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ऐसे दरिंदे दौर में कैसे बचेगी भारत की करोड़ों बेटियों की अस्मत और जान!

बेटियों की बात : तीन

ऐसे दरिंदे दौर में कैसे बचेगी भारत की करोड़ों बेटियों की अस्मत और जान!

Wednesday December 04, 2019 , 6 min Read

सात साल पहले दिल्ली के निर्भया कांड और अब हैदराबाद के रेप-मर्डर केस पर छिड़ी बहसों के बीच एक ही समाधान समझ में आता है कि सभी पीड़ित लड़कियों, परिजनों को एकजुट कर कम से कम एक बार ऐसा जोरदार आंदोलन छेड़ा जाए कि पूरे मर्दवादी दौर की सिंघासन हिल उठें और सरकारें, न्यायपालिका भी नए सिरे से पहल करें। 

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सांकेतिक फोटो (Shutterstock)

ऐसे में सवाल उठता है कि सरकारों का ये हाल है तो कैसे बचेगी बेटियों की आबरू और जान?


बेटियों के साथ हैवानियत के इस दौर में कई सवाल उनसे भी बनते हैं, जिन पर भारत के हर नागरिक की सुरक्षा की जिम्मेदारी है। लापरवाहियों का आलम ये है कि केंद्र सरकार ने महिला सुरक्षा से जुड़ी विभिन्न परियोजनाओं के लिए 'निर्भया फंड' में चार हजार करोड़ रुपए राज्यों को जारी किए, जिसका ज्यादातर राज्यों ने न तो इस्तेमाल किया, केंद्र को इसकी वजह बताई। केंद्रीय गृहमंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इसी योजना में 'इमरजेंसी रेस्पांस स्पोर्ट सिस्टम' (आकस्मिक प्रतिक्रिया सहायता प्रणाली-ईआरएसएस) के लिए तीन सौ करोड़ रुपए का भी किसी भी राज्य ने सौ फीसद इस्तेमाल नहीं किया।


देश के 18 राज्यों ने तो बजट लेकर अब तक चुप्पी साध रखी है। सिर्फ राजस्थान में इस फंड का सर्वाधिक इस्तेमाल हुआ। जिस तेलंगाना में महिला चिकित्सक के साथ हुई बर्बरता ने आज पूरे देश का खून खौला रखा है, उसने भी निर्भया फंड के तहत जारी 957.15 लाख रुपये में से केवल 25 लाख रुपये खर्च किए हैं।


अब आइए, बेटियों के मुतल्लिक एक दूसरे तरह के वाकये से रूबरू होते हैं। उत्तरकाशी (उत्तराखंड) के में 133 गांवों में पिछले तीन महीनों में 2016 बच्चों ने जन्म लिया है, लेकिन उनमें एक भी बेटी नहीं। इस घटते लिंगानुपात ने ‘कन्या भ्रूण हत्या निषेध’ और ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ नारे समेत तमाम अभियानों पर काली स्याही पोत दी है। सरकारी आंकड़ों में इस भयावह स्थिति के खुलासे से हड़कंप मचा हुआ है। गंगोत्री के विधायक गोपाल रावत और जिलाधिकारी डॉ.आशीष चौहान के नेतृत्व में हरकत में आए जिला प्रशासन ने इसकी पड़ताल शुरू कर दी है। 

 




आइए, एक और हिंसा और यौन शोषण के ताज़ा सिलसिले पर नज़र डालते हैं। हैदराबाद रेप-हत्या के मामले में संसद में जानी-मानी अदाकारा जया बच्चन तथा टीएमसी सांसद मिमी चक्रव्रती ने जब कहा कि ऐसे हैवानों को सड़क पर लिंच कर देना चाहिए तो पाकिस्तानी लेखक इफ़त हसन रिज़वी, भारतीय पत्रकार सुचेता दलाल आदि विरोध करने लगे। डीएमके सांसद पी. विल्सन चाहते हैं कि कोर्ट बलात्कारियों को नपुंसक बनाने के फैसले दे।


फिल्म निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा ने जब लिखा कि डर के ज़रिए ही समाज में बदलाव लाया जा सकता है तो फ़िल्मकार विक्रमादित्य मोटवाने, गायिका सोना महापात्रा ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए लिखा कि 'पहले तो आप महिला विरोधी फ़िल्में बनाना बंद कीजिए।' फ़रहान अख़्तर लिखते हैं- 'निर्भया के चार बलात्कारी सजा के सात साल बाद भी ज़िंदा हैं। न्याय का पहिया काफ़ी धीमा है।'


ये घटनाक्रम अलग-अलग तरह के हैं, लेकिन इनमें एक संदेश कॉमन है कि मानवाधिकार की बातें, नारे, बहसें, गुहारें, कोशिशें चाहे जितनी भली लगें, हमारे देश की बेटियां डंके की चोट पर बर्बर वक़्त के हवाले हैं। बाकी सबके लिए हिंदुस्तान इतना ताकतवर है, फिर बेटियों की सुरक्षा के मामले में ही इतना निहत्था, असहाय और कथित तौर पर लापरवाह भी क्यों? ऐसे बर्बर दौर में भी 'मार्टियर्स ऑफ़ मैरिज' डॉक्युमेंट्री बना रही 31 वर्षीय दीपिका नारायण भारद्वाज के भी कुछ अलग ही राग हैं।


वह कहती हैं-

'भारत में हर 15 मिनट में एक बलात्कार की घटना दर्ज होती है, हर पाँचवें मिनट में घरेलू हिंसा का मामला सामने आता है, हर 69वें मिनट में दहेज के लिए दुल्हन की हत्या होती है और हर साल हज़ारों की संख्या में बेटियां पैदा होने से पहले ही गर्भ में मार दी जाती हैं तो क्या मर्द असुरक्षित नहीं हैं?'


इस समय वह देशभर में घूमकर ऐसे मामलों की पड़ताल कर रही हैं। 'व्यक्तिगत स्तर पर भयावह अनुभव' झेलने के बाद वह 2012 से इस विषय पर शोध कर रही हैं। दिल्ली महिला आयोग का भी कहना है कि अप्रैल 2013 से जुलाई 2014 के बीच दर्ज रेप के कुल मामलों में से 53.2 प्रतिशत झूठे हैं। 





ये तो वही बात हुई कि मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना यानी जितने मुंह, उतनी तरह की बातें, ऐसे में बेटियों की सुरक्षा और न्याय के हालात बनें भी तो कैसे। 16 दिसंबर, 2012 के बर्बर निर्भया कांड और अब 28 नवंबर 2019 के हैदराबाद रेप-मर्डर केस को सामने रखते हुए भारतीय समाज में लाख बौखलाहट के बावजूद बेटियों को सुरक्षा और न्याय मिलने की बात जहां की तहां अटकी पड़ी है, जबिक आज हैदराबाद रेप-मर्डर केस के आरोपियों के घर वाले भी कह रहे हैं कि उन्हे फांसी मिलनी चाहिए।


दोमुंहे हालात के चलते आज भारत में ऐसे मामलों का फ़ेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर टॉप ट्रेंड और बात है, हकीकत में न्याय की चीख और सुरक्षा और बात। जैसे, एक फिल्म देखने के बाद सिनेमा हाल से बाहर आकर लोग अगली फिल्म देखने का इंतजार करने लगते हों। दरअसल, टीवी के सामने बैठकर चाय की चुस्कियों लेते हुए अफगानिस्तान पर बमबारी देखने के आदती पूरे समाज का अंदर से इतना अमानवीकरण कर दिया गया है कि वह अपनी सुविधाओं की खोल में दुबके हुए दिल्ली-हैदराबाद जैसे घिनौने, बर्बर मामलों में भी लिखने, पढ़ने और बोलने को शौकिया अंदाज में जीने लगा है।  


'राइट्स ऑफ़ पर्सन्स विद डिसएबिलिटीज़ ऐक्ट' के तहत, ओहदे और ताक़त का ग़लत इस्तेमाल कर किसी विकलांग व्यक्ति के साथ यौन हिंसा करना दंडनीय अपराध है लेकिन देहरादून के दृष्टिबाधित सरकारी कॉलेज में बलात्कार का शिकार हुई एक विकलांग लड़की आपबीती बताती हुई कहती है- उसके लिए उस हिंसा से भी ज़्यादा दर्दनाक था कि कोई ये मानने को तैयार नहीं रहा कि एक विकलांग लड़की का बलात्कार हो सकता है। पुलिस, पड़ोसी और ख़ुद उसका परिवार उससे पूछ रहा था कि विकलांग लड़की के बलात्कार से किसी को क्या मिलेगा? उसका सामूहिक बलात्कार हुआ था।


यौन हिंसा के तो ज्यादातर मामलों में सबसे पहले लड़कियों के अपने लोग ही कायराना बातें करने लगते हैं। निश्चित ही ऐसा रवैया जाने-अनजाने गुनहगारों की तरफदारी बन जाता है। इन सब बातों से, आखिरकार, साफ-साफ एक ही समाधान समझ में आता है कि सभी पीड़ित लड़कियों को एकजुट कर कम से कम एक बार जरूर ऐसा जोरदार आंदोलन छेड़ा जाए कि पूरे मर्दवादी समाज की चूलें हिल उठें और सरकारें तथा न्यायपालिका भी नए सिरे से भारत की बेटियों की मुकम्मल सुरक्षा को अपनी पहली सामाजिक जिम्मेदार मानते हुए पूरी मजबूती से एकतरफा पहल करें।