेंस क्वोटेंट (IQ) 66 था जो कि सामान्य IQ लेवल 95-100 से काफी कम था। उसे सड़क पार करने से लेकर लोगों से बात करने जैसी छोटी-छोटी चीजों में भी दिक्कत आती थी। हालांकि वह इन सब चीजों से विचलित नहीं हुआ और लड़चा रहा। आज नतीजा सामने है, वह बेस्ट गोल्फ प्लेयर्स में से एक है।
बिप्र कहते हैं कि उन्हें अपने बेटे अंकुश पर बेहद गर्व है। वे कहते हैं, 'मैं सौभाग्यशाली हूं जो मुझे अंकुश जैसा बेटा मिला। उसके अंदर टैलेंट ही टैलेंट है और मुझे उस पर पूरा भरोसा है कि वो एक दिन कुछ बड़ा करेगा।'
भारत में अलग-अलग खेलों में नि:शक्तजनों की भागीदारी और सहभागिता कम रही है। भारतीय एथलीटों ने पैरालिंपिक में कुल 28 पदक जीते हैं। अब तक ऐसे एथलीट्स ने विशेष ओलंपिक में कुल 368 पदक जीते हैं। इससे पता चलता है कि जब पदक जीतकर देश को गौरवान्वित करने की बात आती है तो विकलांग लोग अन्य एथलीटों को बराबर समझना चाहिए।
योरस्टोरी से बात करते हुए मधु कहती हैं, 'जब मैं सरकारी कार्यालय में अपने ट्रस्ट को रजिस्टर करवाने गईं तो वहां उन्हें अधिकारियों ने ऐसे और बच्चों के बारे में बताया जो सुविधाओं के आभाव में बदतर जिंदगी जीने के लिए मजबूर थे।' मधु उन बच्चों को भी अपने एनजीओ में लेकर आईं। इस वक्त मधु के फाउंडेशन में 20 बच्चे रहते हैं जिनकी देखभाल के लिए एक फीजियोथेरेपिस्ट एक टीचर और कई स्टाफ के सदस्य रहते हैं। फाउंडेशन के पास 30 बच्चों की देखभाल करने की क्षमता है। इन बच्चों की शिक्षा से लेकर उनके खाने-पीने, रहने और दवाइयों का पूरा प्रबंध किया जाता है।
यह भी पढ़ें: गर्मी की तपती धूप में अपने खर्च पर लोगों की प्यास बुझा रहा यह ऑटो ड्राइवर