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देश की पहली महिला डॉक्टर रखमाबाई को गूगल ने किया याद, जानें उनके संघर्ष की दास्तान

देश की पहली महिला डॉक्टर रखमाबाई को गूगल ने किया याद, जानें उनके संघर्ष की दास्तान

Wednesday November 22, 2017 , 6 min Read

 उस वक्त भारत में बालविवाह का प्रचलन था इसलिए उनकी शादी मात्र 11 साल की उम्र में दादाजी भीकाजी से तय कर दी गई। रखमाबाई ये शादी नहीं करना चाहती थीं, लेकिन तब लड़कियों की सुनता कौन था।

डॉ. रखमाबाई (फोटो साभार- गूगल)

डॉ. रखमाबाई (फोटो साभार- गूगल)


रखमाबाई को यह नागवार गुजरा। उन्हें बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा कि पढ़ने-लिखने की उम्र में उन्हें पति के साथ रहना पड़ रहा है। जब वे अपने ससुराल में रहने को तैयार नहीं हुईं तो उनके पति ने 1884 में बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दायर कर दी।

1894 में जब उनकी पढ़ाई पूरी हुई तब वे भारत की पहली महिला डॉक्टर के तौर पर लौटीं। वह बॉम्बे के एक अस्पताल में काम करती थीं। 1918 और 1930 के दौरान उन्होंने गुजरात के राजकोट में चीफ मेडिकल ऑफिसर के तौर पर काम किया। 

भारत में महिलाएं आज जिस ऊंचाई पर जाकर सफलता के झंडे गाड़ रही हैं उसके पीछे कई महान शख्सियतों का संघर्ष शामिल रहा है। ऐसी ही एक महिला थीं डॉक्टर रखमाबाई राउत जिन्हें भारत की पहली महिला डॉक्टर के रूप में जाना जाता है। आज उनका जन्मदिन है और गूगल ने डॉक्टर रखमाबाई राउत को उनके 153वें जन्मदिन पर डूडल बनाकर याद किया है। गूगल के आज के डूडल में रखमाबाई पूरी कहानी को संक्षिप्त रूप में दिखाया गया है। 19वीं सदी में महिला अधिकारों के प्रति लड़ने में उनका योगदान अतुलनीय था। उनके संघर्षों की वजह से ही कई कानूनों की नींव पड़ी जिसके परिणामस्वरूप समाज में महिला सशक्तिकरण का सपना साकार हुआ।

डॉक्टर रखमाबाई का जन्म 22 नवंबर 1864 को जयंतीबाई और जनार्दन जी के यहां हुआ था। जब वे काफी छोटी थीं तभी उनके पिता का देहांत हो गया। इसके बाद उनकी मां ने सखाराम अर्जुन नाम के व्यक्ति से दूसरी शादी कर दी जो कि ग्रांड मेडिकल कॉलेज, बॉम्बे में प्रोफेसर थे। उस वक्त भारत में बालविवाह का प्रचलन था इसलिए उनकी शादी मात्र 11 साल की उम्र में दादाजी भीकाजी से तय कर दी गई। रखमाबाई ये शादी नहीं करना चाहती थीं, लेकिन तब लड़कियों की सुनता कौन था। वह अपने माता-पिता के घर में रहकर पढ़ाई करती थीं, लेकिन उनके पति को यह पसंद नहीं था और उसने रखमाबाई की पढ़ाई रुकवाकर अपने साथ रहने को कहा।

रखमाबाई को यह नागवार गुजरा। उन्हें बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा कि पढ़ने-लिखने की उम्र में उन्हें पति के साथ रहना पड़ रहा है। जब वे अपने ससुराल में रहने को तैयार नहीं हुईं तो उनके पति ने 1884 में बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दायर कर दी। कोर्ट में मामले की सुनवाई शुरू हुई। उस वक्त भारत में ब्रिटिश शासन था और कानून भी उन्हीं के मुताबिक बनाए हुए थे। तब कानून में महिला को पुरुष के बराबर अधिकार नहीं मिले थे। इसलिए कोर्ट ने रखमाबाई से कहा कि वह या तो अपने पति के साथ रहें या जेल जाएं। रखमाबाई ने काफी हिम्मत से कोर्ट में कही कह दिया कि ससुराल से बेहतर जेल चली जाएंगी।

उस वक्त भारतीय समाज में हिंदू कानून लागू था और एक व्यक्ति के रूप में स्त्री का अपना कोई स्वतंत्रा अस्तित्व नहीं था। ऐसे ही एक अवसर पर, रख्माबाई पर दादाजी के अधिकार का दावा करते हुए वकील ने कहा, 'पत्नी अपने पति का एक अंग होती है, इसलिए उसे उसके साथ ही रहना चाहिए।' यह उस तरह की बात थी जिसका मजाक उड़ाकर बेली यूरोपीय श्रेष्ठता से जुड़ा अपना दम्भ जता सकते थे। उन्होंने कहा, 'आप इस नियम को भावनगर के ठाकुर पर कैसे लागू करेंगे, जिन्होंने राजपूतों की परम्परा के अनुसार एक ही दिन में चार स्त्रिायों के साथ विवाह किया?'

हिन्दू कानून की इस व्याख्या पर अदालत में जो अट्टहास हुआ उसे समझा जा सकता है। लेकिन बेली जैसों के इस विश्वास को समझना मुश्किल है कि औरतों के प्रति उनका नज़रिया उस नज़रिए से बेहतर था जिसको लेकर यह अट्टहास हुआ था। ग्रेटना ग्रीन विवाहों की तरह उन्हें यह भी याद होना चाहिए था कि 'सबसम्पशन' अंग्रेजी पारिवारिक जीवन की धुरी हुआ करता था। बेली भूल गए थे कि सन्निवेश के इसी सिद्धान्त का एक अवशेष अंग्रेजी कानून की एक महत्त्वपूर्ण मान्यता के रूप में अब भी मौजूद था। इस सिद्धान्त के अनुसार, पत्नी इस सीमा तक अपने पति का अभिन्न अंग थी कि उसे अपने पति के खिलाफ दीवानी अदालत में मुकदमा करने का भी अधिकार नहीं था।

रखमाबाई ने जब कोर्ट में कहा कि वे अपने पति के साथ नहीं रहना चाहतीं तो पूरे देश में समाचार पत्रों के माध्यम से यह खबर फैली और हलचल मच गई। यह केस लगभग 4 साल तक चला उसके बाद दादाजी ने कोर्ट के बाहर रखमाबाई से समझौता कर दिया। जब यह केस चल रहा था तो रखमाबाई ने टाइम्स ऑफ इंडिया को पत्र लिखा। पत्र में अपना नाम लिखने की बजाय वह 'एक हिंदू महिला' के नाम से पत्र लिखा करती थीं। उनका पत्र पहली बार 26 जून 1884 में प्रकाशित हुआ। इस पत्र के छपने के बाद देशभर में चर्चाएं होने लगीं और लोगों ने इस पर ध्यान देना शुरू किया। यहां तक कि लंदन के द टाइम्स मैग्जीन में भी ये पत्र छपे।

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रखमाबाई ने पत्र में अपनी हालत बयां करते हुए लिखा था, 'बाल विवाह नाम की इस घृषित प्रथा ने मेरी जिंदगी की सारी खुशियां छीन ली हैं। मेरी पढ़ाई इस वजह से रुक गई है। बिना की वजह से मुझे यातनाएं सहनी पड़ रही हैं। इसमें मेरी क्या गलती है।' इसके बाद कोर्ट में जब मामला सुलझ गया तो रखमाबाई की जिंदगी पटरी पर लौटी। उन्होंने पत्र में ही यह इच्छा जाहिर की थी कि वह मेडिकल की पढ़ाई करना चाहती हैं। उस वक्त बॉम्बे में कैमा हॉस्पिटल की ब्रिटिश डायरेक्टर एडिथ पीची फिप्सन के सहयोग से वह लंदन गईं। उनके लिए स्पेशल फंड की व्यवस्था की गई। 1889 में लंदन स्कूल ञफ मेडिसिन में उन्हें दाखिला मिला।

पढ़ाई के दौरान उन्होंने ग्लॉसगो, ब्रुसेल्स और एडिनबर्ग का दौरा किया। 1894 में जब उनकी पढ़ाई पूरी हुई तब वे भारत की पहली महिला डॉक्टर के तौर पर लौटीं। वह बॉम्बे के एक अस्पताल में काम करती थीं। 1918 और 1930 के दौरान उन्होंने गुजरात के राजकोट में चीफ मेडिकल ऑफिसर के तौर पर काम किया। इस दौरान उन्होंने महिला एवं बाल अधिकारों के लिए काफी संघर्ष किया। भारतीय इतिहास में डॉक्टर रखमाबाई के संघर्ष की कहानी तमाम लड़कियों और महिलाओं के लिए प्रेरणादायक है।

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उनके जीवन पर मराठी फिल्मकार अनंत महादेवन ने एक फिल्म भी बनाई है। अनंत ने कहा, 'मुझे एक स्टोरी डॉक्टर रखमाबाई की पोती की लिखी किताब के माध्यम से मिली। जिसके चलते मैं इनके बारे में जान पाया। यह कहानी इतने विस्तार और अध्ययन कर लिखी थी कि मुझे वह प्रेरित कर गई और मैं अपने आप को उन पर फिल्म बनाने से नहीं रोक पाया।' वह कहते हैं कि डॉक्टर रखमाबाई एक ऐसी महिला थी जिनकी सोच अपने समय से बहुत आगे थी। फिल्म में डॉक्टर रखमाबाई की भूमिका तनिष्ठा चटर्जी ने निभाई है। लेखक सुधीर चंद्र ने उनके जीवन पर एक किताब भी लिखी है जो कि राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई। किताब में रखमाबाई के खिलाफ दादाजी के मुकदमे में स्त्रिायों की स्थिति को लेकर छिपे पूर्वाग्रह को बयां किया गया है।

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