कैलाश सत्यार्थी जन्मदिन विशेष: शिक्षा से पूर्व बाल मजदूरों का जीवन हुआ रौशन
यह बात आज इसलिए भी प्रासंगिक है कि देश हर साल 11 जनवरी को श्री सत्यार्थी के जन्मदिन के अवसर पर बच्चों के अधिकारों के प्रति उनके समर्पण के प्रतीक के रूप में ‘सुरक्षित बचपन दिवस’ मनाता है।
बच्चों में असीमित संभावनाएं होती हैं। जरूरी है उनकी प्रतिभाओं और महत्वाकांक्षाओं को पंख देने की। जिससे वह अपनी सामर्थ्य और कौशल को पहचानते हुए संभावनाओं से भरे आकाश में उड़ान उड़ सकें। बाल दासता के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित श्री कैलाश सत्यार्थी इस भूमिका को वर्षों से बखूबी निभाते आ रहे हैं, जिनका मानना है कि बच्चों को ख्वाब देखने से वंचित करने से बढ़कर कोई अपराध नहीं है।
यह बात आज इसलिए भी प्रासंगिक है कि देश हर साल 11 जनवरी को श्री सत्यार्थी के जन्मदिन के अवसर पर बच्चों के अधिकारों के प्रति उनके समर्पण के प्रतीक के रूप में ‘सुरक्षित बचपन दिवस’ मनाता है।
सन् 1980 से श्री सत्यार्थी अब तक 1 लाख से ज्यादा बच्चों को बाल दासता से मुक्त कराकर उनका पुनर्वास और सर्वांगिण विकास करा चुके हैं। श्री सत्यार्थी की प्रेरणा से बाल श्रम से मुक्त ये बच्चे आज अपना भविष्य संवारते हुए समाज के लिए भी एक उदाहरण पेश कर रहे हैं। ये बच्चे श्री सत्यार्थी और उनकी पत्नी सुमेधा कैलाश द्वारा स्थापित बाल आश्रम में रहकर अपनी शिक्षा ग्रहण करते हैं। बाल आश्रम मुक्त बाल मजदूरों का पहला दीर्घकालीन पुनर्वास केंद्र है और यह राजस्थान के विराटनगर की अरावली पहाड़ियों में स्थित है।
श्री सत्यार्थी इसके साथ ही अपने फ्लैगशिप कार्यक्रम बाल मित्र ग्राम (BMG) और फ्रीडम फेलो फ़ंड के तहत बच्चों के बचपन को सुरक्षित करते हुए उन्हें शिक्षा से जोड़ रहे हैं। उनके माध्यम से असल में ‘बदलाव के वाहकों’ की ऐसी बढ़ती हुई श्रृंखला तैयार हो रही है जो समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाएंगे।
शुभम राठौर
शुभम राठौर के बाल मजदूर से इलैक्ट्रिकल इंजीनियर तक के बनने की कहानी प्रेरणादायक है। 25 वर्षीय शुभम का 2021 में उच्च शिक्षा के लिए अशोका विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित यंग इंडिया फैलोशिप के लिए भी चयन हुआ है। जब शुभम 13 साल के थे, तब गरीबी की वजह से उनको मंदसौर के एक ढाबे में काम करने को मजबूर होना पड़ा।
मई 2009 में बचपन बचाओ आंदोलन (BBA) ने उन्हें बाल मजदूरी के दलदल से मुक्त किया। जिसके बाद वह बाल आश्रम आ गए। वहीं से उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने लक्ष्मी देवी इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी, अलवर से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक की पढ़ाई पूरी की। स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद, उन्होंने एसोसिएट इंजीनियर के रूप में भारत सरकार के अधीन पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड में काम किया। शुभम बाल अधिकारों के प्रति भी काफी संजीदा हैं।
वे कहते हैं, “हमारे समाज को सुरक्षित और समृद्ध बनाने के लिए बच्चों और युवाओं में पर्याप्त ऊर्जा और शक्ति है। मैं देश के युवाओं से एक बाल-सुलभ राष्ट्र और बाल-सुलभ दुनिया बनाने का आह्वान करता हूं।“
सचिन कुमार
18 साल के सचिन कुमार वर्तमान में मथुरा के संस्कृति विश्वविद्यालय के पांच वर्षीय दोहरी डिग्री पाठ्यक्रम बीबीए-एमबीए के दूसरे वर्ष के छात्र हैं। वह उत्तर प्रदेश के औरैया जिले के रहने वाले हैं। अपने भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं। पिता की मृत्यु के बाद उनकी मां ने एक मजदूर के रूप में काम करना शुरू किया।
उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा औरैया में ही पूरी की। परिवार की खराब आर्थिक स्थिति को देखते हुए सचिन ने दिल्ली के बर्तन बनाने बाले एक कारखाने में काम शुरू किया। सचिन को जून 2018 में बीबीए ने मुक्त किया था। पढ़ाई के लिए उन्होंने बाल आश्रम भेज दिया गया। सचिन का शुरू से ही मैनेजमेंट की तरफ रुझान था।
वे कहते हैं, “मैं शुरू से ही बिजनेस क्षेत्र में कुछ करना चाहता था। मेरी कोशिश रहेगी कि एक सफल आंत्रप्रेन्योर (व्यवसाय के क्षेत्र में कुछ बड़ा करने का अभिलाषी) बनकर अपनी युवा पीढ़ी को प्रेरित कर सकूं।“
मनीष कुमार
कम उम्र में मां को खोने वाले 18 वर्षीय मनीष कुमार की कहानी भी कम प्रेरणास्पद नहीं है। मनीष ट्रेन में भीख मांगते थे। भीखमंगाई से मुक्ति के बाद बाल आश्रम में रह कर उन्होंने कड़ी मेहनत से पढाई की। नतीजन स्कूली शिक्षा के बाद मनीष का देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान एसआरएम इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के बैचलर इन फिजियोथेरेपी कोर्स के लिए चयन हुआ है।
मनीष फिजियोथेरेपी करने के बाद समाजसेवा करना चाहते हैं। वह कहते हैं, “भाईसाब (कैलाश सत्यार्थी) की निस्वार्थ सेवा भावना ने मुझे काफी प्रभावित किया है। मैं फिजियोथेरेपिस्ट के तौर पर समाज के वंचित वर्ग को अपनी मुफ्त सेवा दूंगा।“
रुखसाना
उत्तर प्रदेश के मेरठ की 24 वर्षीया रुखसाना के जीवनसंघर्ष ने उनके अपने समुदाय और युवा पीढ़ी पर अमिट छाप छोड़ी है। वह एक गरीब परिवार से आती है। लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी। आज वह अपने ही समुदाय की कई अन्य लड़कियों के लिए आशा की किरण बन गई हैं।
वह चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन फाउंडेशन के 'द फ्रीडम फेलो एजुकेशन फंड' का हिस्सा बन गईं और इसके सहयोग से 2019 में एलीमेंट्री एजुकेशन में डिप्लोमा का कोर्स किया और अब वह पोस्ट-ग्रेजुएशन कर रही हैं। साथ ही सुपर टेट की भी तैयारी कर रही हैं। रुख़साना शिक्षिका बनना चाहती हैं।
वह कहती हैं, “मेरा लक्ष्य शिक्षिका बनकर एक ऐसे स्कूल को स्थापित करना है जहां दलित बच्चों को मुफ्त शिक्षा मिले और लड़कियों को शिक्षा से जोड़ा जा सके।“
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बदलाव के इन वाहकों की कहानियां समाज के हर उस वर्ग को प्रेरित करेंगी जो उन मूलभूत संसाधनों से वंचित हैं जिसके वे हकदार हैं। श्री सत्यार्थी के प्रयासों से ऐसे बच्चों की पहचान करके आज उन्हें सशक्त बनाया जा रहा है। ऐसी उम्मीद है कि बदलाव के ये वाहक एक शिक्षित, सभ्य और जिम्मेदार नागरिक बनते हुए युवा पीढ़ी को प्रेरित करेंगे और एक सशक्त भारत के निर्माण में अहम भूमिका निभाएंगे।
नोट: लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और सामाजिक न्याय एवं बाल अधिकारों के मुद्दों पर नियमित रूप से लिखते हैं।
Edited by Ranjana Tripathi