Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

सीडिंग द मून: पीरियड के ब्लड में पानी मिलाकर पेड़ों की सिंचाई के पीछे क्या है वजह?

सीडिंग द मून: पीरियड के ब्लड में पानी मिलाकर पेड़ों की सिंचाई के पीछे क्या है वजह?

Wednesday July 24, 2019 , 6 min Read

आधी आबादी में जागरूकता तेजी से करवट ले रही है। सुनने में ये कोशिश भले अटपटी लगे किंतु ब्राजील की एक साल पुरानी 'सीडिंग द मून' प्रथा से प्रभावित महिलाएं पीरियड के ब्लड में पानी मिलाकर इसलिए पेड़ों को सींचती हैं कि इससे महिला सशक्तीकरण के संदेश के साथ धरती की उर्वरता और हरियाली बढ़ेगी।


पौधा

सीडिंग द मून का मकसद महिलाओं की झिझक दूर करना भी है।



पूरी दुनिया में तेजी से बदलते पर्यावरण से मुकाबले का कुछ जागरूक महिलाओं ने अनोखा तरीका निकाला है। लौरा टेक्सीरिया हर महीने अपना पीरियड का रक्त इकट्ठा कर उसमें पानी मिलाने के बाद उससे पेड़ों की सिंचाई करती हैं। ब्राजील की एक साल पुरानी 'सीडिंग द मून' प्रथा से प्रभावित 27 वर्षीय लौरा का मानना है कि इससे वृक्षों को ज्यादा उर्वरता मिलती है। वह ऐसा कर महिला सशक्तीकरण का संदेश भी देना चाहती हैं।


लौरा बताती हैं कि वह पेड़ों को अपने रक्त से सींचते समय इस मंत्र का जाप भी करती हैं- 'मुझे माफ़ करना, मैं आपसे प्यार करती हूं और आपकी आभारी हूँ।' इसके साथ ही वह आँखें बंद कर इस रक्त को अपने चेहरे और शरीर पर लगाते हुए स्वयं शुक्रगुज़ार महसूस करती हैं। अपने अंदर शक्ति का संचार महसूस करती हैं। लौरा का कहना है कि समाज में सबसे बड़ा भेदभाव मासिक धर्म से जुड़ा हुआ है। समाज इसे ख़राब और शर्म का विषय मानता है। 'सीडिंग द मून' प्रथा के लिए अभी ज्यादातर महिलाएं तैयार नहीं। 


लौरा बताती हैं कि एक वक़्त में इंस्टाग्राम पर उन्हे सिर्फ तीन सौ लोग फॉलो करते थे। उन्होंने इस प्रथा का अनुसरण करने के बाद एक तस्वीर पोस्ट की लेकिन चार दिन बाद इंस्टाग्राम पर उनका मज़ाक उड़ाया जाने लगा। पोस्ट पर दो हजार से अधिक कमेंट्स मिले, जिनमें से ज़्यादातर निगेटिव रहे, जबकि सच तो ये है कि अपने प्राकृतिक रक्त से वृक्षों को हरा-भरा कर वह किसी अन्य की ज़िंदगी में हस्तक्षेप नहीं कर रही हैं। 'वर्ल्ड सीड योर मून डे' इवेंट शुरू करने वाली बॉडी-साइकोथेरेपिस्ट मोरेना कार्डोसो का कहना है- यह महिलाओं के मन को शक्ति देने वाली प्रथा है। इवेंट के समय दो हज़ार महिलाओं ने अपने पीरियड के रक्त से पेड़ों को सींचा था। इवेंट का मकसद महिलाओं की झिझक दूर करना भी है क्योंकि ये सम्मान और महिला शक्ति का प्रतीक है। उत्तरी अमरीका, पेरू में उर्वर बनाने के लिए पीरियड का रक्त ज़मीन पर फैलाया जाता है। 


उन्नीस साठ के दशक में महिलावादी आंदोलनों ने पीरियड की पुरानी सोच को बदलने की कोशिश की थी। विश्व की डेढ़ हजार स्त्रियों पर किए गए एक सर्वेक्षण में पीरियड को एक वर्जित मान्यता के रूप में पाया गया है। जॉन्सन एंड जॉन्सन इस पर ब्राज़ील, भारत, दक्षिण अफ़्रीका, अर्जेंटीना और फिलीपींस में स्टडी कर चुका है। आज लाखों लड़कियां और प्रोग्रेसिव महिलाएं ये सवाल उठा रही हैं कि पीरियड से ही भगवान की देन बच्चे जन्म लेते हैं तो अपवित्रता की तोहमत लगाते हुए मंदिर का पीरियड से क्या लेना-देना है?




भले ही कभी बड़े-बुजुर्ग किसी वजह से ये नियम बना गए हों। तब न सैनिटरी पैड्स थे, न शैंपू-साबुन, लोग नदी तालाबों में नहाते थे। आज वक़्त बदल चुका है। ये स्वच्छता मिशन का समय है। हाथ धोने के लिए साबुन भी है और सैनिटाइजर भी। नई जीवन शैली में हर किसी के साथ महिलाओं की भी जरूरतें बदल रही हैं तो फिर इतना गुर्राने की क्या जरूरत है! बे-सिर-पैर की हजार बातें होती हैं कि पीरियड के वक्त तुलसी या कोई भी पौधा न छुएं, दो दिन बाल न धोएं, टैम्पॉन लगा कर स्विमिंग न करें, अचार न छुएं, पापड़ से दूर रहें, रसोई से बाहर रहें, हो सके तो घर से भी, आखिर क्यों? बदलते वक्त के साथ खुद को और समाज के नियमों को बदलने में ही समझदारी है।


चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक, गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन के कारण ही हमारे देश में अभी सिर्फ 42 प्रतिशत महिलाएं सैनिटरी पैड्स इस्तेमाल कर रही हैं। प.बंगाल तथा बांग्लादेश के बॉल्स समाज के लोग पहले पीरियड के रक्त में गाय का दूध, नारियल का पानी, कपूर मिलाकर पीते हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी पहले पीरियड पर लड़कियों को दुल्हन की तरह सजाकर आरती-पूजन किया जाता है। यह प्रथा केरल तथा में भी देखने को मिलती हैं। इस प्रकार से देश दुनियां के अलग अलग भागों में पीरियड्स से जुड़ी अलग अलग मान्यताएं हैं जिनका लोग बड़ी कठोरता से पालन करते हैं। 


यूनिसेफ का एक अध्ययन बताता है कि भारत में 28 प्रतिशत, यानी तीसरी छात्रा इसी वजह से स्कूल नहीं जा रही है। डब्ल्यूएचओ के मानकों के मुताबिक हमारे देश में आज भी हर 25 लड़की पर एक टॉयलेट उपलब्ध नहीं है। संभ्रात देश ब्रिटेन में भी कई लड़कियों के पास सैनेटरी पैड खरीदने के पैसे नहीं होते। पीरियड से जुड़े प्रोडक्ट्स के अभाव में वे स्कूल नहीं जा पाती हैं। वहां की सामाजिक सरोकारों से जुड़ी कंपनी 'हे गर्ल्स' एक पैकेट सैनेटरी पैड बेचने पर एक गरीब लड़की को एक पैकेट मुफ्त देती है। केरल, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों ने सरकारी स्कूलों में फ्री सैनिटरी नेपकिन देने की शुरुआत की है। फिर भी देश में ऐसे लोगों की भरमार है जो पीरियड की वजह से महिलाओं को कमतर समझते हैं। ऐसे पांच दिनों में उन्हें लगभग अछूत समझा जाता है। कुल मिलाकर हालात आज भी टैबू का रूप लिए हुए हैं।




सरकार द्वारा वर्ष 2005 में प्रतिबंधित कर दिए जाने के बावजूद नेपाल में चौपदी प्रथा के तहत पीरियड शुदा महिलाओं को घर के बाहर झोपड़ी में रहना पड़ता है। पत्रकार कृष्णमाया उपाध्याय इस के ख़िलाफ़ संघर्ष भी कर चुकी हैं। वह कहती हैं- पीढ़ियों से चली आ रही इस इस सामाजिक समस्या का ख़ात्मा एक व्यक्ति नहीं कर सकता, जब तक कि समाज इसे अस्वीकार न कर दे। फिर भी उम्मीद है कि एक दिन सती प्रथा की तरह ही चौपदी प्रथा भी ख़त्म हो जाएगी। कुल्लू (हिमाचल) के गांव जाना की बिमला देवी पीरियड के दौरान सर्दी में भी गोशाला के भीतर सोती हैं। वह अक्सर भगवान से सवाल करती हैं कि ऐसा क्यों? यहां के ज्यादातर गांवों की ये सांसत झेल रही हैं। प्रीता देवी सोचती हैं कि रिवाज़ पालन नहीं किया तो देवता गुस्सा होंगे। 


अब धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ रही है। पिछले साल (मई-2018) में लखनऊ के मनकामेश्वर मठ की महंत दिव्यागिरी ने पीरियडशुदा महिलाओं के लिए भी अपने मंदिर दरवाजे खोल दिए। साथ ही उन्होंने मंदिर परिसर में ही पीरियडस पर एक गोष्ठी भी कराई। महंत दिव्यागिरी का मानना है कि हमें बच्चियों को पीड़ा छिपाना नहीं बल्कि उन्हें हाइजीन का ख्याल रखना सिखाना चाहिए। हिमाचल प्रदेश महिला कल्याण मंडल की मधुर वीणा इसके लिए पुरुष प्रधान समाज को दोषी मानती हैं। अब कुल्लू में सरकार भी 'नारी गरिमा' कार्यक्रम के ज़रिए लोगों को जागरूक कर रही है। जाना गांव के पुजारी जगत राम कहते हैं कि यहां के मंदिर के दरवाज़े सबके लिए खुले हैं।