सेक्स वर्कर्स के बच्चों की जिंदगी सुधारने के लिए अपना जीवन किया समर्पित, कभी अपने ही घर से निकाल दिये गए थे रामभाऊ
रामभाऊ इंगोले जब सेक्स वर्कर्स के बच्चों का जीवन बदलने के उद्देश्य से उन्हे लेकर अपने घर गए, तो परिवार ने उनका साथ न देते हुए उन्हे भी घर से निकाल दिया।
देश भर में सेक्स वर्कर्स के जीवन को सुधारने के लिए कई सामाजिक संगठन काम कर रहे हैं, लेकिन नागपुर के रहने वाले रामभाऊ इंगोले ने सेक्स वर्कर्स के बच्चों को जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए न सिर्फ उन्हे अपने साथ रखा, बल्कि अपनी इस मुहिम में उन्हे कई मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा, लेकिन कठिन समय भी उन्हे हौसलों को हिला नहीं सका।
पुणे शहर स्थित रेड लाइट इलाके का इतिहास करीब 400 साल पुराना है। उस समय शहर का दायरा काफी छोटा था और तब वहाँ के राजा ने पूना (पुणे) से गंगा और यमुना नाम की दो नर्तकियों को अपने शहर में बसाया था, इसके बाद राजा के लोगों ने इस पेशे से जुड़ी कई महिलाओं को भी वहाँ बसाया, जिसे बाद वह इलाका स्थापित हो गया, हालांकि तब यह इलाका शहर से बाहर था, लेकिन लगातार होते रहे विकास के चलते वह इलाका अब शहर के बीचों-बीच आ गया, वहीं समय के अंतराल के साथ यह क्षेत्र रेड लाइट इलाके में तब्दील हो गया।
साल 1980 में नागपुर में स्थित इस ‘गंगा-जमुना’ रेड लाइट एरिया को वहाँ से हटाने के लिए लोगों ने काफी प्रयास किए। लोगों का कहना था कि इन सेक्स वर्कर्स को वहाँ से हटाया जाये, क्योंकि उनकी वजह से समाज पर बुरा असर पड़ रहा है। इस दौरान रामभाऊ इंगोले उनके बचाव में आए और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए एक आंदोलन खड़ा किया, जिसके चलते तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। अपने इसके बाद रामभाऊ ने अपने कदम पीछे नहीं खींचे और उन सेक्स वर्कर्स की जिंदगी को बेहतर बनाने का एक दृण संकल्प कर लिया।
योरस्टोरी से बात करते हुए रामभाऊ इंगोले कहते हैं,
“हम उन्हे वहाँ से बाहर निकालना चाहते थे, लेकिन हमें यह समझ आया कि यह हमारी क्षमता से पूरी तरह बाहर है। ऐसा नहीं है कि यह संभव ही नहीं है, लेकिन इसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर संसाधनों की आवश्यकता होगी। तब हमें विचार आया कि हम भले ही इन सेक्स वर्कर्स को यहाँ से न निकाल पाएँ, लेकिन हम इनके बच्चों के भविष्य को अंधकार में जाने से बचा सकते हैं।”
तब रामभाऊ ने निश्चय किया कि वे उन बच्चों के पुनर्वास और उनके लिए आवास और शिक्षा जैसी मूल जरूरतों को पूरा करेंगे, लेकिन उनके लिए भी यह सब करना इतना आसान नहीं था।
रामभाऊ इंगोले बताते हैं,
“पहली बार मैं अपने साथ सेक्स वर्कर्स के चार बच्चों को लेकर अपने घर गया तो मुझे घर से कोई समर्थन नहीं मिला, बल्कि मुझे घर से निकाल दिया गया, जिसके बाद मैंने किराए का घर लेकर उन बच्चों को अपने साथ रखने से शुरुआत की। यह क्रम आगे बढ़ा और जल्द ही इन बच्चों की संख्या भी बढ़कर 16 तक पहुँच गयी।”
इस बीच रामभाऊ के इस दोस्त उनका साथ देने के लिए आगे आए। वो तब अपने व्यापार से होने वाली कमाई का बड़ा हिस्सा उन बच्चों के भविष्य को सँवारने में खर्च कर रहे थे, लेकिन साल 1995 में उनके दोस्त का आकस्मिक देहांत हो गया, जिसके बाद सारा भार फिर से रामभाऊ के कंधों पर आ गया और इसी बीच उनके व्यवसाय में भी उन्हे काफी नुकसान हुआ और बच्चों की परवरिश के लिए रामभाऊ को काफी परेशान होना पड़ा।
उस समय को याद करते हुए रामभाऊ कहते हैं,
“मन में सवाल आता था कि क्या हम उन बच्चों को वापस वहीं छोड़ आयें जहां से वो आए हैं, लेकिन फिर दूसरा सवाल यह आता था कि उन बच्चों ने तो हमसे नहीं कहा था कि हम उन्हे वहाँ से बाहर निकालें। उन बच्चों को एक बेहतर परिवेश मिला और अब अगर हम उन्हे फिर से वापस वहीं छोड़ आते हैं, तो यह उनके साथ अन्याय ही हुआ।”
रामभाऊ आगे कहते हैं,
“मैंने बच्चों के साथ ही रहने का संकल्प लिया। उस समय मेरे कुछ दोस्तों को चल रहे हालात के बारे में जानकारी थी। उन दोस्तों ने मुझे सपोर्ट किया और कुछ समय बाद मेरा व्यवसाय भी चल पड़ा तो मैंने अपने दोस्तों से मदद न करने का आग्रह किया, लेकिन उन्होने मदद जारी रखी।”
रामभाऊ बताते हैं कि दोस्तों से मिल रही मदद के चलते उनके साथ जुडने वाले बच्चों की संख्या में भी इजाफा हुआ और यह संख्या 47 तक पहुँच गई। उनके इतने प्रयासों के इतर समाज का इन बच्चों के प्रति रवैय्या बदतर ही था, जिसके चलते रामभाऊ को कई बार मकान और बच्चों का स्कूल तक बदलना पड़ा।
रामभाऊ कहते हैं,
"कई लोग मुझे बुलाकर सम्मानित करते थे, ऐसे मैंने सोचा कि यदि ये बच्चे भी समाज में कुछ सकारात्मक योगदान करते हैं तो इन्हे भी समाज से सम्मान और स्वीकार्यता हासिल हो सकेगी, लेकिन इसके लिए क्या करना चाहिए, ये बड़ा सवाल था।"
रामभाऊ ने इसके लिए स्लम के बच्चों के जीवनस्तर को सुधारने का विकल्प चुना। स्लम में रहने वाले बच्चों शिक्षा से दूर जीवनयापन के लिए कूड़ा बीनते हुए नज़र आते हैं। इसकी शुरुआत उन्होने उन बच्चों को कपड़े मुहैया कराने से की। इन कपड़ों को वे अपने दोस्तों और परिचितों के पास से एकत्रित करते थे। कुछ समय बाद रामभाऊ के साथ जुड़े बच्चों ने स्लम के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।
इस दौरान रामभाऊ के साथ यूएस में रहने वाले नवीन चन्द्र देसाई नाम के एक शख्स जुड़े। नवीन चन्द्र ने ही रेजीडेंशियल स्कूल की स्थापना का विचार रखा। नवीन चन्द्र ने अमेरिका में अपने दोस्तों से मदद मांगी, लेकिन दुर्भाग्यवश उसी बीच अमेरिका में उनका देहांत हो गया, हालांकि नवीन चन्द्र के दोस्तों ने उनके सपने को याद रखा और रेजीडेंशियल स्कूल के निर्माण के लिए नवीन चन्द्र को आर्थिक मदद की पेशकश की।
इसके बाद रामभाऊ ने नागपुर में 5 एकड़ जमीन खरीद कर स्कूल के निर्माण की नीव रखी। हालांकि इस दौरान कई बार आर्थिक संकट की घड़ी उनके सामने आई, लेकिन नवीन चन्द्र के दोस्तों के साथ क्षेत्र के लोगों ने अपनी मदद जारी रखी, जिसके परिणाम स्वरूप साल 2007 में रेजीडेंशियल स्कूल बनकर तैयार हो सका। इस दौरान उन्होने आम्रपाली उत्कर्ष संघ नाम के एक एनजीओ की भी स्थापना की, जिसके तहत इस मुहिम को गति मिल सकी।
आज इस रेजीडेंशियल स्कूल में खदानों में काम करने वाले श्रमिकों के बच्चे, अनाथ बच्चे और सेक्स वर्कर्स के बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इस स्कूल में जिन बच्चों को शुरुआत में रामभाऊ ने अपने साल रखा और उनकी जिंदगी को नया मोड़ दिया, वे भी शिक्षक की भूमिका अदा कर रहे हैं।
आज नागपुर के बाहरी क्षेत्र में स्थित नवीन चन्द्र रेजीडेंशियल स्कूल में 157 बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, वहीं 30 साल पहले शुरू हुए नागपुर स्थित मातृ संस्थान में भी 26 बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इन बच्चों में से कई कानून और अन्य विधाओं में स्नातक और परास्नातक की शिक्षा ग्रहण कर आज अच्छी नौकरियाँ कर रहे हैं।