असंभव को संभव बना रही हैं 'संघम' की हजारों महिलाएं
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ से सम्मानित आंध्र प्रदेश की डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी की हजारों महिलाओं ने 1985 से लगातार जूझते हुए जमीनी स्तर पर अपने श्रम दिवसों से दिखा दिया है कि स्त्री, किसान और वंचित वर्गों की असंभव सी स्वायत्तता सामूहिक प्रयासों से किस तरह हासिल की जा सकती है।
आंध्रप्रदेश के जहीराबाद (मेडक) इलाके में दलितों और आदिवासी महिलाओं के उत्थान के लिए लंबे समय से संघर्षरत महिला संगठन 'डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी' को पिछले दिनो संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से विश्व-प्रतिष्ठित 'इक्वेटर पुरस्कार 2019' (10,000 डॉलर) से सम्मानित किया गया। किटी पार्टियों की तरह देश में सक्रिय हजारों आदर्शवादी महिला संगठनों को डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी की उन जुझारू स्त्रियों से सीख लेनी चाहिए कि सचमुच जमीनी स्तर पर काम किया जाए तो महिलाएं अपनी मेहनत, लगन और विवेक से सामूहिक स्तर पर क्या कुछ नहीं कर सकती हैं।
इस संगठन की महिलाओं के नेतृत्व में कृषि को बढ़ावा दिया जा रहा है। ये महिलाएं समुदाय आधारित बीज बैंक चलाने के साथ ही यह सतत भूमि उपयोग और खाद्य सुरक्षा को प्रोत्साहित कर रही हैं।
वर्ष 1985 के बाद से सोसाइटी की महिलाओं ने लगभग 1.2 मिलियन इको-रोजगार दिवसों का उपयोग करने के साथ ही दस हज़ार एकड़ से अधिक कृषि भूमि पर कृषि कार्यों को पुनर्व्यस्थित किया है। उन्होंने 1996 के बाद से, सामुदायिक उत्पादन श्रृंखला की पहल के साथ स्थानीय उत्पादन, भंडारण और वितरण प्रणाली का मॉडल सक्रिय किया है। संघम के नेतृत्व में 50 गांवों की लगभग 3000 महिलाओं ने 3500 एकड़ से अधिक परती भूमि की उत्पादकता को बढ़ाया है। उन्होंने साबित किया है कि गांव की महिलाएं अगर सामूहिक रूप से संगठित हो जाएं तो कृषि और प्राकृतिक संसाधन पूरी तरह किसानों के नियंत्रण में आ सकते हैं। संघम की 1500 से अधिक महिला किसानों ने अपनी सीमांत भूमि पर विभिन्न फसलों को उगाकर, 60 गाँवों में सामुदायिक स्तर के जीन फ़ंड की स्थापना की है।
'डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी' की महिलाएं जिस स्तर पर काम कर रही हैं, जानने से पहले तो उनकी इतनी जटिल और विशाल कामयाबी की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। ये महिलाएं विभिन्न फसल सुधार कार्यक्रमों पर काम कर रही हैं। सोसाइटी का बाजरा की खेती के अनुसंधान और विकास के लिए लाखों अफ्रीकी किसानों वाले दस अफ्रीकी देशों के साथ गठबंधन है, जो पारिस्थितिक सुरक्षा के साथ-साथ पारिस्थितिक खेती, जैव विविधता, खाद्य और पोषण सुरक्षा को प्रोत्साहित करने वाले सोसाइटी के कृषि मॉडल को आगे बढ़ा रहा है।
इसका संचालन मेडक जिले के पास्तापुर मुख्यालय से चल रहा है। यह सोसाइटी भारत के मिलेट नेटवर्क की राष्ट्रीय संयोजक है। सोसाइटी के प्रतिनिधियों को को कोपेन की पश्चिम अफ्रीकी क्षेत्रीय विधानसभा में भाग लेने के लिए आमंत्रित भी किया जा चुका है। पश्चिम अफ्रीका के देश बुर्किना फासो में बीटी कॉटन के प्रभाव का पता लगाने के लिए सोसाइटी द्वारा आंध्रा के आदिलाबाद, नलगोंडा और वारंगल में शोध किया जा रहा है। सोसाइटी ने वहां के किसानों के साथ सामुदायिक अनुसंधान समूहों का गठन किया है। इस टीम में जुझारू नरसम्मा, जयश्री चेरुकुरी आदि नेतृत्व दे रही हैं।
वैसे तो जमीनी स्तर पर सक्रिय लगभग दो दशक पुरानी यह सोसाइटी कहने को एक भारतीय कृषि-आधारित एनजीओ है लेकिन इसकी उपलब्धियां किसी को भी हैरान करने के लिए पर्याप्त हैं। स्वाभाविक भी है कि संयुक्त राष्ट्र संघ किसी संगठन को ऐसे ही इतना बड़ा सम्मान नहीं दे देता है। इस बार सोसाइटी के 'महिला संघम' को रेनफेड बाजरा की खेती में पारिस्थितिकी और नवाचारों में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया है।
संघम की गैर-साक्षर, दलित, गरीब महिलाएं विभिन्न समुदायों, समूहों, प्राथमिक स्थानीय शासन और वर्गों के साथ इस समय लगभग 75 गांवों में काम कर रही हैं। ज़हीराबाद क्षेत्र में सोसाइटी ने दलित और आदिवासी महिलाओं को सशक्त बनाने, भूमि उपयोग को बढ़ावा देने, खाद्य सुरक्षा हासिल करने के लिए पुनः संयोजित कृषि और सामुदायिक-बीज बैंकों को बढ़ावा दिया है। संघम की सबसे जुझारू संगठनकर्ता-संचालिका चिलकपल्ली अनुषम्मा की प्रेरणा से हजारों महिलाएं बंजर भूमि को हरा-भरा करने के लिए लाखों पेड़ लगा चुकी हैं।
संघम की पांच हजार महिला सदस्य अपने-अपने गाँवों के गरीब लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनमें से ज्यादातर महिलाएं दलित परिवारों से हैं। वे वंचित वर्गों के साथ सीधे संवाद में रहती हुई मानो गांवों का पूरा सामाजिक परिदृश्य ही बदल देने पर आमादा हैं। उनके मिशन में कृषि ही नहीं, शिक्षा, समुदायिक स्वायत्तता, जमीन से जुड़ी राजनीति, खाद्यान्न सुरक्षा और प्राकृतिक संसाधन वृद्धि जैसे मसले भी शामिल हैं।
संघम की महिलाओं का मानना है कि आज ग्लोबलाइज दुनिया में वंचित वर्गों की स्वायत्तता, राष्ट्रीय संप्रभुता से कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसीलिए वे वंचित वर्गों की स्वायत्तता को बचाने के लिए तमाम मोर्चों पर संघर्षरत हैं। वह मुख्यतः खाद्य उत्पादन, बीज, प्राकृतिक संसाधनों, बाजार और मीडिया की स्वायत्तता के साथ उभरती वैश्विक चुनौतियों का जवाब देना चाहती हैं।