मां-बाप की मजदूरी के पैसे ने गुजरात के सफीन हसन को बना दिया आईपीएस
गुजरात के आईपीएस सफीन हसन को हीरे की यूनिट में नौकरी छूट जाने के बाद मां ने शादी-ब्याह में रोटियां बेलकर, आंगनबाड़ी के काम कर और पिता ने दिन में इलेक्ट्रेशियन का काम, रात में चाय-अंडे बेचकर पढ़ाया-लिखाया। कई बार भूखे पेट भी सोना पड़ा लेकिन आईपीएस बनने तक सफीन ने जिंदगी में कभी हार नहीं मानी।
पालनपुर (गुजरात) के जिस गांव कनोदर में कभी मां नसीम बानो ने शादी-समारोहों में रोटियां बेल-बेलकर मिलने वाली मजदूरी के पैसे से पाला-पोषकर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, वह गुदरी के लाल सफीन हसन 22 साल की उम्र में जब पहले ही अटैम्प्ट में 570वीं रैंक हासिल कर आईपीएस सेलेक्ट हुए, पूरे परिवार की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा। वैसे तो सफीन का बचपन गुजरात के सूरत जिले में बीता क्योंकि उस वक़्त उनके माता-पिता हीरे की एक यूनिट में नौकरी करते थे। बाद में मंदी के कारण दोनों की नौकरी चली गई तो अपने गांव कनोदर लौट गए। सन् 2000 में जब उनका मकान बन रहा था तो माता-पिता दिन में तो मजदूरी करते थे, रात में ईंट ढोते थे। इतनी मशक्कत के बावजूद सफीन हसन को कई दिन-रात भूखे पेट ही सो जाना पड़ता था।
सफीन बताते हैं कि बचपन में उन्होंने अपने प्राइमरी स्कूल में देखा था कि किस तरह वहां मुआयने के समय हर कोई कलेक्टर को मान दे रहा है, उसी दिन उनके बाल मन पर ऐसी गहरी छाप पड़ी कि घर आकर उन्होंने अपनी मौसी से कलेक्टर की वैसी खातिरदारी की वजह पूछी। मौसी ने उनको बताया कि आज के ज़माने में कलेक्टर ही जिले का राजा होता है। उस दिन पूछने पर मौसी ने ये भी बताया कि खूब पढ़ाई-लिखाई के बाद ही कोई कलेक्टर बन पाता है। उसी दिन सफीन हसन ने संकल्प लिया कि बड़ा होकर वह भी कलेक्टर बनेंगे तो उन्हे भी लोगों से खूब इज्जत मिलेगी। उन दिनो अपने माता-पिता को कठिन श्रम के बावजूद पैसे-पैसे को मोहताज रहते देखकर बहुत ही दुख होता था। उन हालात से भी उन्हे जिंदगी में कुछ बड़ा कर दिखाने की हिम्मत और प्रेरणा मिली।
सफीन बताते हैं, वह पढ़ाई के दिनो में हमेशा एक ही सपना देखा करते थे कि जिस तरह कठोर मेहनत कर उनके माता-पिता उन्हे शिक्षा दिला रहे हैं, वह भी अपनी मेहनत की कमाई से उन्हे कभी कोई दुख-तकलीफ नहीं होने देंगे। उनके पिता दिन में इलेक्ट्रीशियन का काम करने लगे थे। रात में ठेला लगाकर उबले अंडे और काली चाय बेचते थे।
सफीन भी पिता के कामों में हाथ बटाते थे। मां शादी-समारोंहों में रोटियां बनाकर कुछ पैसे कमा लेती थी। इस तरह उनके माता-पिता की कमाई से स्कूल जाने के लिए बस का किराया, फीस और किताब-कापी नसीब हो पाती थी। मां कभी खाली नहीं बैठती थी। कोई शादी-ब्याह नहीं होता था तो वह आंगनबाड़ी में काम करने लगती थी। वह इतनी मेहनत करती थीं कि सात -आठ हजार रुपए कमा लेने के लिए बारहो मास, यहां तक कि जाड़े में भी हर वक्त पसीने में डूबी रहती थीं।
जिस तरह माता-पिता ने उन्हे पढ़ाने-लिखाने के लिए दिन-रात काम किया, उसी तरह वह भी खूब मन लगाकर गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ाई करते थे। जब दसवीं क्लास में सफीन हसन 92 प्रतिशत अंकों के साथ पास हुए तो साइंस स्ट्रीम में एडमिशन लेना चाहा लेकिन उनके माता-पिता के पास उस महंगी पढ़ाई के लिए इतना पैसा नहीं था। संयोग से उसी साल उनके गांव में खुले एक प्राइवेट स्कूल में एडमिशन लेने पर उनकी फीस माफ कर दी गई। उसके बाद पढ़ाई करते हुए उन्होंने अच्छी तरह अंग्रेजी बोलना सीखा। मां जब खाना पकाती थी, वह उनके पास ही रसोई में बैठकर पढ़ते रहते थे।
स्कूल की पढ़ाई के बाद उन्होंने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग (एनआईटी) में दाखिला ले लिया था। वहां भी प्रिंसिपल ने उनकी 80 हजार रुपए फीस माफ कर दी। वह जब दिल्ली में पढ़ाई कर रहे थे, गुजरात के एक पोलरा परिवार ने दो साल तक उनका कोचिंग समेत सारा खर्च उठाया। जिस दिन वह यूपीएससी का पहला एग्जॉम देने जा रहे थे, उनका एक्सीडेंट हो गया। इसके बावजूद परीक्षा देने के बाद ही वह अस्पताल में दाखिल हुए थे।